शिक्षक दिवस पर संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlok on Teachers Day) गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री
शिक्षक दिवस पर संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlok on Teachers Day)
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम् ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन ॥
भावार्थ : जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहीं देते, वैसे ही गुरु (शिक्षक) बिना शिष्य शोभा नहीं देता
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥
भावार्थ : यदि कोई गुरु अपने शिष्य को वर्णमाला का मात्र एक अक्षर भी सिखाता है तो इस पृथ्वी में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे दे कर वह अपने गुरु द्वारा शिक्षित किये जाने के ऋण से मुक्त हो सकता है।
सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः ।
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥
भवार्थ: अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है।
गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् ।
अथा प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥
भावार्थ: आत्मवान् लोगों का शासन गुरु करते हैं; दृष्टों का शासन राजा करता है; और गुप्तरुप से पापाचरण करनेवालों का शासन यम करता है।
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः ॥
भवार्थ: मनुष्यत्व, सत्पुरुषों, और मुमुक्षत्व का सहवास करना ईश्वरानुग्रह को कराने वाले ये तीन मिलना अति दुर्लभ होता है।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
भवार्थ: बहुत ज्यादा बोलने से क्या? करोडो शास्त्रो को पढने से क्या? चित के शाति ही परम शांति, और यह सब गुरु के बिना मिलना मुश्किल होता है।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः
स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्
शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
भावार्थ: जो किसी के भी प्रमाद को करने से रोकते है, स्वयं कभी भी निष्पाप के रास्ते चल कर, दुसरो के लिए हित और कल्याण रखते है, उसको तत्वबोध करवाते है, उन्हें ही गुरु कहते हैं।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
भावार्थ: धर्म के ज्ञाता, धर्मानुसार आचरण रखने वाले, धर्मपरायण और सभी तरह शास्त्रों में से तत्वों का आदेश को रखने गुरु कहते है।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा
शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः
सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥
भवार्थ: सभी योगियों में सबसे श्रेष्ठ, सागर में समरस, श्रुतियों को समजा, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, धर्म में एकनिष्ठ, ऐसे सद्गुरु, बिना स्वार्थ के सबको विद्वान बनाना, और स्वयं भी तर जाते हैं।
विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो
जानाति तत्त्वं न विचक्षणोऽपि ।
आकर्णदीर्घायित लोचनोऽपि
दीपं विना पश्यति नान्धकारे ॥
भवार्थ: जैसे एक कान जैसी लम्बाई तक वाली आँखों वाले इंसान को भी अंधकार में बिना दिया नही देख सकता हैं , वैसे ही विलक्षण मनुष्य भी, ऐसे गुरु बिना तत्व नहीं जान सकता हैं।
पूर्णे तटाके तृषितः सदैव
भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः ।
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः
गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥
भावार्थ: मनुष्य गुरु से मिलाने के बाद भी प्रमादी बने रहते हैं , वह मनुष्य पानी से भरे सरोवर में भी प्यासा , और घर में अनाज होने के बावजूद भूखा, और कल्पवृक्ष के पास होते हुए भी दरिद्र रहते है।
वेषं न विश्वसेत् प्राज्ञः वेषो दोषाय जायते ।
रावणो भिक्षुरुपेण जहार जनकात्मजाम् ॥
भावार्थ: वेष पर विश्वास कभी नहीं करनी चाहिए, वेष झूठा हो सकता है, रावण ने भिक्षु का रुप लिया था और सीता का हरण कर गया था।
त्यजेत् धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् ।
त्यजेत् क्रोधमुखीं भार्यां निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत् ॥
भावार्थ: मनुष्य को दयाहीन धर्म, क्रोधी पत्नी का, विद्याहीन गुरु, और स्नेहरहित संबंधीयों का त्याग उत्तम होता है।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।
गुरोस्तु चक्षु र्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
भवार्थ: गुरु की उपस्थिति में (शिष्य का) आसन गुरु से नीचे होना चाहिए; गुरु जब हाजर हो, तब शिष्य ने जैसे-वैसे नहि बैठना चाहिए।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
भवार्थ: ज्ञान के अज्ञान रूपी अंधकार से अंधे लोगों की आंखें खोलने वाले गुरु को नमस्कार।।
नीचः श्लाद्यपदं प्राप्य स्वामिनं हन्तुमिच्छति ।
मूषको व्याघ्रतां प्राप्य मुनिं हन्तुं गतो यथा ॥
भवार्थ: ऊँचे पद पर पहुँचते ही अपने मालिक को मारना चाहते हैं, यह विनम्रता की निशानी है; जैसे चूहा सिंह बनकर ऋषि को मारने गया था।
कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रस्तु गौतमः ।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः ॥
भवार्थ: कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ – ये सात ऋषि हैं।
