अनुवाद की व्युत्पत्ति, अर्थ एवं परिभाषा - अनुवाद अनु+ वद् + घञ् से व्युत्पन्न संस्कृत शब्द है। यह मूलत: संस्कृत के "वद्" धातु से विकसित शब्द है।संस्कृ
अनुवाद की व्युत्पत्ति, अर्थ एवं परिभाषा
अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति / उत्पत्ति
अनुवाद अनु+ वद् + घञ् से व्युत्पन्न संस्कृत शब्द है। यह मूलत: संस्कृत के "वद्" धातु से विकसित शब्द है।संस्कृत में "वद्" धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से "वाद" शब्द बनता है। संस्कृत का घञ् प्रत्यय जब किसी धातु अथवा मूल शब्द से जुड़ता है, तो वह "आ" (I) की मात्रा में बदलकर शब्द के पहले अक्षर के साथ युक्त हो जाता है। इसी के फलस्वरूप, "वद +घञ् "वाद " बना। आगे वाद शब्द में अनु उपसर्ग जुड़ने से (अनु + वाद) अनुवाद शब्द निष्पत्र हुआ। अनुवाद शब्द इसी प्रकार से व्युत्पन्न हुआ है।
अनुवाद की यह व्युत्पित्त भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा से संबद्ध है। प्राचीन भारत में शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी। पढ़ने-पढ़ाने के क्रम में गुरु या आचार्य जो कुछ बोलते, सुभाषित अथवा मंत्रों का उच्चारण करते थे, शिष्यगण उन्हें दोहराते थे। इस प्रक्रिया को अनुवचन या अनुवाद कहा जाता था।
हमारे यहाँ अनुवाद गुरुकुल का खास शब्द रहा है। इस शब्द का प्रयोग गुरु के वचनों को शिष्यों द्वारा दुहराए जाने के लिए होता था। प्राचीन काल में ज्ञान मौखिक तौर पर गुरु से सुनकर और फिर उसे बार-बार दुहराकर, याद किया जाता था। ज्ञान-अर्जित करने की यही विधि प्रचलित थी। इसीलिए, पाणिनि ने अपने ग्रंथ अष्टाध्यायी में "अनुवादे चरणानाम् " कहा है, जिसका अर्थ होता है- पहले कही गई किसी बात को फिर से कहना, पुन: उच्चारण करना। महान् विद्वान और दार्शनिक राजा भर्तृहरि ने भी अपने वाक्यपदीय में "अनुवाद " शब्द का प्रयोग कथन की आवृत्ति के अर्थ में ही किया है- आवृत्तिरनवादो वा। जैमिनीय न्यायमाला की प्रसिद्ध उक्ति- "ज्ञातस्य कथनमनुवाद " का अभिप्राय भी यही है कि अनुवाद ज्ञात का पुनर्कथन है। प्राचीन संस्कृत में भी अनुवाद शब्द किसी एक भाषा में कही गई बात को बोलचाल की भाषा में फिर से कहने के अर्थ में प्रयुक्त होता था। शब्दार्थ चिंतामणि के अनुसार "प्राप्तस्य पुन: कथने" या "ज्ञातार्थस्य प्रतिपादने इति अनुवादः " का अभिप्राय भी स्पष्ट है कि पहले से ज्ञात ज्ञान के अर्थ को फिर से कहना (प्रतिपादित करना) अनुवाद है। न्यायसूत्र में भी अनुवाद को इसी अर्थ में व्याख्यायित किया गया है- "विधि विहितस्यानवचनमनवाद: " अर्थात् विधि तथा विहित (ज्ञात) का अनुवचन करना, यानी, फिर से कहना अनुवाद है।
अनुवाद शब्द का अर्थ - Anuvad ka Arth
जैसा कि अनुवाद शब्द की व्युत्पित्त से स्पष्ट होता है, इसमें केंद्रीय शब्द वाद का अर्थ है बोलना अथवा कहना (To Say)। वद् से विकसित वाद का अर्थ होता है कथन या कही गई बात अथवा बोला या व्यक्त किया गया, कोई विचार। इस प्रकार अनुवाद का शाब्दिक अर्थ होता है, कथन का पुन: कथन या किसी कही गई बात को फिर से कहना / दुहराना।
अनुवाद का कोशगत अर्थ भी आवृत्ति या दुहराना ही होता है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश में अनुवाद शब्द का अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है -
