लोकगाथा की विशेषताएं बताइये। लोकगाथाओं में कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं, जिनके कारण इसे लोकसाहित्य की अन्य विधाओं से पृथक किया जाता है। विश्व की समस
लोकगाथा की विशेषताएं बताइये।
लोकगाथाओं में कुछ सामान्य विशेषताएं होती हैं, जिनके कारण इसे लोकसाहित्य की अन्य विधाओं से पृथक किया जाता है। विश्व की समस्त लोकगाथाओं में ये विशेषताएं समान रूप में पाई जाती हैं। राबर्ट ग्रेब्स और डॉ. कृष्ण देव उपाध्याय ने लोकगाथाओं की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है-
लोकगाथा की विशेषताएं
- अज्ञात रचनाकार
- प्रमाणिक मूलपाठ की कमी
- संगीत तथा नृत्य का साहचर्य एवं सहयोग
- स्थानीयता की गंध
- मौखिक परंपरा
- अलंकृत शैली का अभाव
- उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अभाव
- रचनाकार के व्यक्तित्व का अभाव
- दीर्घ कथानक की विद्यमानता
- टेकपदों की पुनरावृत्ति
- इतिहास की संदिग्धता
इन विशेषताओं में तीसरी विशेषता 'संगीत एवं नृत्य का साहचर्य एवं सहयोग भारतीय लोकगाथाओं में नृत्य का समावेश न होने के कारण सामान्य विशेषता भी भारतीय लोकगाथाओं पर पूर्णतः घटित नहीं होती। ब्रज प्रदेश की लोकगाथा' सरवर नीर से माता-पिता की सेवा, देश भक्ति, विशुद्ध प्रेम आदि उपदेश मिलते हैं। अन्य विशेषताएं भी संख्या में वृद्धि मात्र हैं ।
भारतीय लोकगाथाओं की विशेषताएं
- रचनाकार और रचनाकाल का अज्ञात होना
- सामूहिक व्यक्तित्व की समाहिति
- लोककंठ पर अवस्थित और उत्पन्न
- दीर्घकथानक की अभिव्यक्ति एवं उसकी ऐतिहासिक संदिग्धता
- लोकबोली, मुहावरों, कहावतों और अलंकारों का प्रयोग
- गेयता; लेकिन शास्त्रीय संगीत का अभाव
- लोक छंद और तुक की लापरवाही
- आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति
- भावात्मकता और कल्पनागत सरलता का आधिक्य
- यथार्थ चित्रण का प्राधान्य, चेष्टापूर्वक लाई जाने वाली कलात्मकता तथा वाग्जाल या अनावश्यक सामग्री का अभाव ।
1. रचनांकार और रचनाकाल का अज्ञात होना- संसार में अनेक लोकगाथाएं गायी जाती हैं, लेकिन उनके रचनाकार और रचनाकाल के सामने अब तक प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। ब्रज प्रदेश में हीर रांझा, ढोला, सरवर नीर, महादेव को ब्याहुलौ, राधाचरन कौ ढोला आदि अनेक लोकगाथाएं हैं; लेकिन इनके रचनाकार अज्ञात हैं। यह तो सर्वमान्य है कि लोकगाथाएं किसी एक व्यक्ति अथवा समूह द्वारा ही रचित की गई होंगी। लेकिन प्रश्न यह है कि इनमें रचनाकार का नाम क्यों नहीं होता। इसका उत्तर यही है कि इन रचनाओं में रचनाकार के नाम की छाया नहीं होती है। लोकगाथाएं लोक के कंठ रहती है और वे इतनी पर बढ़ती घटती अथवा सुधरती हुई जीवित परिवर्तित हो जाती हैं कि वे किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित प्रतीत नहीं होतीं। रचनाकार का व्यक्तित्व भी सामूहिक व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाता है। राबर्ट ग्रेब्स के अनुसार, "रचनाकार अपनी रचना को हेय समझता है। यही कारण है कि वह उसे समाज में प्रकट करने में सकुचाता है।" इस तथ्य में कोई बल नहीं। हेय रचना समाज में इतना सम्मान नहीं पा सकती। जनसमुदाय में उन्हें सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ एकत्र होती है, यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है। लोकगाथाओं में प्राचीन समाज का चित्रण अवश्य हुआ है, जिससे उनके प्राचीन होने का अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है, लेकिन उससे उनका निश्चित रचनाकाल निर्धारित नहीं किया जा सकता।
