दारोगा अमीचन्द का चरित्र चित्रण- अज्ञेय द्वारा लिखी गई कहानी दारोगा अमीचन्द का नायक अमीचन्द है। अमीचन्द पंजाब की हज़ारा जेल का दारोगा था। वह एक नम्बर
दारोगा अमीचन्द का चरित्र चित्रण - Daroga Amichand Ka Charitra Chitran
दारोगा अमीचन्द का चरित्र चित्रण- अज्ञेय द्वारा लिखी गई कहानी दारोगा अमीचन्द का नायक अमीचन्द है। अमीचन्द पंजाब की हज़ारा जेल का दारोगा था। वह एक नम्बर का जालिम व्यक्ति था। अटक जेल में मार्शल ला के पुराने कैदियों के साथ उन्होंने ज्यादतियां की थीं। दारोगा के पद से उन्नति पाकर डिप्टी साहब और राय साहब का पद पा चुका था और अब ब्रिटिश एम्पायर का आर्डर उन्हें शीघ्र ही मिलने वाला था। दरोगा अमीचन्द स्वार्थी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दारोगा अंग्रेज सरकार का पिट्ठू बना था और अपने देश की जेलों में बन्द ए, बी, सी क्लास के सियासी कैदियों के साथ जल्लाद सा व्यवहार करता था। उसे देश की आज़ादी के लिए जेलों में बन्द कैदियों के प्रति स्वदेश होने के नाते हमदर्दी नहीं थी। वह तो अंग्रेजों को खुश करने के लिए कैदियों में दबदबा और रोब बनाए रखता था ताकि अंग्रेज़ सरकार उसे अपना हिमायती समझ कर पदोन्नति देती जाए।
दारोगा अमीचन्द जाति से खत्री था और डील-डौल का साधारण था। उसका कद मंझला था पर अकड़ कर चलता था। दारोगा की चाल में फुर्ती इतनी थी कि परेड पर निरीक्षण के लिए जब जाता तो कैदी अकस्मात ही आधा कदम पीछे हट जाते। अमीचन्द ने अपनी छवि को रोबीला बनाने के लिए ठाकुरी अन्दाज की मूंछें रखी थी। दारोगा की मूंछों को लेकर लोग कहते थे वह तो जल्लाद है। लेखक ने कहानी में मूंछों का वर्णन व्यंग्यात्मक लहजे में करते हुए लिखा है कि दारोगा 'अपनी घनी मूंछे ऐसे उमेठ कर रखते थे कि ठाकुर ठकुराई भूल जाए। मोम लगा कर मूंछों की नोक का कसाव कुछ ऐसा तीखा रखते थे, मानो तारकशी का काम करने वाले किसी अच्छे कारीगर ने लोहे के तारों के लच्छे लेकर उन्हें बंट कर नोंक दे दी हो। दारोगा अपनी मूंछों को बंटते रहते है और तब तक सन्तुष्ट नहीं होते जब तक कि नींबू उठाकर मूंछों की नोक पर उसे भोंक कर तसल्ली न कर लें कि नींबू उससे आर-पार छिद जाता है।"
दारोगा अमीचन्द अनुशासन प्रिय व्यक्ति था। जेल के वातावरण में उन्हें अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होती थी और सख्ती से पेश आते थे। एक बार जब अकाली दल से दारोगा की ठन गई तो अकाली समूह ने अपनी शिकायतों की सूची देते हुए घोषणा की जब तक उनकी माँगे पूरी नहीं होगी वे जेल का डिसिप्लन नहीं मानेंगे तो दारोगा भी अपना लोहा मनवाने को उतावले हो गए और कहलवा दिया "कैदी कैदी हैं, उन्हें कोई फरियाद करनी ही तो परेड के दिन कर सकते हैं, धौंस कोई नहीं मानेगा और डिसिप्लन न मानने पर सख्त कारवाई की जाएगी। दारोगा अमीचन्द और अकालियों के बीच संघर्ष बढ़ता गया क्योंकि दारोगा अकालियों के लिए एक पर एक सजा घोषित कर देता परन्तु अकालियों पर कोई असर नहीं हुआ। अकालियों की