चन्दर का चरित्र चित्रण - कमलेश्वर द्वारा रचित 'खोई हुई दिशाएं' कहानी का मुख्य पात्र एवं नायक चन्दर है। वह इलाहाबाद के शहरी कस्बे से संबंध रखता है परन्
चन्दर का चरित्र चित्रण - Chandar Ka Charitra Chitran
चन्दर का चरित्र चित्रण - कमलेश्वर द्वारा रचित 'खोई हुई दिशाएं' कहानी का मुख्य पात्र एवं नायक चन्दर है। वह इलाहाबाद के शहरी कस्बे से संबंध रखता है परन्तु अब वह राजधानी में रह रहा है। दिल्ली में आकर वह सभी में अपनेपन की तलाश करता है पर निराशा ही उसके हाथ लगती है। इसी अपनेपन की तलाश में वह प्रेमिका के घर जाता है जो विवाहित है लेकिन वहां से भी निराश लौटता है। वह अपने मित्र, रिक्शावाले व पड़ोसियों से अपनी पहचान बनाए रखना चाहता है पर कोई भी लाभ नहीं होता। इसलिए वह अपने आप को जानने के लिए समय तय करता है परन्तु व्यस्तताओं के कारण वह अपने आप से मिल नहीं पाता। पूरी कहानी में वह कई प्रकार की स्थितियों का सामना करते हुए भयभीत दिखाई देता है जिससे चन्दर के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएं सामने आती हैं-
अकेलेपन से त्रस्त: चन्दर पत्नी के रहते हुए भी इतने बड़े शहर में अपने आप को अकेला महसूस करता है वह राजधानी के अन्य लोगों में अपने शहर जैसे अपनेपन के भावों को तलाशता है परन्तु उसे वहां अपनापन कहीं नहीं मिलता है उसके स्वयं के शब्दों में, "और यह राजधानी! जहां सब अपना है, अपने देश का है .... पर कुछ भी अपना नहीं है, अपने देश का नहीं है।" उसे अकेलापन इतना त्रस्त करता है कि वह पेड़ों और पक्षियों से अपना खालीपन भरना चाहता है उसे लगता है कि लोग तो नहीं पर शायद यह पेड़ पौधे तो उसे जानते हैं जैसे कि इन पंक्तियों से स्पष्ट है- "तनहा खड़े पेड़ों और उनके नीचे सिमटते अंधेरे में अजीब-सा खालीपन है । तनहाई ही सही पर उसमें अपनापन तो हो।" वह पिछले तीन सालों से दिल्ली में है पर इस खचाखच भरी हुई राजधानी में वह अपने आप को बिल्कुल अकेला पाता है। कस्बे से राजधानी आकर वह राजधानी के जीवन से सामंजस्य नहीं बिठा पाता । वह किसी से बातचीत नहीं करती है इसलिए दिल्ली का हर स्थान उसे सूना और अकेला लगता है। वह विचित्र भावों से गुजरता है, जैसे कि पार्क में उसकी मनःस्थिति का चित्रण करते हुए कहानीकार ने लिखा है- "शोर-शराबे से भरे उस सैलाब में वह बहुत अकेला-सा महसूस करता है और लगता है कि इन तीन सालों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जो उसका अपना हो, जिसकी कचोट अभी तक हो, खुशी या दर्द अब भी मौजूद हो । रेगिस्तान की तरह फैली हुई तनहाई है, अनजान सागर तटों की खामोशी और सूनापन है और पछाड़ खाती हुई लहरों का शोर-भर है, जिससे वह खामोशी और भी गहरी होती है।" इस प्रकार उसके जीवन में यह रिक्तता हर समय बनी रहती है और इसके कारण हर स्थिति से भागना चाहता है सामना करना नहीं।
सच्चा प्रेमी: वह सच्चे प्रेमी के रूप के सामने आता है। वह इन्द्रा से प्रेम तो करता है परन्तु बेरोजगार होने के कारण उसे लगता है कि शायद वह उसके लिए नहीं बना है। पर उसके लिए वह एक सुखमय भविष्य की कामना करता हुआ कहता है, "भरोसा तो बहुत है इन्द्रा, पर मैं खाना - बदोशों की तरह जिन्दगी-भर भटकता रहूंगा..... उन परेशानियों में तुम्हें खींचने की बात सोचता हूँ तो बरदाश्त नहीं कर पाता। तुम बहुत अच्छी और सुविधाओं से भरी ज़िन्दगी जी सकती हो। मैंने तो सिर पर कफन बांधा है...... मेरा क्या ठिकाना ।" वह चाहे इन्द्रा से दिल की गहराइयों से प्रेम करता है और इन्द्रा भी उससे कहती है कि 'तुम क्या नहीं कर सकते पर वह यह बिल्कुल नहीं चाहता कि वह उसका जीवन बर्बाद कर दे इसलिए उसे समझाते हुए कहता है- "मेरे पास है ही क्या? समझ में नहीं आता कि जिंदगी कहां ले जाएगी इन्द्रा! इसलिए मैं यह नहीं चाहता कि तुम अपनी जिंदगी मेरी खातिर बिगाड़ लो। पता नहीं मैं किस किनारे लगूं, भूखा मरूं या पागल हो जाऊं.... और फिर जब इन्द्रा का विवाह हो जाता है तो वह उसकी तरफ से निश्चित लगता है। वह दिल्ली आकर उसके घर भी जाता है पर शायद वह उसके सुखी जीवन में उथल-पुथल मचाना नहीं चाहता इसलिए चला आता है।
