लोकगीतों का वर्गीकरण - लोकगीतों की सीमा अनन्त है। अत: इन्हें वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत करना अत्यन्त कठिन काम है। फिर भी विद्वानों ने इस दिशा में काम क
लोक गीतों का वर्गीकरण और महत्व स्पष्ट कीजिए
लोक गीतों का वर्गीकरण
लोकगीतों का वर्गीकरण - लोकगीतों की सीमा अनन्त है। अत: इन्हें वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत करना अत्यन्त कठिन काम है। फिर भी विद्वानों ने इस दिशा में काम किया है। लोकगीतों का वर्गीकरण करने वालों में पहला नाम उत्तर भारत के राम नरेश त्रिपाठी का है। उन्होंने संकलन के आधार पर लोकगीतों को 11 वर्गों में विभाजित किया है।
कृष्णदेव उपाध्याय ने वैज्ञानिक ढंग से लोकगीतों का वर्गीकरण किया है। डॉ. कश्यप ने कुल्लई लोकगीतों को चार वर्गों में रखा है। डॉ. सत्येन्द्र ने विषय के आधार पर लोकगीतों का निम्नलिखित वर्गीकरण किया है; जो नामो की गिनती तक सीमित है :
लोकगीत के प्रकार
- स्तुत्यात्मक गीत
- लोरी
- वीरता प्रधान
- प्रेम तत्व प्रधान
उपर्युक्त वर्गीकरण से यह स्पष्ट है कि डॉ. सत्येन्द्र लोकगाथा को लोकगीत का एक भेद मानते हैं। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लोकगीत और लोकगाथा में भेद करते हैं। उनका मत है कि यह भेद विषय और रूप के आधार पर है। यह कहा जा चुका है कि विषय की दृष्टि से लोकगीतों का वर्गीकरण एक कठिन समस्या है, फिर भी लोकगीतों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से हो सकता है :
1. स्तुत्यात्मक गीत - देवी-देवताओं से संबंधित गीतों में विभिन्न विभिन्न उद्देश्यों - पुत्र- प्राप्ति, उसकी दीर्घायु आदि की प्राप्ति के लिए पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। ऐसे गीतों में घरेलू निष्ठा, प्रचलित विश्वास, पारिवारिक विचार और मान्यताएं मिलती हैं।
2. लोरी के गीत - ऐसे गीतों में वात्सल्य का भाव उभर कर आता है । देवेन्द्र सत्यार्थी का कहना है कि "ज्यों-ज्यों शिशु बड़ा होता है लोरी भी बड़ी होती जाती है। जितनी तेजी से शिशु चलता है, उतनी ही तेजी से गुजरती लोरी का ताल चलता है।" लोरियो में कहीं माँ बच्चे की नींद को बुलाती है, कहीं शिशु के आभूषणों का वर्णन होता है, कहीं चाल को, कहीं जन्म दिन मनाने का, कहीं शिशु की मुस्कान का तो कहीं चंदा मामा को पकड़ना चाहता है। शिशु के प्रति माँ की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। शिशु तो उसके लिए राजा समान है।
3. बच्चों के खेल के गीत - खेलने के योग्य हो जाने पर विभिन्न खेलों या किसी विशेष खेल के समय बच्चे विशेष गीत गाते हैं, जो उसी खेल से जुड़ा होता है। ऐसे गीत प्राय: संक्षिप्त होते हैं।
4. वर सम्बन्धी गीत - वर संबंधी गीतों में वर की वेश-भूषा से संबंधित सेहरे का वर्णन प्रमुख रूप से हुआ है। हल्दी, मेंहदी, घोड़ी आदि भी गीतों के विषय बने हैं।
वर की खोज संबंधी गीतों में माता द्वारा पुत्री के लिए योग्य वर खोजने का आग्रह, पुत्री द्वारा सुन्दर वर के लिए पिता से प्रार्थना, योग्य वर न मिलने पर पिता की चिन्ता और व्याकुलता का चित्रण मिलता है।
5. नेग मांगना - मुंडन, यज्ञोपवीत और विवाह से संबंधित गीतों में बहिन द्वारा पिता से नेग मांगना या लड़के की बुआ द्वारा नेग मांगने का वर्णन किया है।
6. विधि-विधान - यज्ञोपवीत के गीतों में इस संस्कार से संबंधित विधि-विधान का वर्णन होता है।
7. पुत्र जन्म के गीत -सोहर और खेलवना लोकगीत पुत्र-जन्म के अवसर पर गाए जाते हैं।
