मानव जीवन में धर्म का क्या महत्व है ? मानव जीवन में धर्म का बहुत महत्व है। धर्म ही मानव को मुक्ति देता है। अन्य सभी भौतिक सम्पदायें संसार में ही रह जा
मानव जीवन में धर्म का क्या महत्व है ?
मानव जीवन में धर्म का महत्व
मानव जीवन में धर्म का बहुत महत्व है। धर्म ही मानव को मुक्ति देता है। अन्य सभी भौतिक सम्पदायें संसार में ही रह जाती है। मृत्यु के बाद धर्म ही जीव के साथ जाता है। पत्नी, पुत्र, भाई-बन्धु कुछ दूर तक ही शरीर का साथ देते हैं। वे सभी पंचतत्व से बने हुए शरीर को पंचतत्व में मिलाकर लोट जाते हैं। शरीर के साथ कोई नहीं जाता। केवल धर्म ही जीव के साथ जाता है। अपने किये पुण्य पाप के अनुसार जीव को अन्य योनि की प्राप्ति होती है। इसलिए मानव को धर्म का आचरण करना चाहिए। कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: अर्थात् जो मनुष्य धर्म की रक्षा करता है, वहीं रक्षित धर्म मनुष्य की भी रक्षा करता है। मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। पत्ते पर स्थित ओस बिन्दु की तरह हवा के झकोरे खाकर नाशवान है। इस छोटे से आयु खंड में जिसने जितना धर्म कर्म कर लिया, उसका जीवन उतना ही सार्थक है और जिसने व्यर्थ में ही जीवन को गवा दिया वह अपने जीवन के मूल्य को नहीं समझ पाया।
'जीवनकाल में धर्म ही मनुष्य को त्राण दे सकता है। धर्म की व्याख्या करने के लिए इसके लौकिक और पारलौकिक स्वरूप को समझना आवश्यक है। लौकिक धर्म वह धर्म है, जिसे हम इस लोक में करते हैं और उसका फल भोगते हैं। पारलौकिक धर्म इस लोक से परे है और वहीं मानव जीवन की सच्ची कमाई है। इसी धर्म को प्राप्त करने के लिए मानव को प्रयास करना चाहिए। इस तथ्य की सत्यता को हृदयंगम कर भारतीय ऋषियों ने अपने वेद ज्ञान के संस्मरणों, निष्कर्पों को स्मृति शास्त्र के रूप में मानव समाज के हितार्थ प्रगट किया। जिससे वे भोगवाद की आसुरीधारा में न बहकर आत्मकल्याण का सर्वप्रथम ध्यान रखें और अर्थ तथा काम के साथ ही धर्म और मोक्ष के साधन के लिये भी प्रयत्नशील रहें। मनुप्य का आध्यात्मिक विकास तभी सम्भव है, जब वह अपना आचरण शुद्ध रखे और संयम नियम का पालन करता रहे।
स्मृतिकारों ने सोलह संस्कारों का विधान बनाया है, जिसमें मनुष्य को जन्म से मरण तक अपना रहन-सहन शुद्ध और सात्विक रखकर मलिनता, अपवित्रता से दूर रहने का आदेश दिया गया है। मलिनता और अपवित्रता चाहे बाहा हो अथवा चाहे आन्तरिक, मनुष्य के उच्चभावों को नष्ट करके उसे पाप कर्मों की तरफ प्रेरित करती हैं। इसलिये मानव को सुसंस्कारित बनाने के उद्देश्य से अनेक नियम बनायें, जिससे वे अनुशासन, मर्यादा, नैतिकता आदि की शिक्षा प्राप्त करके वास्तविक मनुप्यता का विकास कर सकें। जन्म के समय मनुष्य तथा अन्य प्राणियों में विशेष अन्तर नहीं होता, वरन् यदि देखा जाय तो मनुष्य का नवजात शिशु अन्य पशुओं के बच्चे की अपेक्षा अधिक असमर्थ और असहाय स्थिति में होता है। कुछ बड़ा होने पर भी वह स्वयं कोई नयी बात कर सकने में असमर्थ होता है। परिवार और समाज तथा अपने चतुर्दिक वातावरण से वह बहुत कुछ सीखता है। इसलिये जैसे संस्कार उसमें डाले जायेंगे वैसा ही आचरण वह समाज में करेगा।
सदाचार एक ऐसा व्यापक सार्वभौम तत्त्व है जो देश काल की संकीर्ण सीमा से आबद्ध नहीं किया जा सकता-जैसे सूर्य की रश्मियां सारे संसार के लिये उपयोगी होती हैं, उसी प्रकार सदाचार भी प्राणिमात्र के लिये उपयोगी होता है। इसीलिये आचार्य मनु ने इस देश में उत्पन्न शिष्ट लोगों से संसार के सभी मनुष्यों को अपने-अपने चरित्र को सीखने की शिक्षा दी है-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं-स्वं चरित्र शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।।
महाभारत में वेदव्यास ने भी यही कहा है कि सभी आगमों में आचार ही प्रधान है-सर्वागमानां आचार: प्रथमं परिकल्पते'। आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है। आचार धर्म का मेरुवण्ड है, जिसके ब्रिना धर्म टिक नहीं सकता। आचार का पालन करने वाला मानव सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है-'गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रबीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।" विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन सभी में मानव श्रेष्ठ है। सभी मानवों में ज्ञानी श्रेष्ठ हैं; और सभी ज्ञानियों में आचारवान् श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ आचार ही मुक्ति का द्वार है।आचार की प्रतिष्ठा के लिये मन और वाणी की एक रूपता परमावश्यक है। मन और वाणी की प्रतिष्ठा पर बहुत बल दिया गया है।
आचार की प्रतिष्ठा के लिये सत्य का अनुप्ठान परमावश्यक है। धर्म के अनेक स्रोतों में से सदाचार एक है। इसको धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक अथवा शिष्टाचार कहा गया है और स्मृतियों में आचार एवं सदाचार। वेद, स्मृतियां, पुराण, जैनागम, बौद्ध त्रिपिटक, गुरुग्रन्थ साहब, बाइबिल एवं कुरान आदि विश्व के समस्त ग्रन्थ सदाचार और धार्मिक सहिष्णुता की ही शिक्षा देते हैं और कदाचार या दुराचार को परित्याज्य बतलाते हैं। दुराचारी पुरुष लोक में निन्दित होता है, दुःख प्राप्त करता है, और अल्पायुवाला होता है। काम, क्रोध, मोह और लोभ मानव के आन्तरिक दुर्गुण हैं। इन दोषों को धर्म के द्वारा परिमार्जित किया जाता है। धर्म सभी के मंगल की कामना करता है। धर्म के आचरण से दुःख दूर होता है और सुख की प्राप्ति होती है।
लेखक - प्रो. (डॉ) सोहन राज तातेड़,
पूर्व कुलपति, सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
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