कुमार गिरी का चरित्र चित्रण - कुमारगिरी इस उपन्यास के प्रमुख पात्रों में से एक है। वह योगी है और उसका दावा है कि युवावस्था में ही उसने जीवन की समस्त व
कुमार गिरी का चरित्र चित्रण - Kumar Giri ka Charitra Chitran
कुमार गिरी का चरित्र चित्रण - कुमारगिरी इस उपन्यास के प्रमुख पात्रों में से एक है। वह योगी है और उसका दावा है कि युवावस्था में ही उसने जीवन की समस्त वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। संसार को उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है। उसमें तेज है, प्रताप है। उसमें शारीरिक बल और आत्मिक बल दोनों है, जैसे कि लोगों का कहना है- उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। प्रस्तुत उपन्यास में वह भारतीय संस्कृति के उस आदर्श रूप का प्रतिनिधित्व करनेवाला पात्र है जो समस्त पाप का मूल वासना समझता है। उसके अनुसार 'वासना के कारण ही मनुष्य पाप करता है।'
कुमारगिरि का व्यक्तित्व अत्यंत तेजस्वी है जिसकी शक्तियों से स्वयं रक्ताम्बर भी अभिभूत है। इसलिए वह एक जगह कहता है- “तुम वास्तव में श्रेष्ठ हो। तुम संसार से बहुत ऊपर उठ चुके हो अभी तक मैं संसार में ही हूँ।.... तुममे ज्ञान है, कल्पना है और मुझमे केवल अनुभव है।” कुमारगिरि प्रारंभ में अपने ज्ञान और संयम के प्रति अहंकारी दिखाई देता है। विनम्रता और उदारता तो कहीं दिखाई ही नहीं देती। जिसका पूर्ण परिचय चन्द्रगुप्त के दरबार में मिल जाता है जहाँ चित्रलेखा के तर्कों के समक्ष पराजित होकर भी अपनी पराजय को अपने अहंकार के दंभ में स्वीकार नहीं करता है। इसके साथ ही साथ वह क्षुद्र वृत्तियों का दास भी है। पतन के मार्ग बढ़ते हुए चित्रलेखा के शरीर को प्राप्त करने के लिए वह उचित - अनुचित हर प्रकार के संसाधनों का प्रयोग करता है। बीजगुप्त के यशोधरा के साथ विवाह की गलत सूचना देकर चित्रलेखा को अपनी वासना का शिकार बनता है। अंत में उसके व्यक्तित्व को चित्रलेखा के शब्दों में देखा जा सकता है। जहाँ वह कहती है " वासना के कीड़े तुम प्रेम क्या जानो? तुम अपने लिए जीवित हो - ममत्व ही तुम्हारा केंद्र है... तुम्हारी तपस्या और तुम्हारा ज्ञान- तुम्हारी साधना और तुम्हारी आराधना - यह सब भ्रम है, सत्य से कोसों दूर है। तुम अपनी तुष्टि के लिए गृहस्थाश्रम की बाधाओं से कायरता पूर्वक सन्यासी का ढोंग लेकर विश्व को धोखा देते हुए मुख मोड़ सकते हो - तुम अपनी वासना को तुष्ट करने के लिए मुझे धोखा दे सकते हो - और फिर तुम प्रेम की दुहाई देते हो। वह समाज के समक्ष जितना ही संयमी और संस्कारित बनता है उसका आंतरिक पक्ष उतना ही पतित और निम्न स्तर का है। "
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