नमोस्तु ऋषिवृंदेभ्यो देवर्षिभ्यो नमो नमः ।
सर्वपापहरेभ्यो हि वेदविद्भ्यो नमो नमः ॥
भवार्थ : मैं बार-बार उन ऋषियों को नमस्कार करता हूं, जो देवर्षि हैं, सभी पापों को दूर करते हैं और वेदों को जानते हैं।
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभुतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥
भवार्थ: ब्रह्म का आनंदमय रूप सर्वोच्च सुख है, ज्ञान की छवि, दोनों की वायु, आकाश की तरह नीलेप, और सूक्ष्म “तत्त्वमसी” ईश-तत्व की प्राप्ति का लक्ष्य है; अद्वितीय, नित्य प्राणवान, अचल, श्रेष्ठ और त्रिगुणात्मक : ऐसे गुरु को मैं नमन करता हूँ।
अचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयत्यति ।
स्वयमप्याचरेदस्तु स आचार्यः इति स्मृतः ॥
भवार्थ : जो अपने लिए सभी शास्त्रों का अर्थ जानता है, ताकि दूसरे ऐसा व्यवहार स्थापित कर सकें, अहर्निश कोशिश करता है; और वह अपने आचरण में ऐसा आचरण लाता है, उसे आचार्य कहा जाता है।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
भवार्थ : हे गुरुदेव, आप मेरे माता-पिता के समान हैं, आप मेरे भाई और साथी हैं, आप ही मेरा ज्ञान और मेरा धन हैं। हे प्रभु तू ही सब कुछ है।
विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः।।
भवार्थ : नम्रता का फल सेवा है, गुरु की सेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल वैराग्य (स्थायी) है और वैराग्य का फल असरनिरोध (मुक्ति और मोक्ष) है।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्
भवार्थ : उधारदाताओं और गुरुओं के संपर्क से कौन प्रगति नहीं करता है? पानी की एक बूंद कमल के पत्ते पर मोती की तरह चमकती है।
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
भवार्थ : अनगिनत जन्मों के कर्मों से बने बंधनों को जलाने के लिए आत्म-ज्ञान का उपहार देने वाले महान गुरु को नमन।
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
भवार्थ : महान गुरु गुरु, जो मेरे भगवान हैं और पूरे ब्रह्मांड के भगवान हैं, मेरे गुरु पूरे ब्रह्मांड के गुरु हैं, जो मैं और सभी जागरूक अवस्थाएं हैं।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
भवार्थ : उस महान शिक्षक को नमस्कार, जिसने उस स्थिति को महसूस करना संभव बनाया जो पूरे ब्रह्मांड, सभी जीवित और मृत (मृत) में व्याप्त है।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
भावार्थ: वह जो प्रेरित करता है, सूचित करता है, सच बताता है, मार्गदर्शन करता है, सिखाता है और ज्ञान देता है: ये सभी एक ही गुरु हैं।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
भवार्थ : इतना सुनना-बोलना नहीं, लाखों शास्त्र भी नहीं। गुरु के बिना पूर्ण शांति संभव नहीं है।
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
भावार्थ : गुरु ही ब्रह्मा है ,गुरु ही विष्णु है ,गुरु ही महेश्वर अर्थात शंकर जी हैं । गुरु साक्षात् परमब्रह्म है। ऐसे गुरु को मेरा नमन है।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
भावार्थ : बहुत कुछ कहने से क्या होगा? करोड़ों शास्त्रों का क्या होगा? बिना गुरु के मन की पूर्ण शांति मिलना दुर्लभ है।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
भावार्थ : 'गु'कार यानि अंधकार, और 'रु'कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
भावार्थ : शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् ।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
भावार्थ : विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं।
गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥
भावार्थ : जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए। यदि यह शक्य न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए; और (यदि) वह भी शक्य न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए।
विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम् ।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः ॥
भावार्थ : विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध है।
यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः ।
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः ॥
भावार्थ : गुरु सभी प्राणियों के प्रति घृणा और ईर्ष्या से मुक्त है। वे जीतेन्द्रिय, पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं ।
बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः ।
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः ॥
भावार्थ : जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त अर्थात धन हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त (मन) हरण करनेवाले गुरु शायद ही दिखाई देते हैं।
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः
स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये
स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥
भावार्थ : तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता ! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है ।
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