अनुवाद की आवश्यकता और सिद्धांत अनुवाद की आवश्यकता और सिद्धांत : वास्तव में भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। भाषा वह साधन है, जिससे हम अप...
अनुवाद की आवश्यकता और सिद्धांत
अनुवाद की आवश्यकता और सिद्धांत : वास्तव में भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने मन के भाव दूसरों पर प्रकट करते हैं। इस प्रकार भाषा मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार है। आचार्य रामचंद्र वर्मा के शब्दों में " भाषा की शक्ति अपरिमित और अमोघ है, अच्छी भाषा में जादू का असर, संगीत का माधुर्य और तलवार की शक्ति होती है। " भाषा के दद्वारा मन के भावों को विविधता के साथ अभिव्यक्त कर सकते हैं। यह विशेष शक्ति ही हमें संसार के दूसरे जीव-जंतुओं से पृथक करती है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारी भाषाए भी विकसित और सम्पन्न होती गई।
बाइबल में " बेबल " का एक प्रसंग आता है कि मानव ने जब शिनार देश में एक अदभुत नगर और विलक्षण मीनार बनाकर "यहोवा " से टक्कर लेने की ठानी तो उसने उनकी भाषाओं में भेद उत्पन्न कर दिया, जो उनमें परस्पर दवेष एवं वैर का कारण बना। बेबल की मीनार के इस मिथक में अनुवाद की आवश्यकता महसूस हुई और कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि तभी से अनुवाद का आरंभ हुआ।
यह प्रसंग विश्व के किसी भी भाग में किसी भी रूप में चर्चित हो लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि विश्व की तमाम मानव जातियों ने पारस्परिक संप्रेषण के लिए अनुवाद का सहारा लिया होगा चाहे वह सिकन्दर और पोरस के बीच का संवाद हो, चीनी यात्रियों और भारतीय "मनीषियों " के बीच का संवाद हो, कोलम्बस और अमरीका के आदिवासियों के बीच का संवाद हो, वास्कोडिगामा और दक्षिण भारतीयों के बीच का संवाद हो या फिर आधुनिक विश्व के लोगों के बीच संपर्क का माध्यम हो, अनुवाद सबका साथी रहा है। आज वैश्वीकरण (Globalization) की चर्चा है। इसमें Global village की संकल्पना है। हमें अपने पूर्वजों पर गर्व है कि उन्होंने "वसुधैव कुटुम्बकम् " का संदेश दिया है। वास्तव में विश्व को गांव या कुटुम्ब समझने की संकल्पना को पूरा करने में अन्य बातों के साथ-साथ अनुवाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उसी के कारण इन उक्तियों को चरितार्थ किया जा सकता है।
ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार में भी अनुवाद की भूमिका से सब लोग परिचित हैं, यदि अनुवाद नहीं होता तो हम विदेश के कोने-कोने में हुए वैज्ञानिक आविष्कारों से वंचित रह जाते।
विभिन्न भाषाओं में विरचित साहित्य का रसास्वादन अनुवाद के माध्यम से अपनी ज्ञात भाषा में किया जा सकता है। यदि हम यह सोचें कि पहले संबंधित भाषा जानेंगे और फिर उस भाषा में विरचित साहित्य पढ़ेंगे तो चाणक्य की इन पंक्तियों को याद रखना होगा ------
" अनन्तशास्त्रं बहलाश्च विद्या:
अल्पश्च कालो बहुविध्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्।। "
अर्थात् वेदादि शास्त्र अनन्त हैं और विद्याएँ भी बहुत हैं। दूसरी ओर समय बहुत कम है और विध्न बहत हैं, अत: इन शास्त्रों में जो सार है, उसे ग्रहण करना चाहिए, जैसे हंस द्ध और पानी के मिश्रण में से दूध को ग्रहण कर लेता है और पानी को छोड़ देता है।
