प्राकृतिक संसाधनों का दोहन पर निबंध - Prakritik Sansadhano Ke Dohan Par Nibandh

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    प्राकृतिक संसाधनों का दोहन पर निबंध

    प्राकृतिक संसाधन वे संसाधन हैं जो प्रकृति से लिए गए हैं। प्राकृतिक संसाधन में भूमि, मिट्टी, जल, वन, खनिज, समुद्री साधन, जलवायु, वर्षा समावेश किया जाता है। हमारे चारों तरफ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और वनस्पतियों का परिमण्डल व्याप्त है। इन्हीं से पर्यावरण की संरचना होती है। पर्यावरण के संरचना में सभी तत्वों का बराबर योगदान है। जब मानव का उद्भव हुआ था, तब प्राकृतिक संसाधन मानव की जरूरतों को देखते हुए प्रचुर मात्र में उपलब्ध थे। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, अत्यधिक मात्रा में भोजन तथा आश्रय के लिये संसाधनों की जरूरत पड़ी और तब इन्हें पर्यावरण से अधिकाधिक रूप से प्राप्त किया गया। तेजी से बढ़ती जनसंख्या द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग करने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो रहा है। संसाधनों के अंधाधुंध शोषण से वैश्विक पारिस्थितिकी संकट पैदा हो गया है जैसे भूमंडलीय तापन, ओजोन परत अवक्षय, पर्यावरण प्रदूषण और भूमि निम्नीकरण आदि हैं।

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    इस अंधाधुंध दोहन का नतीजा प्राकृतिक असंतुलन जैसे मृदा, जैव विविधता में कमी और भूमि, वायु और जलस्रोतों के प्रदूषण के रूप में दिखायी पड़ रहा है। अत्यधिक दोहन के कारण पर्यावरण अवक्रमण के चलते यह मानव जाति और उसके अस्तित्व के लिये अनेक खतरे जैसे सूखा, भूस्खलन, महामारियाँ, भूकम्प, सुनामी उत्पन्न कर रहा है। प्रकृति में पारिस्थितिकी संतुलन पाया जाता है। विभिन्न जीवों के क्रियाकलाप प्रायः संतुलित होते हैं। अजैविक और जैविक घटकों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध इतना सधा होता है कि प्रकृति में एक प्रकार का संतुलन बना रहता है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, मानव क्रियाकलापों के द्वारा इस संतुलन में हस्तक्षेप होता जा रहा है। अनियंत्रित मानव क्रियाकलापों के कारण पर्यावरण की क्षति हो रही है।

    वन प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन मनुष्य खेती करने के लिये और घर बनाने के लिये वनों को काटता जा रहा है। इसके अलावा वृक्षों को काटकर लट्ठों को अपने घर बनाने के लिये और फर्नीचर या ईंधन के रूप में प्रयोग कर रहा है। जिस दर से वृक्ष काटे जा रहे हैं, वह वृक्षों को उगाने की दर से काफी अधिक है और शीघ्र ही वन वृक्ष रहित हो जायेंगे। पेड़ों के वाप्पोत्सर्जन द्वारा पानी भी पर्यावरण में पहुँचता रहता है, जिससे वर्षा वाले बादल बनते हैं। पेड़ों की कटाई और वनों के काटे जाने के कारण उन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है। पौधों और वक्षों की कटाई के कारण मृदा अपरदन को भी बढ़ावा मिलता है।

