बीती विभावरी जाग री कविता की व्याख्या : युवती अपनी सोई हुई सखी से कह रही है कि हे सखि । रात बीत चुकी है अब तुम जाग जाओ। वह प्रेरित करती हुई आगे कहती ह
बीती विभावरी जाग री कविता का भावार्थ / व्याख्या
सन्दर्भ और प्रसंग : 'बीती विभावरी जाग री' शीर्षक कविता 'लहर' काव्य संग्रह में संगृहीत है। 'लहर' का पहला प्रकाशन 1935 ई- में हुआ था । यह कविता एक जागरण गीत है। एक युवती अपनी सोई हुई सखी को सुबह - सुबह जगा रही है। इसमें सामान्य जागरण-भाव के साथ वियोग का शृंगारिक प्रसंग भी जुड़ा हुआ है, जो कविता की अंतिम पंक्तियों में स्पष्ट होता है ।
बीती विभावरी जाग री कविता का भावार्थ
बीती विभावरी जाग री कविता की व्याख्या : युवती अपनी सोई हुई सखी से कह रही है कि हे सखि । रात बीत चुकी है अब तुम जाग जाओ। वह प्रेरित करती हुई आगे कहती है कि देखो पूरी प्रकृति अब क्रमशः जागरण की ओर बढ़ रही है। आकाश के तारे धीरे-धीरे डूब रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि ऊषा (सुबह) एक समझदार स्त्री की तरह है जो खूब सबेरे पनघट पर पानी भरने के लिए आ गयी है। वह स्त्री अपने घड़ों को पनघट पर डुबो कर पानी भर रही है। यूँ कहें कि अम्बर-रूपी पनघट पर, तारे-रूपी घड़ों को, ऊषा रूपी गृह-कार्य दक्ष स्त्री डुबो रही है।
देखो सखि । पक्षी अपने झुण्ड सहित कलरव कर रहे हैं। वे कुल-कुल की आवाज के साथ जाग रहे हैं। इसके अलावा पौधों के लाल-लाल नए पत्ते ऐसे झूम रहे हैं मानो वे हवा में लहराते आँचल हों। इस तरह पक्षी और पौधे अपनी जागृति का पूर्ण संकेत दे रहे हैं। मगर तुम अब तक सोई हुई हो। रात बीत चुकी है, अब जाग जाओ।
कल जिस कोमल लता को तुमने देखा था, वह आज कली से सजी हुई दिखाई पड़ रही है। इस लतिका में लगी हुई मधुर-मोहक कली ऐसी मालूम पड़ रही है, मानो रस से भरी हुई एक प्यारी सी नयी गगरी हो । सखि ! देखो प्रकृति ने कितना नया रूप धारण कर लिया है, मगर तुम अब तक सोई हुई हो ।
इतना कहने के बाद युवती अपनी सोई हुई सखि के निजी प्रसंग का सांकेतिक उल्लेख करती है। वह चाहती है कि उसकी सखी का वियोग-जनित दुःख दूर हो। वह जागे और प्रकृति के उल्लास से जुड़कर अपने व्यक्तिगत दुःख को हल्का कर ले। वह कहती है कि सखि । रात में तुम्हारे होंठों पर जो लाली लगी थी, वह अभी तक जस की तस है। रात में तुमने अपने लम्बे बालों में जो सुगंधि लगाई थी और बालों को सजाया था, वह अभी तक वैसे ही है। जबकि पूरी रात बीत चुकी है। सखि । मैं सब समझ रही हूँ। तुम्हारी आँखों में विहाग का राग भरा हुआ दिखाई पड़ रहा है। यह राग बता रहा है कि तुम अपने प्रिय की प्रतीक्षा में रात के तीसरे प्रहर ( रात 12 से 3 बजे) तक जगती रही हो। मैं जान गई हूँ कि प्रतीक्षा में व्याकुल होकर तुमने रात के तीसरे प्रहर में गाया जानेवाला विहाग का राग गाया होगा। और उसी राग का भाव अपनी आँखों में बसाए हुए निराश होकर तुम सो गयी होगी।
सखि! अब जाग जाओ। रात बीत चुकी है। देखो, पूरी प्रकृति जाग चुकी है। रात की शिथिलता और खुमारी को छोड़कर अब सब लोग जाग रहे हैं, तुम्हें भी जाग जाना चाहिए ।
बीती विभावरी जाग री कविता का काव्य सौष्ठव / विशेष
यह जागरण गीत है। स्वतंत्रता आन्दोलन में व्याप्त जागृति के भाव को इसमें प्रकृति के माध्यम से व्यक्त किया गया है। यह गीत अंत में वियोग का भाव समेटे हुए है।
इसकी टेक की पंक्ति 'बीती विभावरी जाग री' में 15 मात्राएँ हैं। इस पंक्ति की तुकबंदी जिन पंक्तियों से हुई है, उनमें भी 15-15 मात्राएँ हैं। जैसे- तारा-घट ऊषा नागरी, मधु मुकुल नवल रस गागरी, आँखों में भरे विहाग री । शेष पंक्तियों में 16-16 मात्राएँ हैं।
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