भारत में संघ सरकार द्वारा राजभाषा अधिनियम 1963 (यथा संशोधित 1967) बनाए जाने के कारण केंद्र सरकार के कार्यालयों में विभाषिकता की स्थिति पैदा हो गई है। इसलिए केंद्र सरकार के कार्यालयों में विभाषिकता और इस बहुभाषी देश की राज्य सरकारों के कार्यालयों में द्विभाषिकता, त्रिभाषिकता आदि की स्थिति सदा विद्यमान रहेगी। इस प्रकार इस विशाल लोकतंत्र के विभिन्न स्तरों पर अनुवाद की आवश्यकता हमेशा बनी रहेगी और भारत में एकता और अखंडता की भावना के सुदृढ़ीकरण के लिए अनुवाद की भूमिका और प्रखर होगी।
आज विश्व में लगभग 5000 (पांच हजार) भाषाएं बोली जाती है जिनमें से अंग्रेज फ्रांसीसी, स्पेनिश, रूसी, चीनी, अरबी, इतालवी, जर्मन, जापानी, पुर्तगाली, भाषामलय (इंडोनेशिया), तमिल, तेलुगु, बंगला, उर्दू और हिन्दी 16 प्रमुख भाषाएं है। उल्लेखनीय है कि इन 16 भाषाओं में से प्रथम 6 भाषाएं संयुक्त राष्ट्र की भाषाएं है और अंतिम पांच भारत की भाषाएं है। यह सब कहने का तात्पर्य है कि विश्व के देशों की तो विभिन्न भाषाएं हैं ही लेकिन भारत भी एक बहुभाषी देश है। इसलिए भारत सहित विश्व में अनुवाद का अस्तित्व और वर्चस्व विदयमान रहेगा।
अनुवाद के निम्नलिखित सिद्धांत स्वीकार किए गए हैं : -
1. अर्थ संप्रेषण का सिद्धांत
2. व्याख्या का सिद्धांत
3. समतुल्यता का सिद्धांत
4. सामाजिक और सांस्कृतिक एकीकरण का सिद्धांत
(1) अर्थ-सम्प्रेषण का सिद्धांत (Translation as Communication of meaning)
अनुवाद में अर्थ (Meaning) के महत्व पर विशेष बल देने वाले विद्वानों में Dr. Samual Johnson का नाम प्रमुख है। उनकी परिभाषा के अनुसार -“To translate is to change into another language. retaining the sense" इस परिभाषा में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि मूल के अर्थ को बनाए रखते हुए किसी अन्य भाषा में अन्तरण करना अनुवाद है। अर्थ की खोज में भाषा में पहली इकाई "शब्द" है। शब्द को सस्यर ने भाषिक प्रतीक (Linguistic symbol or sign) की संज्ञा दी है। एक ही भाषा के भाषिक प्रयोगों में शब्द के अर्थ का विस्तार तथा संकोच दोनों संभव है तो किसी अन्य भाषा में इस विचलन (deviation) से कैसे बचा जा सकता है। इसलिए अनुवाद करते समय भाषिक प्रतीकों (शब्दों) की सूक्ष्म अर्थ छटाओं की दूसरी भाषा में पूर्ण अभिव्यक्तिनहीं हो पाती। अत: सभी प्रकार के अनुवाद कार्य में मल पाठ के अर्थ का कछ-न-कछ प्रभाव नष्ट हो जाता है। अंग्रेजी साहित्य के आधुनिक आलोचक A.H. Smith ने Dr. Johnson की परिभाषा में इसी दृष्टि को सामने रखते हुए आंशिक संशोधन किया है। उनके अनुसार --- “To translate is to change into another language, retaining as much as of the sense as one can."
इस बात को मानने वाले विद्वान कमोबेश इस बात पर एकमत हैं कि अनुवाद की प्रक्रिया में अर्थ की कुछ-न-कुछ हानि अवश्य होती है और अर्थ की इस हानि का कारण दो भिन्न-भिन्न भाषाओं की भाषिक व्यवस्था, व्याकरण, शब्दावली तथा पदावली. वाक्य संरचना. महावरे, सामाजिक और सांस्कृतिक परम्परा आदि में विषमता पाई जाती है। इसलिए अनुवाद में भाषिक प्रवाह और संरचनात्मक सीमाओं के कारण अल्पानुवाद (under translation) की संभावना बनी रहती है। उपर्युक्त सीमाओं और वैचारिक भिन्नता के बावजूद ये विद्वान अनुवाद में अर्थ के महत्व पर एकमत हैं। Dr. Johnson ने अर्थ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए अनुवादक पर बड़ी जिम्मेदारी डाली है - यथा - "Words are not undependent entities, they have associations and connotations. From among the many possible symbols, the translator will have to choose an appropriate symbol for communicating the meaning."