8. गवना के गीत - विवाह के पश्चात् पुत्री की विदाई के विषय से संबंधित गीतों में विषाद के दृश्य और करूण रस पाया जाता है। भाई का बहिन की पालकी के पीछे-पीछे चलते हुए रोना, बेटी का अपने माता-पिता, भाई-बहिन के वियोग से दुःखी होकर रोना, माता का पुत्री के भावी वियोगजन्य : दुःख के कारण रोना आदि विषय लोक गीतों में पाए जाते हैं।
9. मृत्यु गीत - इनमें मरने वाले के गुणों का उल्लेख, उसकी मृत्यु से उत्पन्न होने वाले दुःखों का वर्णन, मृत व्यक्ति के प्रति पदार्थों का नाम ले ले कर शोक प्रकट करना, गोदान आदि विषय होते हैं।
10. श्रृंगार और प्रेम तत्व प्रधान गीत - प्रेम तत्व प्रधान गीतों में छोटे और बड़े गीत हैं। छोटे गीतों में कथा नहीं होती । ऋतु सम्बन्धी गीतों में कजली एक ऐसा गीत है, जिसमें संयोग और वियोग दोनों का चित्रण है। राधा-कृष्ण का झूला झूलना, पति-पत्नी की प्रेम-लीला, प्रवासी प्रियतम का स्मरण करते हुए उसकी राह देखना, प्रियतम के अभाव में विरह की अभिव्यक्ति आदि का चित्रण मिलता है। 'फाग' और 'चेता' नामक लीकगीतों में भी संयोग के चित्र मिलते हैं। 'बारहमासा' में वियोग का वर्णन प्रधान रूप से होता है।
11. वीरता - प्रधान गीत- वीर कथात्मक गीत भी लोक गाथा की श्रेणी में आते हैं। इनमें किसी वीर के साहसपूर्ण, शौर्यपूर्ण कार्य और आलौकिक वीरता का वर्णन होता है। वीर-पुरुष कहीं शत्रुओं का सामना करता है, कहीं न्याय पक्ष की विजय के लिए युद्ध में संघर्ष करता हुआ दिखाई पड़ता है।
12. स्त्रियों के दुःखी जीवन संबंधी गीत - स्त्रियों के दुःखी जीवन, विशेष रूप से ससुराल में प्राप्त होने वाले दुःखों से संबंधित लोकगीत हमें देखने को मिलते हैं। इन लोकगीतों में कहीं बहू का सास द्वारा सताए जाने का विवरण है तो कहीं पत्नी के आचरण पर संदेह करके पति द्वारा उसकी अग्नि परीक्षा लेने का उल्लेख है।
13. उल्लास और मस्ती के गीत - होली और बसन्त ऋतु से संबंधित लोकगीतों में आनंद, उल्लास और मस्ती का वर्णन मिलता है। होली आने पर लड़की अपनी माँ से कहती है कि मुझे पिता से कहकर चुनरी मंगवा दो, चाचा जी से कहकर चूड़ा मंगवा दो, मैं 'फाग' खेलने जाऊंगी।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि लोक गीत जीवन के सुख दुःख से संबंधित हैं, इसलिए वे सभी प्रसंग और भाव जो उल्लास, हर्ष, शोक और विषाद से संबंधित हैं, लोक गीतों का विषय है।
लोक गीतों के संरचनागत प्रकार / भेद
डॉ. सत्येन्द्र ने लोक गीतों के दो रूप माने हैं :
1. मुक्तक 2. प्रबन्धात्मक
1. मुक्तक को उन्होंने पुनः दो भागों में बांटा है :
(क) भाव बिन्दु वाले
(ख) कथा बिन्दु वाले
2. प्रबन्धात्मक-गीत में एक कथानक रहता है जो लघु या वृहत हो सकता है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लोकगीत और कथात्मक आधार वाली लोक गाथा में विषयगत और स्वरूपगत अन्तर मानते हैं।
लोक गीतों की संरचना से अभिप्रायः उन तत्वों से है, जिनसे लोक गीत का निर्माण होता है । मुक्तक गीतों में प्रथम तत्व एक 'टेक' है जो ध्यान आकर्षित करती है। यह टेक गीत में दोहराई जाती है। टेक को शास्त्रीय संगीत में 'स्थाई ' कहा जाता है। टेक के पश्चात् गीत का 'मूलरूप विधान' प्रस्तुत होता है जिसे झड़ भी कहते हैं। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार इसके निम्नलिखित अंग माने जाते हैं :
1. रीढ़ ( मुखड़े को छोड़कर गीत का शेष भाग ) - मूल रूप विधान जिन शब्दाधारों पर टिकता है, वही गीत की रीढ़ है। रीढ़ को अंतरा भी कहा जाता है।
2. स्वर-संभरण ( आवाज़, संगीत के सुर, लय एकत्र करना) - रीढ़ के ऊपर गीत का मूल लय-रूप खड़ा करने के लिए जो स्वर - तत्व संयुक्त किया जाता है, वह स्वर संभरण है। यही गीत को निजी रूप प्रदान करता है। लोक गीतों में छन्द की अपेक्षा लय का संरक्षण होता है। लोक गीतकार को मात्रादि का ज्ञान नहीं होता वह केवल लय को जानता है ।
