कार्यालयी अनुवाद - आज सरकारी कार्यालयों में जो भी हिंदी का प्रयोग देखने को मिलता है, वह प्राय: अनुवाद के माध्यम से ही हो रहा है। इसलिए आज राजभाषा मात्
कार्यालयी अनुवाद पर टिप्पणी
कार्यालयी अनुवाद का सरलीकरण
आज सरकारी कार्यालयों में जो भी हिंदी का प्रयोग देखने को मिलता है, वह प्राय: अनुवाद के माध्यम से ही हो रहा है। इसलिए आज राजभाषा मात्र अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है। यह मूल रूप से प्रयोग की भाषा नहीं बन पाई। दूसरे, राजभाषा अधिनियम-1963 के प्रावधानों के चलते केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में द्विभाषिक स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसमें अनुवाद की व्यवस्था अनिवार्य है।
अनुवाद की इस भाषा के कारण कई बार यह सुनने को मिलता है कि हिंदी परिपत्रों, फार्मों और इश्तिहारों की भाषा समझ में नहीं आती और अंग्रेजी पाठ को देखना पड़ता है। फिर, आदेश और परिपत्र किसके लिए है ? इससे ऐसे परिपत्रों को हिंदी में जारी करने का उददेश्य ही समाप्त हो जाता है, जबकि होना यह चाहिए कि जिसे अंग्रेजी न समझ आए, वह इसे हिंदी में पढ़ ले। इसी में हिंदी की सार्थकता है। हिंदी की लोकप्रियता गिरने का बहुत कुछ कारण अनुवाद का ऐसा स्तर ही है। इसे हम आज के संदर्भ में कहें तो हम हिंदी का सही मार्केटिंग नहीं कर पा रहे हैं। फिर ऐसी हिंदी को कौन अपनाना चाहेगा। एक दैनिक पत्र ने किसी सरकारी कार्यालय में प्रयुक्त ड्राविंग लाइसेंस के एक फार्म का नमूना प्रस्तुत किया है। देखिए
क्या आवेदक आपके सर्वोत्तम निर्णय के अनुसार अपस्मार भ्रमि या किसी ऐसे मानसिक रोग के अध्यधीन है, जिससे उसकी चालन कार्य क्षमता पर प्रभाव पड़ने की संभावना है ? यह प्रश्न एक डॉक्टर के लिए है, जिसे पढ़कर डॉक्टर को ही मिर्गी आ जाए। आवेदक से संबंधित भाषा का नमूना देखिए- क्या आप किसी चालन अनुज्ञप्ति या शिक्षार्थी अनुज्ञप्ति धारण निरहित हए हैं ? मैंने रुपये के विहित शुल्क का संदाय कर दिया है। यह एक बानगी है। मोटर ड्राइवर, जो अधिकतर कम पढ़े-लिखे ही होते हैं, इनका क्या उत्तर देंगे ? जो पढ़े-लिखे और शिक्षित वर्ग के लोग हैं, क्या वे भी इस भाषा को समझ पाएंगे ? उन्हें तो हारकर अंग्रेजी में ही पढ़ना पड़ेगा। प्रश्न उठता है कि आखिर यह भाषा किसके लिए लिखी जा रही है ? क्या इस भाषा से ही शासन और जनता के बीच दूरी कम हो सकेगी ? क्या यहां "अनुज्ञप्ति ", "निरहित ", "विहित ", "संदाय ", "अध्यधीन ", "अपस्मार ", "सर्वोत्तम निर्णय " जैसे कलिष्ठ शब्दों से नहीं बचा जा सकता था ?
सरल भाषा क्या है ?