इस प्रकार अनुवाद में अर्थ पर विशेष बल दिए जाने के कारण इन विद्वानों के मत को अर्थ संप्रेषण का नाम दिया गया है।
(2) व्याख्या का सिद्धांत (Translation as interpretation)
कुछ विद्वानों का मत है कि अनुवाद वास्तव में एक व्याख्या है। राजेटी के अनुसार A translation is perhaps the most direct form of commentary अर्थात् अनुवाद संभवत: टिप्पणी का सर्वाधिक प्रत्यक्ष रूंप है। इस मत के समर्थक विद्वान शुद्ध साहित्य (Literature Power) के अनुवाद में व्याख्या की क्षमता और सामर्थ्य वाले विद्वान को ही काव्य का अनुवाद करने का अधिकारी मानते हैं। Roman Jakobson के अनुसार “Translation proper or interlingual translation is an interpretation of verbal signs by means of signs in some other language.” अर्थात् अनुवाद एक भाषा के शाब्दिक प्रतीकों की अन्य भाषा के शाब्दिक प्रतीकों द्वारा व्याख्या है। चूंकि शुद्ध साहित्य (काव्य, नाटक आदि) का रचनाकार महान उद्देश्य और अद्भुत कल्पनाशक्ति के साथ भाषिक प्रतीकों का प्रयोग करता है। अत: मूल रचना में प्रयुक्त प्रतीकों का दूसरी भाषा में अन्तरण उसकी कल्पनाशील व्याख्या के बिना संभव नहीं है। विधि, वाणिज्य, चिकित्सा आदि विषयों में तकनीकी शब्दों की व्याख्या (अभिप्रेत अर्थ को जानने के लिए) आवश्यक प्रतीत होती है। साहित्य के अनुवाद में अनुवादक से interpretative transfer करने की क्षमता की अपेक्षा होती है। अनुवादक का सर्जनशील होना इसकी अनिवार्य शर्त है तभी वह साहित्यिक पाठ (literary text) की संकल्पना को ठीक से समझ पाता है। यही कारण है कि एक ही पाठ के अलग-अलग अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवादों में भिन्नता पाई जाती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रत्येक अनुवादक मूल पाठ की व्याख्या अपने-अपने तरीके से करता है। संभवत: इसीलिए रूंसी लेखिका E.M. Mednikova ने जहाँ इस मत के समर्थन में यह कहा है --- translation is a way of commenting" वहीं James Holmes ने इसे --"all translation is an act of critical interpretation" की संज्ञा दी है। इन्हीं विद्वानों के मत के आधार पर अनुवाद में व्याख्या का सिद्धांत अस्तित्व में आया है।
लेकिन व्याख्या के सिद्धांत का सबसे बड़ा दोष यह है कि व्याख्या करते समय अनुवादक मूल से दूर जा सकता है जिससे मूल पाठ/भाषा के अर्थ, संदेश और उसका पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव के साथ न्याय नहीं हो पाता। Dr. Johnson ने कहा है ----"A translator is to be like his author, it is not his business to excel him-” अर्थात् अनुवादक को लेखक से आगे बढ़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए। व्याख्या से मूल का version (वर्जन) तो संभव है अनुवाद नहीं।
(3) समतुल्यता का सिद्धांत (Theory of equivalence)
अनुवाद में दो भाषाओं की संरचना की समतुल्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक J.C. Catford ने अपनी पुस्तक Linguistic Theory of translation में किया। उन्होंने अनुवाद को इस रूप में परिभाषित किया -- “Translation is the replacement of textual material in one language (SL) by equivalent textual material in another language (T.L.)” अर्थात् अनुवाद स्त्रोत भाषा की पाठ्य सामग्री का लक्ष्य भाषा की समतल्य पाठ्य सामग्री द्वारा प्रतिस्थापन है। यद्यपि Catford ने अर्थ को गौण नहीं माना किन्तु उन्होंने भाषा के रूप तत्वों (Structural forms) को अर्थ की अपेक्षा अधिक महत्व दिया। इससे अनुवाद की प्रक्रिया को समझने के लिए भाषा वैज्ञानिक आधार मिला और दो भाषाओं की संरचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन तथा व्यितरेकी विश्लेषण का मार्ग प्रशस्त हआ किन्तु अर्थ गौण हो गया। इसके विपरीत नाइडा का चिंतन अधिक व्यापक तथा गहन सिद्ध हुआ।