3. स्वरालंकरण (लचीलापन, कोमलता, नज़ाकत ) - गीत में सामान्यतः इतनी लोच होती है कि वह गायक के आवेग आवेश को अपनी लय में समाविष्ट कर सकता है। स्वरालंकरण की तुलना शास्त्रीय संगीत की 'तान' और 'अलंकार' से की जा सकती है। इससे शीत में सौन्दर्य उत्पन्न होता है। लोकगायक स्वरों में उतार-चढ़ाव के साथ हे, हो, हरे, अरे आदि शब्दों की योजना भी करता है।
4. तोड़ या मिलान-तोड़ गीत के मूल रूप विधान (झड़) का अंतिम अंग है। अंतरा को समाप्त करने के पश्चात् गायक स्वर के आरोह ( चढ़ाई ) अवरोह ( उतार) के साथ अपनी स्थायी लय (स्वर - संभरण) प्राप्त करता है। गीत के इसी अंग को तोड़ या मिलान कहते हैं। इसे गाने के पश्चात् गीत की टेक की पुनरावृत्ति की जाती है।
5. भरती - गीत की झड़ गाने के पश्चात् गीत के प्रभाव की निरन्तरता बनाए रखने के लिए कुछ पदों की योजना की जाती है, जिन्हें भरती कहा जाता है। भक्तिपरक गीतों में ‘हरे', 'हरि गुन गाइयै' आदि पद भरती के अन्तर्गत आते हैं।
6. मोड़ - मोड़ प्रायः भरती से संबंधित होता है। एक झड़ को गाकर दूसरी झड़ गाने के लिए प्रवेश करने को मोड़ कहते हैं। एक ही झड़ के गायन में स्थायी से अन्तरा तथा अन्तरा से तोड़ में प्रवेश करने को मोड़ कहा जाता है ।
गीत निर्माण के उपर्युक्त तत्त्वों के अतिरिक्त एक अन्य तत्व रंगत विधान की चर्चा भी की जाती है जिसका संबंध गीत की रचना से न होकर गायन की शैली से है। श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए गीत के मुख्य भाव को छन्द परिवर्तित करके गाया जाता है, इसे रंगत-विधान कहते हैं।
प्रबन्ध गीतों में एक लम्बी कथा होती है। कोई-कोई कथा महाकाव्यों से भी स्पर्धा करती है। प्रबन्ध-गीतों में टेक होती है जिसे बार-बार दोहराया जाता है । दुहराने से गीत का अनंद बढ़ता है। कहीं-कहीं टेक पदों को सामूहिक रूप से गाया जाता है। गवैया जब गीत की एक कड़ी गाता है तब समुदाय के अन्य लोग मिलकर टेक पदों की आवृत्ति करते हैं। प्रबन्ध गीतों में टेक की आवृत्ति कई प्रकार से की जाती है। वह टेक पद जो किसी गीत की प्रत्येक पंक्ति के बाद आता है, उसे बर्डेन कहा जाता है।
प्रबन्ध गीत में प्रत्येक नए पदय के बाद पूरे पदय की आवृत्ति होती है, इसे ‘कोरस' कहा जाता है। राजस्थान के ओलूँ के गीतों में यह लक्षण पाया जाता है। कुछ पदों की जब निश्चित स्थान तथा समय के पश्चात् आवृत्ति पाई जाती है तब इसे रिफ्रेन कहा जाता है।
लोक गीतों का महत्त्व
लोक गीतों का महत्त्व - लोक गीत हमारी सभ्यता एवं संस्कृति के अवशेष हैं। इसमें युगीन परिस्थितियाँ प्रतिबिम्बत रहती है। समाज के प्रत्यक्ष पक्ष का इसमें सजीव चित्रण चित्रित रहता है। नारी के हृदय की विशालता, माँ की ममता, पति के वियोग में तड़पती पत्नी प्रेमी से मिलन अथवा विरह, बच्चों का हास- परिहास, युवकों की आशाएँ आदि इन गीतों में वर्णित हैं। इसमें हमारे समाज की एक-एक अवस्था, सामूहिक विजय पराजय, प्रकृति के गीत, टोना-टोटका, दानव का मनन- चिन्तन सब का बड़ा ही मनोहारी चित्रण मिलता है। इन लोक गीतों का बड़ा ही महत्त्व है। यह महत्त्व, सांस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक, भौगोलिक, आर्थिक, भाषा तथा भाषा विज्ञान सम्बन्धी सभी क्षेत्रों में है। लोक गीत मात्र गाँव का नहीं बल्कि पेशे के आधार पर भी गीतों को बाँटने की कोशिश की गई है। जैसे किसानों के गीत, मच्छेरों के, संस्कार, धार्मिक गीत आदि। लोक गीतों में जीवन की आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख सभी भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है ।
COMMENTS