हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या : अलका तक्षशिला के नागरिकों को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हिमालय की ऊँची चोटियों से मानो स्वतंत्रता की पुक
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या सन्दर्भ प्रसंग सहित
सन्दर्भ और प्रसंग: यह कविता 'चन्द्रगुप्त' (1931) नाटक के चतुर्थ अंक के षष्ठ दृश्य से ली गयी है। तक्षशिला के राजकुमार आम्भीक के द्वारा विदेशी आक्रान्ता सिकंदर को समर्थन देने के कारण जनता में असंतोष उत्पन्न हुआ। आम्भीक की बहन अलका जनता को नेतृत्व देते हुए यह गीत गाती है। वह चाहती है कि तक्षशिला के लोग एकजुट होकर विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला करे। इसके लिए वह अपने भाई की अवसरवादी राजनीति का विरोध करती है और जनता से आह्वान करती है कि विदेशी आक्रमण का मुकाबला करके अपने गौरव को बढाएँ।
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या : अलका तक्षशिला के नागरिकों को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हिमालय की ऊँची चोटियों से मानो स्वतंत्रता की पुकार आ रही है। ऐसा लगता है मानो अपनी ही प्रभा से उज्ज्वल विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती स्वतंत्रता की पुकार लगा रही हैं। अविद्या को दूर कर विद्या की चेतना फैलानेवाली सरस्वती प्रबुद्धता और शुद्धता का प्रतीक हैं। उनके आह्वान को सुनो। वे तुमसे कुछ कह रही हैं।
विद्या की चेतना का प्रतीक वह भारती तुमसे कह रही हैं कि तुम अमर वीरों की संतान हो और स्वयं भी अमरत्व के गुणों से विभूषित हो। देश की रक्षा के लिए दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा लेने के बारे में सोच लो यह पुण्य का रास्ता है और पुण्य का रास्ता हमेशा विस्तृत होता है। इसलिए इस रास्ते पर तुम बढ़ते चलो।
तुम्हारे पूर्वजों के अनंत यश हैं। उनके यश असंख्य किरणों की तरह फैले हैं। ऐसा लगता है मानो अलौकिक अग्नि चारों तरफ फैली हुई है। तुम अपनी मातृभूमि की सुयोग्य संतान हो। तुम वीर और साहसी हो, इसलिए अपने रास्ते पर बिना रुके चलते रहो। यद्यपि शत्रुओं की सेना समुद्र की तरह विराट है, मगर तुम समुद्री आग की तरह जल उठो और शत्रु- सेना का नाश करो। तुम श्रेष्ठ वीर हो, विजयी बनो, अपने रास्ते पर बढ़ते चलो। अलका चाहती है कि उसकी तक्षशिला के नागरिक अपने राजा की गलत राजनीति में साथ न दें। वे तक्षशिला पर लगनेवाले कलंक को धो डालें। वे इतिहास में देशभक्त के रूप में दर्ज हों, भले उन्हें राजद्रोह करना पड़े।
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