चंदा का चरित्र चित्रण - चन्दा 'राजा निरबंसिया' कहानी की नायिका है। वह जगपती की पत्नी है उसका विवाह हुए छः वर्ष हो गए है पर अभी तक मातृसुख से वंचित है।
चंदा का चरित्र चित्रण - Chanda Ka Charitra Chitran
चंदा का चरित्र चित्रण - चन्दा 'राजा निरबंसिया' कहानी की नायिका है। वह जगपती की पत्नी है उसका विवाह हुए छः वर्ष हो गए है पर अभी तक मातृसुख से वंचित है। यह कहानी कर्ज़ के उस यथार्थ को व्यंजित करती है जिसमें कर्ज़दार कर्ज न चुका पाने की स्थिति में अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति से भी हाथ धो बैठता है। चंदा का पति जगपति जब दुर्घटना के बाद बेरोज़गार हो जाता हैं तो पुनः काम शुरू करने के लिए कम्पाउंडर बचन सिंह से उधार लेता है और बदले में अपनी पत्नी चंदा को बेच देता है। चंदा जो कि एक पतिव्रता नारी है अपने पति की इस गलती से किस-किस व्यथा से गुजरती है इसका यथार्थांकन हुआ है। इस रचना में उसके चरित्र के विभिन्न पक्ष पाठकों के हृदय में उसके प्रति संवेदना प्रकट करते हैं। पूरे परिवेश में उसके चरित्र पर प्रकाश डालने वाले मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:
कुशल गृहिणी : चंदा इस कथा में एक कुशल गृहिणी के रूप में भी सामने आती है। विवाह के कुछ वर्षों में ही उसने अपने घर को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था जहां तक कि उसकी सास ने प्रसन्नता से घर की सारी चाबियाँ उसको सौंप दी और गृहस्थी के सूत्र समझाते हुए उसे और भी निपुण बना दिया। वह अपनी सास का पूरा ख्याल रखती थी इसलिए उसकी सास का समय पूजा-पाठ में निकलने लगा था। सास की मृत्यु के बाद भी वह घर की सारी जिम्मेदारियों को प्रसन्नता से निभाती है। जगपती को घर में उसकी उपस्थिति से विचित्र शांति और सुकून मिलता था। स्वयं उसका मन भी उस घर में इतना रच बस जाता है कि वह बच्चे के अभाव में भी स्वयं को उस घर का अहम् हिस्सा मानती है। कथाकार के शब्दों में- "घर में चारों तरफ जैसे उदारता बिखरी रहती, अपनापन बरसता रहता। उसे लगता जैसे घर की अंधेरी एकांत कोठरियों में वह शांत शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुण्डियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाजें की चरमराहट पहचान बन गई थी। उसकी इसी कार्यकुशलता को देखकर ही उसकी सास जगपती की देखभाल की तरफ से निश्चित हो जाती है।
पतिव्रता : चंदा एक पतिव्रता नारी है। वह अपने पति का पूरा सम्मान करती है। उसके घायल होने पर वह एकनिष्ठ भाव से उसकी सेवा सुश्रुषा करती है। जब तक जगपती अस्पताल रहता है तब तक वह पूरी तन्मयता से उसकी सेवा करती है और उसे ठीक करने के लिए कम्पाउंडर का एहसान भी उठाती है। ठीक होने पर भी जब जगपती दिन भर रोजगार ढूंढने के लिए फिरता रहता है तो भी उसके प्रति चिंतित रहती है। इसलिए जब कम्पाउंडर बचन सिंह उसके घर आता है तो कहती है, उन्हें समझाते जाइए कि अभी तन्दुरुस्ती इस लायक नहीं जो दिन-दिन भर घूमना बर्दाश्त कर सके।" अस्पताल में भी उसकी देखभाल के साथ-साथ अच्छी दवाईयों का इंतजाम करने के लिए कम्पाउण्डर को अपना सोने का कड़ा देती है। क्योंकि वह सोचती है- "पति के लिए जेवर की कितनी औकात है।" वह अपने पति के खाने-पीने का भी पूरा ध्यान रखती है इसलिए अब जो उसके पति को पसंद है उसे भी वही अच्छा लगने लगा है जैसे कि उक्त उदाहरण से पता चलता है- "सिरका अगर इन्हें मिल जाए, तो समझो सब कुछ मिल गया। पहले मुझे सिरका न जाने कैसा लगता था, पर अब ऐसा जबान पर चढ़ा है कि..... इन्हें कागज - सी पतली रोटी पसंद नहीं आती। अब मुझसे कोई पतली रोटी बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड़ गई है, और फिर मन ही नहीं करता....... इस प्रकार जब तक वह जगपती के घर में रहती है अपना पतिव्रता धर्म पूर्णता से निभाती है।