    वन्य जीवों की प्रजातियों का विलुप्त होना बढ़ता जा रहा है। अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम पदार्थों को जिस तेजी से उपयोग किया जा रहा है, उसके उनके समाप्त होने की सम्भावना है। कोयला, लकड़ी, पेट्रोल आदि के अत्यधिक मात्र में जल जाने के कारण विषैली गैसें सल्फर डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन वायु में मिल जाती है। ये गैसें उद्योगों, विद्युत संयंत्रों, मोटर गाड़ियों और वायुयानों से भी निकलती हैं। ये विषाक्त गैसें वायु को प्रदूषित करती हैं जिनसे मानव स्वास्थ्य और पौधों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। खानों से निकला अम्लीय जल कल-कारखानों, खेतों से निकले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से निकले अपशिष्ट नदियों और दूसरे जलस्रोतों को प्रदूषित करते हैं। घरों और कल-कारखानों से निकलने वाले ठोस एवं द्रव अपशिष्टों से गाँवों, शहरों और औद्योगिक क्षेत्र में दिन प्रतिदिन मृदा प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। 

    बढ़ती जनसंख्या के लिये स्थान, आश्रय और उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता के कारण पर्यावरण पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। इन सभी वस्तुओं को उपलब्ध कराने के लिये नाटकीय तरीके से भूमि का प्रयोग बदल गया है। यह पहले से ही ज्ञात है कि अनाज और फल वाली फसलों को उगाने के लिये जंगलों, वनों की कटाई की जाती रही है। वन और प्राकृतिक चारागाह, घास के मैदान को कृषि योग्य भूमि में बदल दिया गया है। आर्द्र भूमि को खाली और मरुभूमि को सींचा गया है। इन परिवर्तनों के कारण अत्यधिक मात्र में खाद्यान्न और कच्चे माल का उत्पादन हुआ। लेकिन ऐसा करने के कारण प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो गये और प्राकृतिक सुंदरता में एक भयावह बदलाव आ गया है। 

    जल हमें वर्षा के रूप में मिलता है, नदियों, झीलों और अन्य जलस्रोतों में बहता है। इस जल का कुछ भाग जमीन सोख लेती है जो भूमिगत जल तक पहुँच जाता है। मिट्टी की एक निश्चित गहराई तक मृदा के कणों के मध्य सभी स्थानों में जल भरा होता है। यदि भूमिगत जल से निकले जल की पुनःपूर्ति वर्षाजल से नहीं हो पाती या जल भराव की दर जल निकासी की दर से कम हो तो परिणामतः कुएँ सूख जायेंगे। बहुत से क्षेत्रों में पानी के अत्यधिक निकास के कारण भूमिगत जल संसाधन में कमी हो जाने के कारण पानी की मात्रा में अत्यन्त कमी हो गयी है। 

    प्रतिदिन के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ जैसे प्लास्टिक के बर्तन, बाल्टी इत्यादि; कृषि-उपकरण, मशीनरी, रसायन, कॉस्मेटिक्स इत्यादि फैक्टरियों में बनाये जाते हैं। इन उद्योगों को चलाने और इन उत्पादों को बनाने के लिये कच्चे माल, जीवाश्म ईंधन और पानी की आवश्यकता होती है, जिसके कारण इनके समाप्त होने के खतरे बढ़ते जाते हैं। तीव्र गति से होने वाले औद्योगिकीकरण से जलस्रोतों का प्रदूपण बढ़ा है। पर्यावरण दोहन से मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है।

    Prakritik Sansadhano Ke Dohan Par Nibandh

    प्राकृतिक संसाधन में भूमि, मिट्टी, जल, वन, खनिज, समुद्री साधन, जलवायु, वर्षा समावेश किया जाता है प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। इन संसाधनों को मनुष्य अपने प्रयत्नों से उत्पन्न नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक संसाधन भौतिक पर्यावरण का वह भाग है जिन पर मनुष्य अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर रहता है। वर्तमान परिवेश मे सभी प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जिस प्रकार हो रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि समय से पहले ही सभी प्राकृतिक संसाधन खत्म हो सकते हैं। पैसों की ही तरह दुनिया का हर देश अपने प्राकृतिक संसाधनों को भी अपनी औकात से अधिक खर्च कर रहा है! हर वर्ष कई-कई महीनों के बराबर पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का अग्रिम दोहन होता है। इस उधारी की भरपाई अंततः कभी न कभी और किसी न किसी रूप में हमें ही करनी पड़ेगी।