"सामान्य रूप से आवृत्ति, (दुहराना)। व्याख्या, उदाहरण या समर्थन की दृष्टि से आवृत्ति। व्याख्यात्मक आवृत्ति या पूर्वकथित बात का उल्लेख या उल्लेख का पुनरुल्लेख।"
शुरू-शुरू में हिंदी में भी अनुवाद शब्द को संस्कृत शब्द के अर्थ-प्रसंग में ही लिया जाता रहा। इसलिए इसका पर्याय अनुवचन, अनुवाक , अनुकथन, पश्चकथन, टीका, भाषानुवाद, आवृत्ति आदि प्रचलित हुआ । किंतु, आधुनिक काल में भाषाओं में पारस्परिकता का संबंध विकसित होने के बाद से अनुवाद उर्दू, तरजुमा तथा अंग्रेजी ट्रांसलेशन का भी पर्याय बन गया है। हिंदी थिसारस के प्रणेता अरविंद कमार ने भी अपने समानांतर कोश में अनवाद को इन्हीं अर्थों में लिया है।
वैसे हिंदी में आजकल अनुवाद शब्द का वही अर्थ लिया जाता है, जो अंग्रेजी में 'Translation' का लिया जाता है। विषय-विशेष के रूप में "अनुवाद " की परिभाषा भी वैसे ही गढ़ी गई है, जैसे अंग्रेजी में है। अंग्रेजी और जर्मन सहित अन्य पाश्चात्य भाषाओं के अनुकरण पर हिंदी में "अनुवाद " का एक शास्त्र विकसित किया गया है और इसका उच्च स्तर पर डिप्लोमा पाठ्यक्रम निर्धारित कर अध्ययन किया जाने लगा है।
बहरहाल, अंग्रेजी ट्रांसलेशन (Translation) शब्द ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, लैटिन के ट्रांसलेटम (Translatom) से विकसित है, जिसका अर्थ होता है, पार ले जाना (Carried across)| अंग्रेजी चैम्बर्स डिक्शनरी के अनुसार भी ट्रांसलेशसन शब्द 'To translate' क्रिया का संज्ञारूप है, जिसकी व्युत्पित्त लैटिन के ट्रांसलेटम (Translatum) शब्द से हुई। लैटिन 'Translatum', 'Trans' और 'Latum' के योग से बना शब्द है। Trans' का अर्थ beyond, across, through अर्थात् दूसरी ओर या के पार होता है तथा 'Latum' का अर्थ to carry' अर्थात् ले जाना है। इस तरह से ट्रांसलेशन का अर्थ हुआ - पारगमन अर्थात किसी कथन को एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रस्तुत करना। अंग्रेजी ट्रांसलेशन (Translation) शब्द भी दो स्वतंत्र शब्दों ट्रांस (Trans) और लेशन (Lation) के योग से बना है, जिसमें ट्रांस का अर्थ है- पार को जाना, पार को दिखाना अर्थात् पारदर्शी और लेशन का अर्थ है- पाठ, कथ्य या विषय। अंत: ट्रांसलेशन का व्युत्पित्तगत अर्थ है- वह काम जिसमें पाठ (Text, मूल रचना) के पार जाया जाए। भाषिक अर्थ में एक भाषा के पाठ को दूसरी भाषा में ले जाना, संप्रेषित करना या प्रस्तुत करना अर्थात् एक भाषा में व्यक्त किसी कथन या विचार को दसरी भाषा में फिर से कहना या प्रस्तुत करना ही अनुवाद है।
अनुवाद की परिभाषा - Anuvad ki Paribhasha
अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, "Translation: the act or an instance of translating, a written or spoken rendering of the meaning of a word, speech, book, etc., in another language. अर्थात् अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण है। किसी एक भाषा के शब्द, कथन, पुस्तक आदि का दूसरी भाषा में लिखित या मौखिक प्रस्तुतीकरण है।
अंग्रेजी की प्रसिद्ध वेब्स्टर डिक्शनरी भी ट्रांसलेशन को इसी अर्थ में परिभाषित करती है। उसके अनुसार - “Translation is a rendering from one language or representational system into another, translation is an art that involves the recreation of a work in another language for readers with different background.”
