संविधानवाद की परिभाषा और तत्व - Samvidhanvad ki Paribhasha aur Tatva : आप इस लेख में संवैधानिक प्रणाली का अध्ययन करेंगे। सर्वप्रथम, आप संविधानवाद के व
आप इस लेख में संवैधानिक प्रणाली का अध्ययन करेंगे। सर्वप्रथम, आप संविधानवाद के विभिन्न तत्वों का अध्ययन करेंगे। इस प्रकार संविधानवाद की, पृष्ठभूमि में आप, और संविधानवाद पर निबंध पढ़ेंगे।
संविधानवाद की परिभाषा
'संविधानवाद', प्रजातांत्रिक भावना और व्यवस्था पर आधारित एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था या प्रणाली है, जो कानूनों और नियमों से संचालित होती है और जिनमें शक्तियों के केन्द्रीकरण और निरंकुश सम्प्रभुता के लिए कोई स्थान नहीं है तथा जिनमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि सम्भव होती है। अर्थात् संविधानवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शासक पर (या राज्य की शक्ति पर) अंकुश रखने की शक्ति स्वयं शासित्तों के हाथों में सौंपता है। इससे यह आशा की जाती है कि, व्यक्तियों की औपचारिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित हो जाने पर वे स्वयं ऐसे लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे, जिसमें सब व्यक्तियों का हित निहित हो।
संविधानवाद के तत्व
- संविधान में आधारभूत संस्थाओं की स्पष्ट व्याख्या
- संविधान राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक
- संविधान विकास का सूचक
- संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक
पिनॉक तथा स्मिथ ने, संविधानवाद के चार तत्वों की विवेचना की है। संविधानवाद के संदर्भ में ही यह समझना सम्भव है कि, किसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधान, संविधानवाद का प्रतीक है अथवा नहीं। संक्षेप में इन तत्वों की विवेचना निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है
1. संविधान में आधारभूत संस्थाओं की स्पष्ट व्याख्या : संविधानवाद का महत्वपूर्ण तत्व यह है कि संविधान में आधारभूत संस्थाओं की स्पष्ट व्यवस्था की जानी चाहिए, उसमें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के संगठन व कार्यों तथा उनके पारस्परिक संबंधों की स्पष्ट व्यवस्था, संविधानवाद की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य है। संविधान में सरकार के विभिन्न स्तरों व अंगों की शक्तियों की व्याख्या ही नहीं हो, अपितु उनके वास्तविक संबंधों का, उन पर लगी सीमाओं और उनकी कार्यविधि का स्पष्ट उल्लेख भी होना चाहिए, अन्यथा संविधान, संविधानवाद की अभिव्यक्ति का साधन नहीं बन सकता है। वस्तुतः वर्तमान राज्यों में संविधान की सजीवता का मापदण्ड ही यह है कि, संविधान कहाँ तक शासन की आधारभूत संस्थाओं-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका तथा राजनीतिक दलों, समूहों एवं प्रशासकीय सेवाओं की समुचित व्यवस्था तथा स्थापना करता है।
2. संविधान राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक : संविधानवाद का एक आधारभूत तत्व यह है कि, संविधानवाद को राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक होना चाहिए। पिनॉक तथा स्मिथ तो प्रतिबन्धों को संविधानवाद का मूलमंत्र मानते हैं। वस्तुतः प्रत्येक राज्य में सरकार को संवैधानिक बनाये रखने के लिए उनका किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण व्यवस्था के अधीन होना आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि, संविधानवाद स्पष्ट रूप से सरकार की शक्तियों का सीमांकन करे। इससे सरकार का कार्यक्रम निश्चित हो जाता है और शासित शासकों की स्वेच्छाचारी कामों से बच जाता है तथा शासक केवल विधि के अनुरूप ही संचालित होता है। वस्तुतः प्रत्येक राज्य में सरकार को संवैधानिक बनाए रखने के लिए, उसका किसी न किसी प्रकार की नियंत्रण, व्यवस्था के अधीन होना आवश्यक है। ये नियंत्रण निम्नलिखित हैं
(क) विधि के शासन की स्थापना,
(ख) मौलिक अधिकारों की व्यवस्था,
(ग) शक्तियों का पृथक्करण एवं विकेन्द्रीकरण, और
(घ) सामाजिक परिस्थितियों को बनाये रखने की व्यवस्था।
उपर्युक्त नियंत्रणों के द्वारा नागरिक और सरकार दोनों ही अपने अधिकारों एवं कार्यों में सीमित हो जाते हैं और तब संविधान समाज के आदर्शों, आस्थाओं और राजनीति मूल्यों की प्राप्ति का साधन बन जाता है।
3. संविधान विकास का सूचक : संविधान के लिए यह आवश्यक है कि वह समयानुकूल बने। समय परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं में परिवर्तन के साथ सामाजिक मान्यताओं, मूल्यों और आदर्शों में भी हेर-फेर होता रहता है। इन नवीन आस्थाओं का ग्रहण करने की क्षमता संविधान में होनी चाहिए। अगर किसी राज्य का संविधान ऐसी व्यवस्था नहीं रखता है तो, परिवर्तित व अप्रत्याशित परिस्थितियों में वह समाज की बदलती हुई मान्यताओं का प्रतीक नहीं रह जाएगा। अतः आवश्यक है कि संविधान भविष्य में सम्भावित विकासों का श्रेष्ठतम साधन भी हो। कोई भी संविधान जो वर्तमान से आगे, समाज के भावी विकास की योजना व साधन नहीं बनता वह शीघ्र ही समाज की आधारभूत मान्यताओं से विलग होता जाता है। ऐसा संविधान समाज की आकांक्षाओं की प्राप्ति का साधन न बनकर उसका बाधक बन जाता है। यह व्यवस्था संविधानवाद की समाप्ति का प्रारम्भ है।
4. संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक : संविधान केवल सरकार की सीमाओं की स्थापना ही नहीं करता, अपितु सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का वितरण भी करता है। संविधान यह व्यवस्था भी करता है कि सरकार के कार्य अधिकार युक्त रहे और स्वयं सरकार भी वैध रहे। अगर कोई संविधान सरकार के कार्यों को अधिकार युक्त व स्वयं सरकार को वैध नहीं बताता तो, ऐसी सरकार व संविधान अधिक दिनों तक स्थाई नहीं रह सकते तथा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधानवाद राजनीतिक शक्ति का संगठक नहीं रहता। इससे स्पष्ट है कि संविधान द्वारा प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में शक्ति का संगठन होना आवश्यक है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि, संविधानवाद के उपर्युक्त चारों तत्व संविधान में अनिवार्य रूप से निहित होना चाहिए। यदि किसी राज्य के संविधान में संविधानवाद के इन तत्वों का समावेश नहीं है तो, वह संविधान में संविधानवाद की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होगा और ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधानवाद सम्भव नहीं।
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