    प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में विख्यात हर क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या एवं भौतिक सुविधाओं की चाह ने यहां की प्राकृतिक एवं सुरम्य वादियाें पर ग्रहण लगा दिया है। सूखते हुए झरने, वीरान जंगल, जल विहीन नदिया, रेत की चादर  भयावह प्राकृतिक संकट का संदेश दे रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए वरदान स्वरूप हैं। इनका उपयोग हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों के जरूरत से ज्यादा विदोहन किए जाने से घातक परिणाम भी सामने आ सकते हैं।

    यह सिलसिला यूरोप में आधुनिक औघोगिक विकास के मॉडल के साथ ही अस्तित्व में आया। मानव जगत की सुख-समृद्धि, विलासिता-एशोआराम के लिए ही तो प्रकृति को एक संसाधन मानकर शोषण के वे तमाम उपाय किए गए जिससे दुनिया के हिस्से में समृद्धि के टापू बनते गए। वहीं दूसरी ओर दुनिया हिस्से कंगाली-बदहाली, भुखमरी-विस्थापन-पलायन-अकाल मौतों से तबाह होते गए।

    इन घटनाओं की बड़ी वजह दुनिया के समृद्ध देशों देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब-बेरहम, स्वकेन्द्रित उपभोग- शोषण तो हैं ही। गरीब देशों के आमजन के लिए जरूरी संसाधनों तक पहुंच, आज भी इतना आसान नहीं हैं।

    हवा, पानी, मिट्टी, जंगल और जानवर जीवन के मूलभूत आधार हैं। मनुष्य ने लाभ के वशीभूत होकर प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग कर पर्यावरण को बहुत ज्यादा दूषित किया है। संसाधनों से मनुष्यों द्वारा खिलवाड़ करने के कारण मनुष्यों का जीवन कष्यमय होता जा रहा है। संसाधनों के दोहन के चलते हर क्षेत्र में समस्याएं बढ़ती जा रही है। फिर चाहे जल हो, वन हो, पर्यावरण हो या अन्य कोई संसाधन। हर क्षेत्र में लोगाें को कड़ा संघर्ष करना पड़ा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के चलते प्राकृतिक संसाधनों पर बोझ बढ़ता जा रहा है। खेती योग्य भूमि के क्षेत्रफल में कमी आ रही है। भूमिगत जलस्तर नीचे जा रहा है। 

    नदी नाले और झरने यहां तक की बांध भी सूख गए हैं। हाल यही रहा तो आने वाले दस वर्षों में इस  प्राकृतिक धरोधर से परिपूर्ण विंध्य क्षेत्र में भी पानी के लिए लोगाें को संघर्ष करना पड़ेगा। वनों की अंधाधुंध कटाई व पहाड़ाें पर धड़ल्ले से हो रहे अवैध खनन तथा ब्लास्टिंग से जंगल और पहाड़ कम होते जा रहे है। 

    जंगल में अब सूखे पेड़ और वीरान जमीन दिखाई दे रहे हैं। वन विभाग का आंकड़ा भले ही कुछ बताए लेकिन हकीकत कुछ ऐसा ही है। अवैध रूप   से बालू का खनन गंगा में कटान का मुख्य कारण बनता जा रहा है। पहाड़ों पर हो रहा खनन पर्यावरण को प्रदूषित करता जा रहा है। 

    प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन मानव को आज विनाश की ओर धकेल रहा है। पर्यावरण संरक्षण वर्तमान में समाज के लिए एक गंभीर मुद्दा है। समय रहते पर्यावरण संरक्षण के लिए विशेष योजना तैयार नहीं की तो आने वाला समय मनुष्य के लिए भयानक हो सकता है। इसके कारण यह प्राकृतिक संसाधन समय से पहले ही नष्ट हो रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो हमारी आने वाली पीढ़ी को पृथ्वी जीवित रहने के लिए कुछ न दे पाएगी।

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