भावुक एवं संवेदनशील : चंदा एक पतिव्रता होने के साथ-साथ भावुक एवं संवेदनशील नारी भी है। किसी को कष्ट में नहीं देख सकती इसलिए बचन सिंह जब उसके पति की पट्टी बदलने में लापरवाही करता है तो उसकी चीख निकल जाती है। उसकी इस भावुक स्थिति का वर्णन बड़े ही सटीक शब्दों में हुआ है- 'चन्दा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज़ दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एक बारगी मछली - सा तड़पकर रह गया। बचन सिंह की उंगलियां थोड़ी सी थरथराई कि उसकी बांह पर टप से चंदा का आंसू चू पड़ा ।" पीड़ा से उसका हृदय इतना संवेदित हो उठता है कि वह काफी समय तक उसकी पीड़ा को शांत करने के लिए उसकी हथेली को सहलाती रही। नाखूनों को अपने पोरों से दबाती रहती है। पति के मना करने पर भी जब वह उसके लिए दवाईयों की व्यवस्था कर लेती है तो जगपती एक विचित्र मानसिक पीड़ा से घिर जाता है उस समय भी उसकी उस स्थिति को वह सह नहीं पाती है। वह भावुक हृदय से उसे सांत्वना देते हुए कहती है- "ये दवाईयां किसी की मेहरबानी नहीं है। मैंने हाथ का कड़ा बेचने को दे दिया था, उसी से आई हैं।"
स्वाभिमानी एवं स्पष्टवादी : चंदा किसी भी स्थिति में अपना स्वाभिमान छोड़ती हुई दिखाई नहीं देती जहां तक कि हर कड़वी बात को भी वह बड़ी स्पष्टता से कह जाती है। जगपती के लिए जब बचन सिंह दवाईयाँ ला देता है तो वह बचन सिंह के प्रति कृतज्ञ है पर वह नहीं चाहती कि वह उसके एहसानों से दबे इसलिए वह अपना सोने का कड़ा उसे देने जाती है जैसे कि इस उदाहरण से स्पष्ट है- 'दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कड़ा धीरे से उसकी ओर बढ़ा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी यह काम आवश्यक है।" दूसरी बार उसका स्वाभिमान तब भी पाठकों को प्रभावित करता है जब वह जगपती को उसकी गलती का अहसास करवाती है। चंदा जब मां बनने वाली थी तो उसका पति उसे बैगेरत, बेशर्म कहकर लांछित करता है और उसे इस बात का एहसास दिलाता है कि अस्पताल में भी उसने उसका इलाज अपनी इज्जत को दांव पर रखकर ही करवाया था। वह एकदम सिंहर उठती है और कहती है- ''तब ... तब की बात झूठ है.... सिसकियों के बीच चंदा का स्वर फूटा, "लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया।" चंदा को पुरुषों की मानसिकता की परख है इसलिए जब बचन सिंह घर ढूंढता हुआ पहली बार उनके घर आता है तो वह बड़े स्पष्ट शब्दों में अपने पति से कहती है- "जाने कैसे-कैसे आदमी होते हैं... इतनी छोटी सी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो ? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।" इन शब्दों से पता चलता है कि चंदा नहीं चाहती है कि किसी भी हालत में किसी और पुरुष का घर में आना जाना हो।
निर्णायक : चंदा चाहे कम पढ़ी-लिखी है फिर भी कभी भी निर्णय लेने पर डगमगाती नहीं है। पति के लिए दवाईयाँ आ जाने पर वह रात को ही कम्पाउंडर को कड़ा देने चल पड़ती है वह यह मानकर चलती है कि वह उसका एहसान क्यों ले। दूसरी बार जब उसका पति बचन सिंह से कर्ज लेता है और बचन सिंह हर रोज़ उसके घर आने लगता है तो उसे इस बात का एहसास हो जाता है कि उसके पति ने उसे बेच दिया है तो वह एकदम अपने पति को ही छोड़ने का निर्णय कर लेती है चाहे इससे वह अपने पति को कितना ही प्रेम करती है। वह उससे पूछती नहीं बल्कि उसे अपने निर्णय से परिचित करवाती हुई कहती है- 'कल मैं गांव जाना चाहती हूँ। मैंने बहुत पहले घर चिट्ठी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं। और फिर चंदा घर छोड़कर सदा के लिए गांव चली जाती है। उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा उस घर के साथ उसका कोई सम्बन्ध है।
इस प्रकार चंदा एक ऐसी गृहिणी के रूप में उभर कर सामने आती है जो एक पतिव्रता होते हुए भी अपने पति के द्वारा बेचा जाना स्वीकार न करके घर त्याग देती है और समाज तथा पति द्वारा प्रताड़ित होने पर भी अपनी संतान को जन्म देती है। उसकी कर्त्तव्यपरायणतः, उसकी सेवा - सुश्रुषा, उसका आतिथ्य भाव, उसकी निपुणता उसे पाठकों के मनस पटल पर सदा के लिए जीवित कर देती है।
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