अर्थात् अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में प्रस्तुतीकरण अथवा प्रतिनिधित्व की पद्धति है। अनुवाद ऐसी कला है, जिसमें भिन्न पृष्ठ-भूमि वाले पाठकों के लिए किसी रचना का किसी और भाषा में पुनसृजन होता है। इस प्रकार से अनुवाद का अर्थ हुआ- किसी बात, कथन या पाठ को उसकी मूल भाषा से परे दूसरी भाषा में पुन: कहना या प्रस्तुत करना।
ध्यान रखना होगा कि अनुवाद यदि पाठ को पुन: प्रस्तुत करना, यानी दुहराना है, तो यह सामान्य दुहराना नहीं है। इसमें भाषा यानी अभिव्यक्तिका माध्यम बदल जाता है किंतु कथन या पाठ का नहीं। कथन या पाठ की वस्तु ( Content) वही रहती है, परंतु उसे व्यक्त करने वाली भाषा परिवर्तित हो जाती है। यानी अनुवाद में बात, कथ्य, कथन या पाठ और उसका जो अर्थ या संदेश होता है, वह अपरिवर्तनीय होता है। परिवर्तनीय होता है तो केवल पाठ या अर्थ का व्यक्त माध्यम अर्थात् भाषा। इसलिए, अनुवाद को दो भाषाओं का (अंतरभाषिक) कर्म कहा जाता है। इसमें पहली भाषा अर्थात् जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है, उसे स्रोत भाषा ( Source language) और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा ( Target language) कहा जाता है।
किंतु, अनुवाद में स्रोत भाषा के किसी कथन अथवा उसके अर्थ को लक्ष्य भाषा में अंतरित करना हमेशा आसान नहीं होता। अंतरण की प्रक्रिया किंचित जटिल होती है। इसके विशिष्ट भाषागत कारण होते हैं। मसलन शब्द, अर्थ-प्रसंग, वाक्य-संरचना, अभिव्यक्ति आदि के मामले में कोई भी दो भाषाएं एक समान नहीं होती। प्रत्येक भाषा का समाज, उस समाज की मान्यता, उसकी संस्कृति और उसका भौगोलिक परिवेश भिन्न तथा विशिष्ट होता है। पुन: एक भाषा-समाज की जीवन-दृष्टि और अभिव्यक्तिका ढंग भी दूसरे भाषा-समाज से पृथक एवं विशिष्ट होता है। दो भाषाओं में एक ही तथ्य या यथार्थ को व्यक्त करने का अंदाज भी एकजैसा नहीं मिलता। इन्हीं सब कारणों से एक भाषा के कथन का अथवा कथन के अर्थ का किसी दूसरी भाषा में अंतरण करना मुश्किल होता है। जैसे
1. वह बहुत नाराज हैं।
2. वह बेहद नाराज हैं।
3. वह गुस्से से लाल-पीले हैं।
4. उनकी आंखों में खून उतर आया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर के सभी वाक्यों के अर्थ लगभग समान हैं और इनमें नाराजगी की अभिव्यक्ति हुई है। किंतु, गौर करने पर यह स्पष्ट होता है कि गुस्से की जैसी प्रतीति तीसरे और चौथे वाक्य से होती है, वैसी पहले तथा दूसरे वाक्य से नहीं। पहले और दूसरे वाक्य सामान्य नाराजगी प्रकट करने वाले वाक्य हैं, जबकि तीसरे वाक्य में क्रोध की अभिव्यंजना महावरे में व्यक्त है। चौथे वाक्य की अभिव्यंजना अपेक्षाकृत ज्यादा क्रोध का इजहार करने वाले वाक्य की होकर भी गुणात्मक रूप से भिन्न है। दूसरे शब्दों में ये चारों वाक्य सामान्यत: समानार्थी होकर भी प्रभाव एवं प्रकृति में एक-दूसरे से पृथक हैं। इसलिए, इन्हें अंग्रेजी में अनूदित करने में कठिनाई है। इनके साथ अंतरण की कोई एक पद्धति अपनाने से काम नहीं चलेगा। यथा- पहले वाक्य के लिए He is very angry. और दूसरे वाक्य के लिए He is extremely angry. तो चलेगा परंतु तीसरे और चौथे वाक्य का अंग्रेजी अंतरण कठिन है। इनमें मुहावरों के माध्यम से जो अर्थ-छटा व्यंजित है, उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद संभव नहीं है। अंग्रेजी में गुस्से के लिए हिंदी मुहावरों जैसी समानार्थक और व्यंजक अभिव्यक्ति नहीं मिलती। ऐसे में मूल कथन में व्यंजित अर्थ की समतुल्य अभिव्यक्ति के लिए अनुवाद में अतिरिक्त रूप से विशेषण, आदि पद जोड़ना पड़ेगा। फिर भी यह आशंका बनी रहेगी कि अनुवाद मूल का समतुल्य हो पाएगा अथवा नहीं। वैसे कविता के संदर्भ में तो यह आशंका एक हद तक सच भी साबित होती है। फिर भी, भाषाविद् जॅक देरिदा के शब्दों में कहें तो "अनुवाद उतना ही आवश्यक है जितना कि असंभव "|
स्पष्ट है कि स्रोतभाषा की किसी अभिव्यक्ति को लक्ष्यभाषा में समतुल्य और समानार्थक रूप में अभिव्यक्त करना एक कठिन कार्य है। इसके लिए अनुवादकर्ता को लक्ष्यभाषा और स्रोतभाषा के बीच सामंजस्य बिठाना पड़ता है। सामंजस्य का यह कार्य बिल्कुल दो भाषाओं के बीच संपन्न होता है। इसलिए, अनुवाद दो भाषाओं के बीच सामंजस्य-स्थापन है। अनुवाद दो भाषाओं के बीच सेतु निर्माण है।रूढ़ अर्थ में कहें तो अनुवाद दो भाषाओं का संवाद है। स्रोतभाषा के वाद का लक्ष्य भाषा में संवाद।
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