कफन कहानी की मूल संवेदना - Kafan Kahani ki Mool Samvedna: कफन कहानी की मूल संवेदना - 'कफन' सामन्तवादी शोषण का शिकार भूमिहीन किसानों की पीड़ा और अमानव
कफन कहानी की मूल संवेदना - Kafan Kahani ki Mool Samvedna
कफन कहानी की मूल संवेदना - 'कफन' सामन्तवादी शोषण का शिकार भूमिहीन किसानों की पीड़ा और अमानवीकरण की भयावह त्रासदी को सामने लाती है।
मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था में घीसू और माधव जैसे व्यक्ति विपन्नता और महंगाई से परम संतुष्ट हैं क्योंकि जिस समाज में वे रहते हैं वह सामन्ती मूल्यों वाला समाज है जिसमें परिश्रम का कोई मूल्य नहीं अपितु परिश्रम दूसरों के लाभ के लिए किया जाता है। यह सोचकर कि श्रम करना श्रम न करने से किसी भी मायने में बेहतर नहीं। वे श्रम और उसके फल के प्रति लगाव खो बैठते हैं और धीरे-धीरे निकम्मेपन का शिकार हो जाते हैं।
जिस समाज में रात दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा संपन्न थे। वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था, जो किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की मंडली में जा मिला था, हाँ उसमें यह शक्ति न थी कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मंडली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे। उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तस्कीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम से कम उसे किसानों की सी जी तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती। उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेवजह फायदा तो नहीं उठाते ।
निकम्मेपन से भले ही घीसू और माधव शीर्षको को अंगूठा दिखा दे किन्तु विडंबना यह है कि भूख के सर्वग्रासी आक्रमण में वे संपूर्ण मानवीय गुणों से वंचित हो जाते हैं। त्रासदी यह है कि उनकी मानवीय चेतना इस हद तक जड़ हो जाती है कि बुधिया की प्रसव संवेदना की पछाड़ और दिल हिला देने वाली चीखों से निरपेक्ष बाप-बेटा चोरी के भुने हुए आलुओ पर टूट पड़ने की फिराक में था। माधव को डर था कि वह कोठरी में गया तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
ओझा को एक रुपया देने की संभावना से भी क्षुब्ध घीसू माधव इस प्रतीक्षा में है कि बुधिया मर जाये तो ये आराम से सोयें और माधव की पत्नी धनाभाव के कारण मर जाती है। उसकी दाह क्रिया के लिए समाज चन्दा के तौर पर पाँच रुपये माधव को देता है। वे दोनों कफन और लकड़ी खरीदने की लिए बाजार जाते हैं। सर्वप्रथम वे निश्चय करते हैं कि चन्दे में लकड़ियों के आ जाने के कारण अब लकड़ी खरीदने की आवश्यकता नहीं। कई बाजारों की दुकानें देखने के पश्चात् वे दोनों अनायास ही मानो किसी दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला में पहुँच जाते हैं। घीसू इस सुख का आनंद लेते हुए कहता है। कफन लगाने से क्या निकलता ? आखिर जल ही जाता वह बहू के साथ तो न जाता ।
माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पाप का साक्षी बना रहा हो। दुनिया का दस्तूर है, नहीं तो लोग बामनों को हजारों रुपये क्यों देते हैं। कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं। बड़े आदमियों के पास धन है, चाहें तो फेंके। हमारे पास फूंकने को क्या है। लेकिन लोगों को जबाव क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं कफन कहाँ है? घीसू हँसा, अब कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। लोगों को विश्वास तो न आयेगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
घीसू और माधव के अंतर के नग्नतम यथार्थ का उद्घाटन बेलाग होकर लेखक करता है। न जाने कब के भूखे-प्यासे आशान्वित और दुखी माधव और घीसू अपने पास रुपयों के आते ही एकाएक अपनी सारी झूठी मर्यादाओं, मान्यताओं को भूलकर अपनी आत्मा की यथार्थतम भूमि पर उतर पड़ते हैं। किन्तु यहाँ प्रेमचन्द की खूबी इस नग्न यथार्थ मात्र का उद्घाटन नहीं है और न ही घीसू और माधव के अमानवीय होने की प्रक्रिया का तटस्थ चित्रण है। प्रेमचन्द एक संवेदनशील कलाकार हैं। यहाँ उनके आक्रोश का केन्द्र बिन्दु मनुष्य मन की दुष्प्रवृत्तियाँ और कुरीतियां नहीं हैं। केन्द्र बिन्दु हैं वह कुव्यवस्था जिसके कारण यह सब होता है। विपरीत और विषम परिस्थितियों में श्रमजीवी पिसकर इतना टूट जाता है कि उसका कर्तव्यबोध लुप्त हो जाता है उस पर