(अर्थ और शैली की समतुल्यता)-Equivalency of Meaning and Style
अनुवाद के क्षेत्र में नाइडा द्वारा प्रतिपादित अर्थ और शैली की समतुल्यता का सिद्धांत व्यापक स्तर और बड़े पैमाने पर स्वीकृत आधुनिक सिद्धांत है। नाइडा ने अनुवाद में अर्थ के महत्व के साथ-साथ रचनाकार की शैली को भी महत्वपूर्ण माना है। इस मत के अनुसार अनुवादक को दोहरी भूमिका (Twofold task) निभानी पड़ती है यथा -- (I) उसे मूल पाठ (original text) के अर्थ को ठीक-ठीक अन्तरित करना है तथा साथ ही (II) पाठक को मूल पाठ के संदेश की ताजगी (Flavour) भी सम्प्रेषित करनी है। Nida के शब्दों में ----“Translating consists in producing in the receptor language, the closest natural equivalent to the message of the source language, first in meaning and secondly in style."
नाइडा की इस परिभाषा में अनुवाद में पूर्ण सम्प्रेषण प्रक्रिया (total communication process) का चिंतन प्रकट हुआ है। नाइडा के चिंतन में यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभर कर आया है कि दो भाषाओं की संरचना, व्याकरण, शब्द संयोजन आदि एक समान नहीं हो सकती इसलिए किसी एक भाषा की सामग्री का दूसरी भाषा में पूरी तरह अनुवाद करना संभव नहीं है। इसीलिए नाइडा ने Natural closest equivalent की संकल्पना दी है। अनुवाद मूल के निकट तो हो सकता है परन्तु उसमें मूल की सभी बारीकियाँ नहीं आ सकती। उन्होंने इसकी व्याख्या करते हुए आगे कहा है --“There can be no absolute correspondence between two languages. Hence there can be no fully exact translation. The total impact of a translation may be reasonably close to the original, but there can be no identity of detail."
नाइडा ने अर्थ और शैली दोनों को महत्व देते हुए भी अर्थ की प्रधानता को स्वीकार किया है ---"As has already been indicated in the definition of translating, meaning must be given priority....Though style is secondary to content, it is nevertheless important."
डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार - "एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासंभव समान और सहज अभिव्यक्तिद्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है। " इस प्रकार डॉ. भोलानाथ तिवारी ने भी समान और सहज अभिव्यक्तिपर बल दिया है। समतुल्य अभिव्यक्ति के लिए निम्नलिखित प्रमुख आधार माने जा सकते हैं : --
(i) शब्द के स्तर पर समतुल्यता
सामान्यत: शब्द के स्थान पर समतुल्य शब्द कोश आदि की सहायता से सहज रूप से दिया जा सकता है, परंतु कभी-कभी इसमें कठिनाई भी आती है। जैसे -
Arranged marriage = पारंपरिक विवाह
Order, Order = शांत - शांत
(ii) पदबंध के स्तर समतुल्यता
पदबंध के स्तर पर समतुल्यता में कभी-कभी कठिनाई स्वाभाविक है, जैसे
Order, Order, honours are divided - शांत-शांत, हिसाब बराबर हआ (संसद में)।
Please put yourself in their place - कृपया ध्यान रखें ये भी प्राणी हैं (चिड़िया घर के मामले में)।
(iii) वाक्य के स्तर पर समतुल्यता
अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में होता है और भाषा की सहज मूलभूत इकाई, वाक्य है, शब्द नहीं। सामान्यत: किसी भी बात को वाक्यों के माध्यम से ही सोचा, बोला और समझा जाता है। ऐसे भी देखा गया कि कभी-कभी शब्द बहुत सहज होते हैं लेकिन अनुवाद सहज नहीं हो पाता है। जैसे -
Every system like a chain is as strong as its weakest, link and security is no exception.