2. सामूहिक व्यक्तित्व की समाहिति - यह तो निश्चित है कि लोकगाथा किसी व्यक्ति की रचना होती है। लेकिन उसमें रचनाकार के व्यक्तित्व की झलक नहीं होती। लोककंठ की खराद पर चलते-चलते रचनाकार का व्यक्तित्व विलीन होकर सामूहिकता प्राप्त कर लेता है। लोकगाथाओं में 'मैं' का तो नितान्त रहता है। इस संबंध में गूमर ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है, “परंपरा, विषय-प्रधानता तथा व्यक्तित्वहीनता से युक्त इन गाथाओं में कथानक होता है। मौखिक परंपरा के साथ वर्ण्य विषय की प्रधानता होते हुए भी व्यक्ति का पता नहीं चलता।"
वस्तुतः शिक्षित और काव्यशास्त्र के नियमों के ज्ञाता कवियों के अलावा कृतित्व में कवियों के व्यक्तित्व की झलक होती है। इसी व्यक्तित्व के निजीपन के कारण उसकी रचना अन्य कवियों से पृथक होती है। लोककवि संपूर्ण समाज को आत्मवत् समझता है, इसलिए उसके व्यक्तित्व में सामूहिकता की झलक होती है, उसकी वाणी में निजीपन नहीं होता। उसकी भाषा लोकबोली होने के कारण समुदाय द्वारा शीघ्र ही अपना ली जाती है।
3. लोककंठ पर अवस्थित और उत्पन्न - लोकगाथाएं लोककंठ पर अवस्थित होती हैं। आजकल शिक्षा के प्रसार तथा लोकसाहित्य के अध्ययन पर बल देने के कारण इन्हें लिपिबद्ध कर लिया गया है। आधुनिक लोककवियों ने भी लोकगाथाएं अपनी लेखनी से पुनः रची हैं। लेकिन वे इतनी लोकप्रिय नहीं हैं, जितनी लोककंठ पर अवस्थित लोकगाथाएं।
हमारा वेदकालीन साहित्य भी मौखिक था। शिष्य वेदों की शिक्षा उनके श्रवण में ही प्राप्त करते थे, इसीलिए उन्हें श्रुति कहा जाता है। यह साहित्य उस समय लोकप्रिय था। लोकगाथाओं की लोकप्रियता का भी यही रहस्य है। जो साहित्य जितना लोककंठ पर अवस्थित रहता है, उतना ही लोकप्रिय होता है। सिजविक ने लिखा है कि, "यदि किसी लोकगाथा को आपने लिपिबद्ध कर दिया तो यह निश्चित है कि आपने उसकी हत्या करने में योग कर दिया।" लोकसाहित्य के अवरुद्ध होते ही उसका विकास, गति, परिवर्तन और परिवर्धन अवरुद्ध हो जाता है।
लोकगाथाओं के लोककंठ से उत्पन्न होने का अर्थ है कि इसका निर्माता 'लोक - इकाई' होता है और वह जन-समुदाय में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अवतरित होती रहती है। इसका जन्मदाता और धात्री लोककंठ ही है।
लोककंठ रूपी यान पर चलते-चलते यह दूसरे क्षेत्रों को जाती है, जहां इसमें स्थानीयता की गंध आ जाती है। वहां के लोकगायक भी इसमें कुछ परिवर्तन कर लेते हैं। इस परिवर्तन में रूप और वस्तु दोनों ही का परिवर्तन सम्मिलित है। लेकिन लोकगाथा के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। लोकगायकों के आचार-विचार, रहन-सहन तथा उनकी अभिव्यक्ति की शैली का प्रभाव अवश्य पड़ जाता है। इसे ही स्थानीयता की गंध कहा जाता है। एक ही क्षेत्र में विभिन्न लोकगायकों के आचार-विचार का लोकगाथा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ता है।
