चित्रलेखा उपन्यास की भाषाशैली - कथानक और पात्र विधान के समानांतर 'संवाद तथा भाषाशैली' को उपन्यास का प्रधान एवं परमावश्यक तत्त्व माना गया है। चित्रलेखा
चित्रलेखा उपन्यास की भाषाशैली - Chitralekha Upanyas ki Bhasha Shaili
चित्रलेखा उपन्यास की भाषाशैली - कथानक और पात्र विधान के समानांतर 'संवाद तथा भाषाशैली' को उपन्यास का प्रधान एवं परमावश्यक तत्त्व माना गया है। चित्रलेखा उपन्यास में पात्रों के वार्तालाप एवं वाद-विवाद में काव्यमयता दिखाई देती है यही कारण है कि यहाँ भावों का प्रस्तुतीकरण भी काव्यमय बन पड़ा है। संवाद के शब्द कहीं-कहीं तीर की तरह पैने हैं तो कहीं तीव्र व्यंग्यात्मकता लिए हुए दिखाई देते हैं। इस उपन्यास में संवाद कहीं दीर्घ तो कहीं-कहीं अति संक्षिप्त दिखाई देते हैं। इसका एक उदाहरण यहाँ दर्शनीय है-
कुमारगिरि-मेरा शिष्य विशालदेव आज रात को मेरी कुटी में विश्राम करेगा, उसकी कुटी खाली है, अतिथि वहां जा सकते हैं।
चित्रलेखा - योगी ! तपस्या जीवन की भूल है, यह मैं तुम्हें बताए देती हूं। तपस्या की वास्तविकता है आत्मा का हनन। “प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना की वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है; और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं और मिटता। "
एक अन्य उदाहरण-
“श्वेतांक”!
“स्वामी” !
“बतला सकते हो, तुमने आज क्या देखा।”
हाँ! आज योगी कुमारगिरि को स्वामिनी ने पराजित किया।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चित्रलेखा उपन्यास की संवाद योजना पूर्णतः परिस्थितियों पात्रों के अनुकूल है।
चित्रलेखा का रचनाकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद के नाम से प्रसिध्द है। भाषा की दृष्टि से यह युग संस्कृतनिष्ठता और परिष्कृत भाषा के लिए प्रसिध्द है। यही कारण है कि इस उपन्यास में तत्सम प्रधान शब्दावली की अधिकता है। इसे पढ़ते समय अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग भी मिलता है जिन्हें अप्रचलित शब्द कहा जा सकता है। फिर भी भाषा पूर्णतः पात्रों और परिस्थितियों के अनुकूल है। जो लेखक के भावों का वहां करने में सक्षम है।
‘चित्रलेखा' उपन्यास पूर्णतः अभिनय हैं। इस उपन्यास में किसी प्रकार की क्लिष्टता नही है। चित्रलेखा उपन्यास का हर प्रसंग रोचक है। उपन्यास के संवाद सरल, संक्षिप्त तथा रोचक है। इसी कारण उपन्यास अभिनयक्षम है। तथा भाषाशैली सरल और रोचक है।
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