अनुवाद - प्रत्येक व्यवस्था एक जंजीर की भांति होती है। वह उतनी ही मजबूत होती है जितनी मजबूत उसकी कड़िया और सुरक्षा व्यवस्था भी इसका अपवाद नहीं है।
यहां weakest के लिए भी मजबूत ही करना पड़ा अन्यथा परस्पर विरोधी वक्तव्य हो जाता।
(iv) प्रोक्ति के स्तर पर समतुल्यता
वाक्य से ऊपर की इकाई को "प्रोक्ति " कहा जाता है। जिस प्रकार शब्दों व्यविस्थत कड़ी "वाक्य " है उसी प्रकार वाक्यों की व्यविस्थत कड़ी वाक्योपरि इकाई यानि "प्रोक्ति " कहलाती है। यह एक पैराग्राफ के रूप में भी हो सकती है और एक पूरे प्रकरण के रूप में भी। इसलिए प्रोक्ति के संदेश को समतुल्यता के साथ दूसरी भाषा में प्रस्तुत करना प्रोक्तिपरक आधार पर समतुल्यता कहलाती है।
(v) प्रकार्य के स्तर पर समतुल्यता
"प्रकार्य " से मूल अभिप्राय है विशेष क्रिया स्थिति से है। उदाहरण के लिए स्रोत भाषा के किसी चुटकले का लक्ष्य भाषा में अनुवाद करना हो तो उसे अनूदित चुटकले का प्रकार्य भी पाठक को हंसाना ही होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो पाया तो स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रकार्य के स्तर पर कहीं कोई चूक हो गई है अर्थात् समतुल्य अभिव्यक्तिकी खोज में अनुवादक असफल रहा है। यही स्थिति नियम, विनियम के आशय या किसी की सराहना/भर्त्सना के मामले में भी हो सकती है। जैसे Stop ! के कई हिंदी पर्याय होने पर भी जब किसी को चुप करने के लिए Stop! कहा जाए तब तो उसका अनुवाद चुप ! ही होगा। समतुल्यता के आधार
नाइडा ने भाषिक आ व्यिक्तभयों में पाई जाने वाली विषमताओं और समानताओं, विषयगत अपेक्षाओं और शैलीगत आधारों के मद्देनजर दो प्रकार की समतुल्यता बताई है।
(1) औपचारिक समतुल्यता (Formal Equivalency)
औपचारिक समतुल्यता की उपयोगिता ज्ञान प्रधान साहित्य (Literature of knowledge) में अधिक है। इस समतुल्यता के निर्धारण में अनुवादक स्त्रोत भाषा के भाषिक तत्वों (व्याकरण, पद, क्रिया, विशेषण, सर्वनाम तथा संज्ञा आदि) का लक्ष्य भाषा के भाषिक तत्वों के साथ प्रतिस्थापन करता है। वाक्य विन्यास में परिवर्तन नहीं करता। यहाँ तक शब्दों की संख्या, छंद आदि को ज्यों का त्यों रखने का प्रयास किया जाता है। सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भो में लिप्यंतरण करके पाद टिप्पणियों (Foot notes) दी जाती हैं।
(II) गतिशील (प्रवाहमय) समतुल्यता ( Dynamic Equivalence)
गतिशील समतुल्यता में अनुवादक स्त्रोत भाषा से अर्थग्रहण करने के पश्चात् इस बात पर बल देता है कि स्त्रोत भाषा के कथ्य को लक्ष्य भाषा में कैसे कहा जाए ? ताकि मूल रचना के कथ्य के अर्थ और शैली को लक्ष्य में भाषायी प्रवाह, प्रभाव और ताजगी के साथ सम्प्रेषित किया जा सके। इस प्रकार गतिशील अनुवाद "समतुल्य प्रभाव के सिद्धांत " (Principle of equivalent effect) पर आधारित है। गतिशील अनुवाद अधिक सहज, पठनीय और समतुलय प्रभावकारी होता है। पाठक को यह आभास नहीं होता कि वह मूल रचना के बजाय अनूदित रचना पढ़ रहा है।
नाइडा नं इस सहजता को इस प्रकार कहा है ----By “Natural" we mean that the equivalent forms shall not be “foreign" either in form (except, of course for such inevitable matters as proper names) or meaning. That is to say a good translation should not reveal its nonnative source".