प्रो. टिरेज ने कहा है कि "लोकगाथाएं किसी घटना के कारण ही निर्मित होती हैं और उसके निर्माण के साथ ही साथ उस विशेष प्रान्त के वातावरण और स्थानीयता का भी उसमें समावेश हो जाता है।" लोकगाथाओं का लोक-संस्कृति की दृष्टि से बहुत कम महत्व है। उसमें क्षेत्र-विशेष के रीति-रिवाज, लोक- विश्वास, जादू-टोना, शकुन-अपशकुन, वन-पर्वत, भूत-प्रेत आदि का उल्लेख होता है।
4. दीर्घ कथानक की अभिव्यक्ति एवं उसकी ऐतिहासिक संदिग्धता - लोकगाथाओं में एक दीर्घ कथानक होता है। दीर्घ कथानक के कारण ही वे लोकगीतों से पृथक की जाती हैं। लोकगीतों में एक ही अनुभूति की भावपूर्ण व्यंजना होती है, लेकिन लोकगाथा में जीवन की विभिन्न घटनाओं का वर्णन होने के कारण उसका आकार दीर्घ हो जाता है। उसके दीर्घाकार होने का दूसरा कारण यह है कि इसमें लोकगायक कुछ न कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेता है। कथानक की दीर्घता एवं उसमें जीवन की विभिन्न घटनाओं और अनुभूतियों के चित्रण के कारण इसे लोक महाकाव्य कहा जा सकता है। काव्योत्कर्ष की दृष्टि से लोकगाथा महाकाव्य की बराबरी नहीं कर सकती, लेकिन आकार और लोक संस्कृति की दृष्टि से इसका महत्व महाकाव्य से कम नहीं है। महाकाव्य के समान ही लोकगाथाएं कथा - पात्रों के चरित्र का सांगोपांग वर्णन करती हैं।
भारत में लाकगाथाएं दीर्घाकार और लघ्वाकार दोनो ही प्रकार की मिलती हैं। ब्रज प्रदेश में हीर-रांझा की लोकगाथा तीन सौ पृष्ठों की है। नल का ढौला' नामक लोकगाथा भी इससे कम आकार की नहीं है। भोजपुरी में 'आल्हा' 620 पृष्ठों में प्रकाशित हुई है। गोपीचंद, भरथरी, सरवर नीर, महादेव की ब्याहुलौ आदि लोकगाथाएं भी दीर्घाकार ही हैं।
लोकगाथाओं का यह कथानक ऐतिहासिकता की दृष्टि से संदिग्ध होता है। लोकगाथाकार कोई इतिहास - विशेष नहीं होता और न उसकी रचना के समय इतिहास का ध्यान रखा जाता है। लोकगाथा की रचना लोकरंजन की दृष्टि से होती है। मूल लोकगाथाकार अपनी प्रारम्भिक रचना के समय इतिहास की रक्षा करता भी है तो बाद में उसके रूप में इतना परिवर्तन हो जाता है कि इतिहास की रक्षा नहीं हो पाती। इस विषय में सभी विद्वान एकमत हैं कि लोकगाथाओं में या तो ऐतिहासिकता होती ही नहीं अथवा इसका इतिहास संदिग्ध होता है आल्हा ऊदल, हीर-रांझा, सरवर-नीर, गोपीचंद आदि ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं लेकिन इनसे संबंधित कुछ घटनाओं को संदिग्ध कहा जा सकता है।
5. लोकबोली, मुहावरों, कहावतों और अलंकारों का प्रयोग - हडसन ने शैली की दृष्टि से महाकाव्य को दो वर्गों में विभक्त किया है। - (1) अलंकृत काव्य, 2. संवर्द्धित काव्य। अलंकृत काव्य काव्यशास्त्र के नियमों के ज्ञात शिक्षित कवि का काव्य है। रस, छंद, अंलकार आदि की दृष्टि से यह काव्य बहुत पुष्ट होता है। संवर्द्धित काव्य की रचना युग-युग में विभिन्न कवियों के द्वारा की जाती है। लोकगाथा को इसी वर्ग में रखा जा सकता है। लोकगाथाकार