संकोची: चन्दर हमेशा अपनी बात कहने में संकोच करता है न वह रिक्शे वाले के सामने भी अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाता है न ही कैफे वाले आदमी से न प्रेमिका से और न ही पत्नी से प्रेमिका के साथ मिलने पर जब वह उसकी खाने पीने की दिनचर्या को भूलकर उसे चीनी वाली चाय प्रस्तुत करती है तो वह उसे कहता कुछ नहीं, संकोच करता है पर इन्द्रा के इस व्यवहार से आंतरिक पीड़ा अनुभव करता है इसलिए वहां से भागना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि इतनी लम्बी दोस्ती के बाद भी इन्द्रा उसे नहीं पहचानती है जैसे कि इन पंक्तियों से स्पष्ट है- "चन्दर का मन कर रहा था कि इन्द्रा के पास किसी भी तरह भाग जाए और किसी दीवार पर अपना सिर पटक दे।"
वह निरंतर पत्नी के साथ बातचीत करने के बारे में सोचता रहता है कि किस प्रकार वह अपने भावों को प्रकट करेगा। उसके स्वयं के शब्दों में, "किसी बहाने खुराना की तरफ वाली खिड़की को बन्द करना पड़ेगा। घूम कर मेज के पास पहुंचना होगा और तब पानी का एक गिलास मांगने के बहाने वह पत्नी को बुलाएगा, और तब उसे बाहों में लेकर प्यार से यह कह सकने का मौका आएगा - बहुत थक गया हूँ। इतना कुछ सोचने के बाद भी वह पत्नी के सामने अपने मन के भावों की अभिव्यक्ति नहीं कर पाता है।
निराशावादी: पूरी कहानी में चन्दर एक निराशावादी व्यक्ति के रूप में सामने आता है वह हर व्यक्ति से उम्मीद करता है कि यह मुझे जानता होगा पर ऐसा जब नहीं होता तो निराश हो जाता है क्योंकि रिक्शे वाला जान पहचान से अधिक पैसे को महत्व देता है। कैफे में मिलने वाले व्यक्ति से पहचान की कुछ उम्मीद होती है पर वहां भी उदासी ही उसके पास आती है। वह पूर्व प्रेमिका इन्द्रा से भी उम्मीद करता है कि वह तो मुझे जानती होगी उसे आज भी याद होगा कि दो चम्मच चीनी मेरा गला खराब कर देती है लेकिन जब वह चाय के समय पूछती है कि कितनी चीनी डाल दूं तो चन्दर द्वारा दो कहने पर भी उसे कुछ आशा होती है जो उसके स्वयं के शब्दों से स्पष्ट हो जाता है, "तभी इन्द्रा ने पूछा, चीनी कितनी दूं ? और एक झटके से सब कुछ बिखर गया, उसका गला सूखने - सा लगा और शरीर फिर थकान से भारी हो गया। माथे पर पसीना आ गया। फिर भी उसने पहचान का रिश्ता जोड़ने की एक नाकाम कोशिश की और बोला, दो चम्मच और उसे लगा कि अभी इन्द्रा को सब कुछ याद आ जाएगा और वह कहेगी कि दो चम्मच चीनी से अब गला खराब नहीं होता?" वहां पर भी निराशा ही उसके हाथ लगती है। उसके परिवार उसकी पत्नी है घर है पर वह उदास है क्योंकि उसकी उम्मीदों पर कोई खरा नहीं उतरता। दिल्ली जैसे महानगर में आकर व्यस्त एवं भागमभाग की जिन्दगी में वह अपनी पहचान खो चुका है इसलिए निराश है। इस शहर में नज़दीक से किसी के बारे में कुछ पता नहीं चलता। इसलिए वह अंदर ही अंदर कुढ़ता रहता है।
कुंठाग्रस्त: चन्दर एक कुंठाग्रस्त पात्र है। असफलताओं के कारण वह घोर निराशा का शिकार होकर कुंठित हो जाता है। वह कस्बाई मूल्यों के छूटने के कारण पीड़ित है। दिल्ली शहर के महानगरीय जीवन का अजनबीपन, अकेलापन संबंधों के चुक जाने का एहसास, अलगाव और परायापन उसे कुंठित कर देता है। तन्हाई और जीवन के खोखलेपन में उसके लिए सारे के सारे संबंध सिर्फ औपचारिक होकर रह गये हैं । यहाँ तक कि बरसों पूर्व परिचित इन्द्रा से भी इसे मेहमान नवाजी मिलती है और उसके प्रत्येक क्षण का हिसाब रखने वाली पत्नी भी उसे अजनबी और अपरिचित लगती है। इस कुठित मनोवृत्ति के कारण वह सड़कों पर, पार्क में इधर-उधर घूमता रहता है पर घर नहीं जाता।
अंततः चन्दर अकेलेपन से जूझता एक ऐसा व्यक्तित्व है जो मित्रों, अनजान व्यक्तियों, प्रेमिका एवं पत्नी में निरन्तर अपनी पहचान खोजता है परन्तु अंत तक उसे निराशा ही मिलती है वह अपनी व्यथा को किसी के आगे स्पष्ट नहीं होने देता है एवं आन्तरिक पीड़ा से ग्रस्त वह अंतहीन तलाश के लिए भागता रहता है एक पल के लिए वह जहां कहीं उसे अपनापन और अपनी पहचान दिखती भी है तो अगले ही पल कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि उसकी पहचान का स्वप्न टूट जाता है और वह हताश हो जाता है। अतः इस कहानी में चन्दर निरन्तर भागता हुआ चरित्र है जो कहीं भी रूकने का नाम नहीं लेता। उसके माध्यम से देश का प्रत्येक आदमी अशांत, असंतुष्ट और उद्विग्न दिखाई देता है।
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