(4) पुनर्कोडिकरण का सिद्धांत (Translation as Recodification)
इस सिद्धांत का प्रतिपादन अमरीकी भाषा वैज्ञानिक विलियम फ्रावले (William Frawley) ने किया है। उनके अनुसार अनुवाद पुन:कोडीकरण की प्रक्रिया है। (Translation means recodification)। इसमें दो कोड होते हैं -- (I) Matrix code अर्थात् स्त्रोत भाषा का पाठ और (II) Target code अर्थात् लक्ष्य भाषा का कोड/पाठ की छाया। उनके अनुसार मैट्रिक्स कोड सूचना उपलब्ध कराता है किन्तु मैट्रिक्स कोड की सूचना को उठाकर लक्ष्य कोड में रख देना मात्र अनुवाद नहीं है। Matrix code अनुवादक को भाषिक और विषयगत सूचनाएं उपलब्ध कराता है अनुवादक उनका मिलान (Comparision) लक्ष्य कोड में उपलब्ध भाषिक और विषयगत सूचनाओं से करता है तथा लक्ष्य भाषा के पैरामीटर में जितनी सूचनाएं मेल खाती हैं उस सीमा तक वह उनका अन्तरण कर देता है।
फ्राउले का मानना है कि दो भाषाओं की व्याकरणिक संरचनाएं भिन्न होती हैं शब्दों के सांदर्भिक अर्थ (refrential meaning) तथा उनकी संकल्पनाएं (concepts) भिन्न होती हैं इसलिए Matrix code की सभी सूचनाएं Target code में अंतरित नहीं की सकती। इसलिए अनुवाद में समतुल्यता (identity) अंशगत (Partly) ही संभव है। फ्राउले के अनुसार अनुवादक को मैट्रिक्स कोड में उपलब्ध सूचनाओं को लक्ष्य कोड की सीमाओं में तालमेल बैठाकर Recodification करना चाहिए जो कि अनदित नया कोड (New code) होगा।
फ्राउले की उपर्युक्त अवधारणा से अनुवाद की महत्वपूर्ण स्थापना सामने आई है कि अनुवाद मूल सामग्री के कथ्य का लक्ष्य भाषा में पुनर्गठन (Restructuring) नहीं है। बल्कि वह पुनर्सजन (Re-creation)। अनुवादक नया कोड (New Code) सृजित करते समय लक्ष्य भाषा की प्रकृति एवं अभिव्यक्तिकी स्वाभाविक (flow) को बनाए रखने का प्रयास करता है। यह यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि इसमें मौलिकता का स्पर्श है।
(4) सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भो के एकीकरण का सिद्धांत
In fact one does not translates language, one translates cultures. That it is possible to translate one language into another at all, attests to the universalities in culture, to common vicissitudes of human life, and to the like capabilities of men throughout the earth as well as to the inherent nature of language and the character of the communication process itself, and a cynic might add to the arrogance of the translator also. - Translator across cultures:Golden Toury
(वास्तव में जब हम एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते हैं तब भाषा का तो केवल परिवर्तन करते हैं, अनुवाद हम मूल भाषा में संचित एवं निहित उसके बोलने वालों की संस्कृति का करते है। भाषा तो केवल संवाहक होती है उन सब घटकों की जिनके सम्मिश्रण का नाम है संस्कृति, अनुवादक केवल भाषा के व्यवधान को हटाकर दो भिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में रहने वाले व्यिक्तयों के बीच संपर्क सेतु बन उन्हें आमने-सामने लाकर खड़ा कर देता है। साहित्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। शब्द के द्वारा साहित्यकार एक समानान्तर संसार रचता है)
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि मात्र भाषा परिवर्तन करना अनुवाद नहीं है। अनुवादक को स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भो का ज्ञान होना चाहिए और उनमें ताल-मेल बैठाकर भाषा के आधार पर उनकी पारस्परिक दूरी को कम करने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरणार्थ -
(1) वे मेरे पिताजी हैं, का अनुवाद they are my father न होकर He is my father ही होगा।
(2) यज्ञोपवीत का जनेऊ संस्कार का अनुवाद Thread-ceremony नहीं होगा।
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