विडंबना यह है कि वह इस बात के प्रति स्वयं सचेत नहीं होता। क्योंकि उनके पास वे सुख-सुविधायें नहीं है, सामर्थ्य नहीं है कि वे उनमें से कुछ का त्याग कर महानता का अनुभव कर सके। वे जानते हैं कि वे समाज पर निर्भर हैं और उनकी निरीहता और सरलता शोषण को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है। ये लोग संख्या में तो बहुत हैं पर वे विचारशून्य समूह के अलावा कुछ भी नहीं। कारण कि इस सामन्ती समाज में शोषण का तन्त्र इतना कठोर व निर्मम है कि विचारशून्यता उसका अनिवार्य परिणाम है। विचारों से ही मनुष्य, मनुष्य बनता है। और विचारहीन मनुष्य पशु के समान है। यदि इस समाज में असंख्य श्रमजीवी लोगों को मनुष्य की तरह जिन्दा रहने दिया जाता तो उनमें विचार होता और जब विचार होता तो उन्हें यह अहसास होता कि उनका शोषण हो रहा है। तब वे एक होकर स्वाभिमानी मनुष्य की तरह जीवित रहने की कोशिश करते। इन श्रमजीवियों की दुर्दशा देखकर ही घीसू, माधव निकम्मे कामचोर और काहिल हो गये हैं। नैतिकता, प्यार, त्याग, कर्तव्यबोध आदि ऊँचे सामाजिक गुणों से रहित हो गए हैं। या कहें वे समाज के नियम कानून उनके लिए नहीं हैं। उनको मार-मारकर वहाँ खदेड़ दिया गया है जहाँ परावलंबी बनने के लिए वे विवश हैं। मार खाना, गाली सुनना, कर्ज से लदकर भी चिन्तामुक्त रहना उनकी प्रवृत्ति बन गई है। सदियों से घीसू, माधव जैसे व्यक्ति को इस दुर्गति को अंगीकार करने के अभ्यस्त हैं और निरन्तर अभ्यास प्रवृत्ति बन जाती है, संस्कार बन जाता है। इस पर अन्तर्विरोध यह कि इस समाज के विधायकों को शोषण के साथ दया करने का भी अभ्यास है क्योंकि उनकी उच्चता के अहसास के लिए समाज में ऐसे लोगों का अस्तित्व जरूरी है जिन पर दया माया दिखाई जा सके। सत्ता संपन्न दया कर सकें और दूसरे विपन्न उस दया पर खुशी-खुशी निर्भर कर सकें।
उसका प्रत्यक्ष प्रमाण कहानी में लेखक उस समय देता है जब माधव चिंतित होकर कहता है कि बचवा हो गया तो क्या होगा। उस समय घीसू उसे आश्वासन देता है। सब कुछ हो जायेगा भगवान दें तो। जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कुछ न था, मगर भगवान ने किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया। प्रकट रूप में पनपता दया का यह मानवीय रूप वस्तुतः शोषण का वीभत्स अस्तित्व ही है। कारण कि यह दया शोषण की उच्चता के अहंकार को पुष्ट करती है। उनकी गर्दन को ऊँचाई देती है कि असंख्य लोग उनकी प्रजा हैं। यह समाज इन गुलामों को न ठीक से जीने देता है न ठीक से मरने देता है। क्योंकि उनका जिन्दा रहना उनकी उच्चता बनाये रखने के लिए जरूरी है और ठीक से जीवित रहने देने का मतलब है स्वाभिमान के साथ जीवित रहने का अधिकार देना। जबकि शोषक समाज के लिए मानवीय चेतना व मानवीय स्वाभिमान एक खतरनाक चीज है। इस चेतना को पैदा होने ही न दिया जाये। लोगों की आत्मा को उनके स्वाभिमान को, उनकी मनुष्यता को इस तरह कुचल डाला जाये कि उनको अहसास ही न हो कि वे मनुष्य हैं।
माधव और उस सरीखे के लोग इतने समर्थ नहीं कि प्रत्यक्षतः इस व्यवस्था का विरोध कर सके, पर अप्रत्यक्षतः प्रतिकार और प्रतिशोध की चेतना ही उन्हें शराबखाने की ओर ले जाती है। वे कफन के पैसों से कफन न खरीद शराब पीकर समाज में इस महान पुण्य की अवहेलना करके मस्ती की दुनिया में डूब जाते हैं। दार्शनिकता की तरंग में वे स्वर्ग-नर्क का विवेचन करते हैं और उनकी अन्तरात्मा की सच्चाई निर्भीक भाव से कह उठती है ।
हां बेटा! बैकुण्ठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न वैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे, जो गरीब को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं। यहां है विरोध चेतना की चिंगारी, जो शोषण के पहाड़ के नीचे दबी गरीबों की आत्मा में कहीं धीमे-धीमे सुलग रही है, जो घीसू के मुँह में सच्चाई के रूप से निकलकर चमक उठती हैं। शोषण और अन्याय की राख का पहाड़ इस विरोध की चिंगारी को दबाये हुए है, पहले उसे हटाना पड़ेगा तभी यह अन्यायी व्यवस्था समाप्त हो सकेगी। अन्यथा घीसू माधव की चेतना शराबखाने में धाराशायी होती ही रहेगी। इस प्रकार से देखे तो इस कहानी की मूल संवेदना उस सामंतवादी-पूँजीवादी परिवेश तथा आर्थिक वैषम्य से जुड़ी हुई है जिसमें मनुष्य मानवता के अनिवार्य गुणों को भी सहज ढंग से छोड़ने के लिए विवश हो जाता है।
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