अस्थियों के अक्षर पाठ का सारांश : 'अस्थियों के अक्षर' संस्मरण में श्यौराज सिंह 'बेचैन' ने अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगो को चित्रित किया है। बचपन क
अस्थियों के अक्षर पाठ का सारांश - Asthiyon ke Akshar Path ka Saransh
अस्थियों के अक्षर पाठ का सारांश : 'अस्थियों के अक्षर' संस्मरण में श्यौराज सिंह 'बेचैन' ने अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगो को चित्रित किया है। बचपन का प्रसंग, जीवन का संघर्ष एवं जीवन की प्रेरणा आदि। घटना करीब ३० वर्ष पहले की है, जब लेखक पाल मुकीमपुर के प्रथमिक विद्यालय में सौतेले भाई रूप सिंह के साथ पढ़ने जाने लगा था, पहली किताब के सारे अक्षर पढ़ गया था । रुप सिंह मुझसे डेढ़-दो साल बड़ा था लेकिन हम दोनो का दाखिला एक साथ एक ही कक्षा में किया गया था। साल भी नहीं गुजरा होगा, तब तक एक और मोड़ इस घटना में आया, हुआ यह कि रूपसिंह पहली किताब के अक्षर भी याद नहीं कर पाया।
लेखक के अनुसार - “शिक्षक की यह रिपोर्ट सुनकर, भिखारीलाल के तीनों भाई बहुत चिन्तित हुए, उन दिनों मेरी 'माँ' भिखारीलाल की दूसरी पत्नी के रुप में थी और छोटेलाल और डालचंद कुँवारे थे, इनमें छोटेलाल तो आजीवन कुँवारे ही रहे। उस दिन मास्टर जी के बयान ने घर में हालात खराब कर दिए, तीनों भाइयों को खाने-पीने की चिन्ता से ज्यादा इस बात की चिन्ता ने झटका दिया की उनका रूपसिंह पढ़ने में कमजोर है। आपका बड़ा लड़का बुध्दि से बड़ा नहीं है, उम्र से बड़ा है, वह पढ़ भी सकता है, दोनों को एक ही क्लास में चला पाना सम्भव नहीं है। यह सुनकर तीनों भाई घर आए और रुपसिंह के भविष्य को लेकर चिन्तित होने लगे। भिखारीलाल और 'माँ' में अक्सर झगड़ा होता रहता था।
भिखारी जिद्दी और गन्दी गालियाँ देने में नम्बर वन आदमी था।
दोनों एक-दूसरे के बेटे के अकल्याण की भविष्यवाणियाँ करने लगे, बस्ती के कुछ लोगों को बुरा लगा कि नहीं पढ़ाना था तो नहीं पढ़ाता, मगर किताबे - पट्टियाँ चूल्हे पर रखकर जला देना कहाँ की समझदारी है, पर ये है ही बुरा आदमी कहकर लोग अपने-अपने घर चले गए। दो-तीन दिन तक मुझे अक्षरों के दर्शन नहीं हुए, बस्ती के दो-तीन और लड़के मेरे साथ के थे। मैं लुक-छिपकर उनकी किताब में बने ‘क' से कबूतर, ‘ख' से खरगोश, 'ग' से गधा पढ़ आता। सौ तक गिनती याद थी, परन्तु भिखारी को यह भी बुरा लगा, जब उसे पता चला कि मैं दूसरों के घर जाकर बच्चों के साथ रहता हूँ। मैं हर दिन यह जुगाड़ देख रहा था कि कहीं से चार-छह आना पैसे हाथ लगे तो मैं एक किताब खरीद लूँ।
समय चल रहा था। उन दिनों दिवाली के आसपास पाली में जुआ बहुत खेला जाता था। चाचा ने तुरन्त मेरा हाथ पकड़ा और घर की ओर वापस हुए। चलते-चलते वे बता रहे थे। उल्ला को एक रुपया का उसने जेब में से निकाला था। से उवा ने घर में उध्दम कारि रखौ है। घर आम रास्ते से थोड़ा भीतर गली में था। जब में रुपया चुराकर गया था, उन्हें काम करते छोड़ गया था, चाचा के साथ लौटा तो देखा - मेरी माँ कसाई द्वारा काटी जा रही 'गाय' की तरह जोर-जोर से चीख रही थी। उल्ला तू राक्षस है। भिखरिया, तूने तो अपनी बऊको मारीं ही, डल्ला से क्यों पिटवाया। उस घटना के बाद करीब बारह साल छात्र के रूप में मैने किसी भी विद्यालय का मुँह नहीं देखा।
करीब २० साल बाद जब मैंने ग्रैजुएशन कर लिया था तो जल्दी नौकरी पाकर मैं माँ की वह घटना बताने की उत्सुकता में था। किंतु माँ नहीं थी । लेखक ने अपने किए की माफी तक माँग न पाए ।
लेखक ने अपने संघर्ष, अपनी माँ और अन्य घटनाओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
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