लोक संस्कृति के अध्ययन की पद्धति: लोक साहित्य संकलन जितना कठिन है उतना ही चुनौतीपूर्ण उसका अध्ययन भी है, चूंकि लोक साहित्य में समाज के अनेक संदर्भ व आ
लोक संस्कृति के अध्ययन की पद्धति स्पष्ट कीजिए।
लोक संस्कृति के अध्ययन की पद्धति: लोक साहित्य संकलन जितना कठिन है उतना ही चुनौतीपूर्ण उसका अध्ययन भी है, चूंकि लोक साहित्य में समाज के अनेक संदर्भ व आयाम प्रतिबिंबित होते हैं। विज्ञान से लेकर दर्शन तक, अर्थ से लेकर धर्म तक एक समाज की सामूहिक मानसिकता व परिस्थितियां लोक साहित्य में झलकती हैं। अतः लोक साहित्य के उसकी परिपूर्णता में अध्ययन का अर्थ है उस निश्चित समग्र की ऐतिहासिक जड़ों से लेकर उसके वर्तमान तक को भली-भांति समझना व परखना।
अतः स्पष्ट है कि लोक साहित्य के अध्ययन के लिए गुणात्मक व परिमाणात्मक दोनों प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है। परिमाणात्मक अध्ययन इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक ही गीत या कथा के अनेक रूप पाए जाते हैं और किसी को भी मौलिक रूप नहीं कहा जा सकता। लोक साहित्य लोगों में जन्मता है तथा एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचते-पहुंचते उसका रूप भी लोगों के अनुसार ही बदल जाता है। लोक साहित्य की सार्थकता उसकी विविधता और अनेकरूपता में निहित है। यह अपने ध्वनि विचार, शब्द रचना, रूप विन्यास और वाक्य तंत्र में बहुआयामी और बहुस्तरीय है।
चूंकि लोक साहित्य व लोक संस्कृति में प्रगाढ़ संबंध है अतः लोक साहित्य के अध्ययन के लिए आवश्यक है कि हम एक समाज के तीज त्योहार, प्रार्थना, व्रत उपवास, लोक रीतियों आदि से भी परिचित हों। तभी हम लोक साहित्य को भली-भांति समझ पाएंगे। अतः यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वृहद रूप से हम जितना संभव हो उतना लोक साहित्य संकलित कर सकें और उसका अध्ययन करें।
गुणात्मक विधि का पालन करके हम लोकगीतों / कथाओं में पाए जाने वाले सामान्य तत्वों की पहचान कर उसको समझने का प्रयास करते हैं। यथा, हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल से 150 वर्ष पूर्व नाथ और सिद्ध कवियों ने लोक बोलियों और मिली-जुली संपर्क भाषा में लोक संस्कृति मूलक काव्य की रचना की। लोक संस्कृति मूलक मुक्तक काव्य होने के कारण नाथ और सिद्धों की कविताएं जनता की कविताएं बन गईं। इसी प्रकार भक्ति कालीन संत कवियों की रचनाएं भी हमारे समाज के लिए उत्प्रेरक और प्रोत्साहक रही हैं। कबीर, सूर, तुलसी, रहीम, मूलक दास आदि की रचनाओं की भाषा जनभाषा है। आज वे न केवल उत्कृष्ट साहित्य का अभिन्न अंग हैं बल्कि उनकी रचनाओं के अनेक अंश हिंदी लोकोक्तियों में भी शामिल हो गए हैं। 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए' या 'होइए वही जो राम रचि राखा' या 'जय जगदीश हरे' (जो किसी भी हिंदू धार्मिक रीति की अभिन्न प्रार्थना है), एवं अन्य अनेक लोकोक्तियां / प्रार्थनाएं व गीत भक्तिकालीन संतों की ही देन हैं। हम संत कवियों की 'सधुक्कड़ी' अथवा 'खिचड़ी' भाषा का अर्थ तब तक नहीं समझ पाएंगे, जब तक हम ब्रज और अवधी के लोक साहित्य का परिभाषात्मक व गुणात्मक, दोनों प्रकार का अध्ययन न करें।
फिर, लोक साहित्य के अध्ययन हेतु यह भी आवश्यक है कि हम समाज विशेष की भौगोलिक, आर्थिक, ऐतिहासिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि से भी परिचित हों । अमेरिका के कन्ट्री सांग्स, ब्लूज़ व जैज़ गीतों को समझने के लिए उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से अवगत होना आवश्यक है। बॉब डिलन, जॉन डेन्वर, लुई आर्मस्ट्रांग, सुज़ रोटोलो, पीट सीगर जैसे गायकों ने लोक गीतों को एक नया रूप देकर प्रस्तुत किया जो तत्कालीन समाज में प्रासंगिक थे और आज भी हैं। बंगाल के लोक गीत बाडल, भटियारी, संथाली इत्यादि भी समाज विशेष की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक परिस्थितियों को प्रतिबिंबित करते हैं। अतः लोक साहित्य का अध्ययन केवल वर्तमान साहित्य अथवा भाषा पर ही प्रकाश नहीं डालता बल्कि वह इतिहास, भूगोल व समाज की गति तथा परिवर्तनशीलता को भी समाहित करता है।
लोक साहित्य एक विशाल व तरल क्षेत्र है जिसका विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन किया जा सकता है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है मानव विज्ञान। यह जनता की भाषा में लिखित साहित्य भी है और इससे समाज विशेष के राजनीतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिप्रेक्ष्य का भी ज्ञान होता है। अतः अध्ययन से पूर्व हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हम किस दृष्टि से लोक साहित्य का अध्ययन करना चाहते हैं, तभी हमारा अध्ययन सफल होगा और एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकेगा।
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