सामूहिक एकता थी उन्होंने यह सोच कर दारोगा की सज़ाओं को सह लिया 'मानो गैंडे की पीठ पर कोड़े पड़ रहे हो, सौ पड़ें तो क्या और हज़ार पड़ें तो क्या।" अंततः परेड वाले दिन जेल का अनुशासन व अपना रोब बनाए रखने के लिए दारोगा अमीचन्द को आकाली दल के सामने झुकना पड़ा क्योंकि - "एक खालसा सवा लाख के बराबर था और अंग्रजों लग्गू अमीचन्द अकेला अकाली दल की शर्त थी कि दारोगा अमीचन्द से कोई झगड़ा नहीं है, मगर वह भी हम पर हेकड़ी जताना छोड़ दे। बस एक बार वह हमारे सामने अपनी मूंछें नीची कर ले, फिर हम उसके सब कायदे कानून मान लेंगे। अनुशासनप्रिय दारोगा को अकाली कैदियों की बात मानने के अतिरिक्त कोई उपाय नज़र नहीं आया। अतः समझौतावादी नीति से अकालियों के साथ पेश आते हुए कहता है 'हमें तुम्हें आखिर साथ रहना है। न तुम जेल छोड़ कर भागे जा रहे हो, न हम सर्विस छोड़कर जा रहे हैं। फिर हेकड़ी की क्या बात ? आपस में तो खींचतान होती ही रहती है, उससे कोई छोटा थोड़े ही हो जाता है ? कभी हमने दबा लिया, तुम दब गए, कभी तुमने जोर मारा तो हमने पैंतरा बदल लिया। कभी हमने तुम्हारी गर्दन नाप ली, कभी तुम्हारे सामने मूंछे नीची कर लीं।"
दारोगा अमीचन्द का दृष्टिकोण एकांगी है। वह कभी नहीं सोच पाता कि लोगों की उसके प्रति क्या राय है। दारोगा सदैव आत्मप्रशस्ति में रत रहता यही कारण है कि कहानी के अन्त में बुरी तरह आहत होता है। दारोगा अकाली दल के पंच लोगों के समक्ष मूंछें नीची करके राहत पाता है कि उसे किसी अन्य ने नहीं देखा और परेड वाले दिन आई0 जी0 के सामने अकाली डिसिप्लन में रहेंगे और वही क्षण उसकी विजय का होगा जब परेड लगेगी और दूसरे कैदियों की तरह अकाली भी कतार बांध कर खड़े होंगे, वह आई० जी० को उनके सामने गुजरते हुए कहेंगे कि इन लोगों का मामला अब सेटल हो गया है और सब जेल की डिसिप्लन मान रहे हैं, तब कितनी बड़ी विजय का क्षण होगा।"
दारोगा अमीचन्द व्यावहारिक कम अंग्रेजों का पिट्ठलग्गू अधिक था, यही कारण है कि कहानी के अन्त में उसका भ्रम टूट गया जब परेड वाले दिन कैदी अनुशासनबद्ध नहीं रहे और आई० जी० ने अनुशासन की ढ़ील को रेखांकित करते हुए उसका तबादला जिला के जेल में इन्चार्ज के रूप में कर दिया। दारोगा अमीचन्द इस शिकस्त को सह नहीं पाया और समय से पहले ही पेन्शन लेकर चला गया। वह दारोगा जो अकालियों को सब्ज़ बाग दिखाते हुए कहता था मैं कानून- वानून की परवाह नहीं करता मैं चाहूँ तो तुम्हारी बैरक में पीपे के पीपे घी के भिजवा दूँ चन्दन के बाग लगवा दूँ-हाँ चन्दन के बाग" वह अपने लिए बबूल की छांह भी नहीं पा सके और लोग दारोगा का नाम भूल गए लेकिन किस्सा नहीं भूले।
लेखक ने स्पष्ट शब्दावली में दारोगा अमीचन्द के व्यक्तित्व के कमज़ोर पक्षों को रेखांकित किया है। एक छोटी सी भूल और व्यवहार की शुष्कता ने दारोगा को धरती पर ला पटका और वह अपनी ही नज़र में गिर गया था तथा आत्मग्लानि के बोझ से मुक्त नहीं हो सका।
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