अशिक्षित और काव्यशास्त्र के नियमों से अनभिज्ञ सहृदय प्राणी होता है। इसलिए वह अपने कृतित्व में लोकबोली, लोक जीवन से उठाए गए अप्रस्तुत तथा लोक संस्कृति के प्रभावित मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग करता है । इस दृष्टिकोण अलंकृत काव्य के समान इनमें कृत्रिमता का प्रयोग नहीं होता। इस दृष्टिकोण से लोकगाथाओं के सौन्दर्य को सहज और स्वाभाविक कहा जा सकता है। अलंकृत काव्य और लोकगाथा में वही अंतर है, जो अंतर एक उद्यान और वनस्थली के विकास पुष्ट में होता है। यह माता और शिशु के वार्तालाप के समान सरल होता है। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने ग्राम गीत को हृदय का धन तथा महाकाव्य को मस्तिष्क का धन कहा है। लोकगाथाएं लोक में निर्मित और परिवर्द्धित होती हैं। इसलिए उनमें लोक बोली, लोक विश्वास, रीति-रिवाज, मुहावरों, कहावतों एवं लोक जीवन से उठाए गए अप्रस्तुतों का प्रयोग होता है।
6. गेयता; लेकिन शास्त्रीय संगीत का अभाव - लोक कथाएं गेय होती हैं लेकिन इनमें शास्त्रोल्लिखित संगीत के नियमों का पालन नहीं किया जाता। अंग्रेजी में 'बैलेड' समवेत स्वर में नृत्य और संगीत के साथ गाये जाने वाले गीतों को कहते हैं। राबर्ट ग्रेब्स ने लोकगाथाओं को उत्तेजना और पुनरावृत्ति मूलक संगीत के अभाव में 'अधूरी कहा है। अंग्रेजी लोकगाथाओं में का भी समावेश होता है।
लोकगाथाएं संगीत के कारण ही लोकप्रिय और प्रभावात्मक होती हैं। यह संगीत 'लोक संगीत' कहा जा सकता है, जिसकी गेयता शास्त्रीय संगीत से भिन्न है। लोकभाषा में संगीत के समावेश के कारण ही लोकगायक इन्हें झूम-झूम कर भावपूर्ण मुद्रा में गाते हैं। यह संगीत स्वरों के उतार-चढ़ाव पर अधिक निर्भर करता है। आल्हा गीत के समय भावों के ओज के साथ लोकगायक के स्वर में भी ओज आ जाता है; उसके हाथ और पैरों में गति उत्पन्न हो जाती है, आंखें ऊपर चढ़ जाती हैं, वह ढोलक को और अधिक तेजी से बजाने लगता हैं। इस प्रकार वह श्रोताओं में वीर रस जगाकर गायन को प्रभावात्मक बनाता है। गोपीचंद और भरथरी की लोकगाथाओं में करुणापूर्ण भावों के उदय के साथ गायक स्वर-परिवर्तन करके श्रोताओं का भी करुणासिक्त कर देता है। संगीत के माध्यम से लोकगाथाओं को जीवंत बनाया जाता है। गाथाएं गाने के लिए बकरबीन, सितार, ढोलक, सारंगी, चिकाड़ा आदि लोकवाद्य प्रयोग किये जाते हैं ।
7. लोकछंद और तुक की लापरवाही - लोकगाथाओं में काव्यशास्त्र में वर्णित छंदों का प्रयोग नहीं होता। इनमें प्रयुक्त छंदों को लोकछंद कहा जा सकता है। लोककवि को मात्राओं का ज्ञान न होने के कारण छंदों में मात्राओं की निश्चित संख्या नहीं मिलती। कवि-कंठ पर किसी लोकगाथा के गायन की लय प्राकृतिक नदी की जलधारा के समान अविरल प्रवाह से चलती है। इसलिए उसमें लय का तो पूर्ण निर्वाह होता है, लेकिन मात्राओं की पूर्ण रक्षा नहीं हो पाती। किसी चरण में मात्राएं घट जाती हैं तथा किसी में बढ़ जाती हैं। यह अंतर कहीं-कहीं पर 6–6 अथवा 7-7 मात्राओं तक पहुंच जाता है। लेकिन लोकगायक इस अंतर को गायन के समय पूर्ण कर लेता है कम मात्राएं होने पर धीरे-धीरे गाकर तथा अधिक मात्राएं होने पर शीघ्रतापूर्वक गाकर लय की रक्षा कर ली जाती है। लोकगाथाओं के छंदों में कहीं-कहीं पर तुकांत की समता की रक्षा नहीं हो पाती। इसे भी लोकगायक अपनी गायन कुशलता के कारण श्रोताओं को नहीं अखरने देता ।
8. आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति - भारतीय लोकगाथाओं की प्रवृत्ति आदर्शोन्मुख होती है। यह प्रवृत्ति नीति वचनों की तरह उपदेश देने के समान नहीं होती है। लोकगाथाकार आदर्श चरित्रों को श्रोताओं के सम्मुख रखकर उन्हें भावान्दोलित और श्रद्धावनत करता है। श्रोतागण इन्हें बहुत श्रद्धा के साथ सुनते हैं। भारतीय लोकगाथाओं में आदर्श मातृ-पितृ-भक्ति, आदर्श प्रेम, आदर्श त्याग, आदर्श ईश्वर भक्ति, देशभक्ति, स्वाभिमान आदि प्रकट हुए हैं। गाथाओं के अंत में लोक मंगल की भावना भी होती है।
लोकगाथाओं में आदर्श व्यक्तियों के जीवन और उनके चरित्र का सांगोपांग वर्णन होता है। उसमें सदाचार और नीति की शिक्षा नहीं दी जाती, बल्कि आदर्श जीवन की घटनाएं सामने रखकर श्रोताओं के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया जाता है।
इसके विपरीत अंग्रेजी लोकगाथाओं में उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अभाव होता है। राबर्ट ग्रेब्स का कथन है कि "यदि लोकगाथा का लोकगायक लोकगाथा को नैतिक या उपदेशात्मक बनाता है तो इसका अर्थ है कि वह समुदाय से विच्छेद करके सुसंस्कृत रचनाओं का पक्ष लेता है। पक्षपात के कारण उसमें और समुदाय में एक प्रकार की पृथकत्व की भावना उत्पन्न जाती है।"
भारतीय संस्कृति आदर्शोन्मुख है। यहां जन समुदाय आदर्श चरित्रों को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है। लोकगाथाओं में जब श्रोता आदर्श चरित्रों को क्रियान्वित होते हुए सुनते हैं तो श्रद्धावनत हो जाते हैं। लोकगाथाओं के इसी गुण के कारण भारत में व्यवसायी प्रकृति के मनुष्य उन्हें गाकर पैसा कमाने का व्यवसाय करते हैं।
9. भावात्मकता और कल्पनागत सरलता आधिक्य - लोकगाथाओं का कथानक इतना सरल और स्वाभाविक होता है कि उन्हें सुनकर श्रोतागण भाव मग्न हो जाते हैं। महाकाव्यों के समान कल्पनागत जटिलता और आलंकारिकता यहां पर नहीं पाई जाती। यह प्राकृतिक वन्य कुसुम के समान सहज ही विकसित उद्यान है, जो अपनी स्वाभाविकता और सरलता से श्रोताओं को भाव विभोर कर देता है। इसे समझने के लिए बुद्धिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती। लोकगायक कथानक की मुख्य घटनाओं को श्रोताओं के सम्मुख इस प्रकार से गाता है कि वे भावानुरूप रसमग्न हो जाते हैं।
10. यथार्थ चित्रण का प्राधान्य- भारतीय लोकगाथाओं में यथार्थ घटनाओं के चित्रण की प्रधानता है, काल्पनिक घटनाओं का यहां कोई स्थान नहीं । कथानक मुख्य घटनाओं का वर्णन करते हुए तेजी से आगे बढ़ता है। उसे अलंकृत करने के लिए व्यर्थ की काल्पनिक घटनाओं का आश्रय नहीं लिया जाता। कथानक में वाग्जाल के प्रवेश से उसका लोकतत्व समाप्त हो जाता है तथा उसका सामूहिक व्यक्तित्व भी नहीं रहता। व्यर्थ ही कलात्मकता से लोकगाथा में रचनाकार के व्यक्तित्व का समावेश हो जाता है और वह शिष्ट साहित्य के अधिक समीप होता जाता है। कथानक का शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ना तथा यथार्थ चित्रण का प्राधान्य लोकगाथाओं की मुख्य विशेषता है।
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