सामान्यत: यह कहा जाता है कि जिस भाषा में उर्दू-फारसी के शब्द अधिक हों, वहीं भाषा सरल है। किंतु यह बात सही नहीं है। दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के लोगों के लिए संस्कृत के शब्द उर्दू शब्दों की अपेक्षा अधिक सरल हैं, जबकि पश्चिम भारत, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए उर्द-फारसी बहत हिंदी अधिक सरल लगती है। इस प्रकार सरलता एक सापेक्षिक शब्द है। आवश्यकता इस बात की है कि अनुवाद की भाषा कृत्रिम और बोझिल न हो। इसे सप्रयास कलिष्ट और दुरुह न बनाई जाए। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने ठीक ही कहा है कि भाषा न कभी कठिन होती है, न सरल, वह सहज या असहज होती है। जो शब्द जबान पर चढ़ चुके हैं, चाहे वे किसी भी भाषा के हों, उन्हें रहने दिया जाए। शुदधिकरण की भावना भाषा के निकास को रोकती है। भाषा के संबंध में कबीर ने ठीक ही कहा है- भाषा बहता नीर। इसके अजास् प्रवाह के लिए जहां से भी शब्द आएं उन्हे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने की जितनी अधिक क्षमता होगी वह भाषा उतनी ही अधिक समदव और सशक्त होगी। अंग्रेजी की व्यापकता और लोकप्रियता का भी यही कारण है। आज के कम्पयूटर और सूचना प्रोद्योगिकी के युग में नए शब्द अंतरराष्ट्रीय धरोहर है। संसार की सभी भाषाएं इन्हें बेझिझक अपना रही हैं।
जहां तक कार्यालयी अनुवाद के सरलीकरण का प्रश्न है, इसके मार्ग में कुछ बाधाएं हो सकती हैं, जिनपर पार पाया जा सकता है। यदि हम अपने देश की राजभाषा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करें तो हम देखेंगे कि यहां विदेशी आक्रमण के कारण विदेशी भाषाएं आईं। सिकंदर लोधी के शासन में भी एक ऐसा ही फरमान जारी हुआ और फारसी को राजभाषा बना दिया गया। अकबर के शासन में भी एक ऐसा ही फरमान फारसी के लिए पुन: जारी हुआ। अंग्रेजों के आने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेजी को राजभाषा बना दिया जो स्वतंत्रता के बाद भी किसी न किसी प्रकार आज भी प्रचलित ही नहीं, अधिक प्रचलित भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन विदेशी भाषाओं के कारण हिंदी में अनेक शब्द घुल-मिल गए हैं। कार्यालयी अनुवाद करते समय हमें प्रचलित शब्दों के साथ अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। जैसे हमने फाइल, इंजीनियर, रेलवे, रेडियो, कंप्यूटर जैसे शब्दों को अपना लिया है, इनके स्थान पर नए शब्द लाने की क्या आवश्यकता है ? संविधान के अनुच्छेद 351 का भी यही उद्देश्य है।
कार्यालयी अनुवाद की समस्या
1. कार्यालयी अनुवाद के सामने सबसे बड़ी समस्या जैसा कि उपर एक दृष्टांत से स्पष्ट किया गया है "शाब्दिक अनुवाद " है। इससे बचना होगा। अनुवाद यदि सांविधिक नहीं है तो इसके लिए सरल और प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाए। जैसा कि अपस्मार के लिए मिर्गी, संदाय के लिए भुगतान, अनुज्ञप्ति के लिए लाइसेंस शब्द लिखने में कोई हानि नहीं थी।
2. कार्यालयी अनुवाद के कठिन होने का दूसरा कारण है- अंग्रेजी भाषा का रूढिवादी ब्रिटिशकालीन प्रारूप, जो आज तक प्रचलित है। कार्यालयों में प्रयुक्त संहिताओं, मैनुअलों, अधिसूचनाओं, नियमों तथा विनियमों के हिंदी अनुवाद पर भी उस बीते युग की अंग्रेजी की छाप है, जो अब इंग्लैंड या अमेरिका में भी प्रयुक्त नहीं होती। किंतु हमारे देश में लार्ड क्लाइव से लेकर आज तक उसी युग की अंग्रेजी और भाषा शैली का प्रयोग हो रहा है, जिसमें अनेक अनावश्यक शब्दों का बोझ भाषा को जटिल बना देता है। उसका हिंदी अनुवाद भी हिंदी की कलिष्टता को बढ़ाने में सहायक होता है। मुझे याद है जब श्री रमा प्रसन्न नायक, राजभाषा के सचिव थे तो उन्होंने हिंदी भाषा की सरलता पर जोर देते हुए अंग्रेजी प्रारूपों में सुधार की आवश्यकताओं पर बल दिया था। किंतु यह कार्य कौन करे ? अंग्रेजी की पत्थर की लकीरें जो सैकड़ों वर्षों से खीची आ रही हैं, उनमें सुधार कौन करे ? हां, ब्रिटिश एजूकेशन सेक्रेटरी ने 1946 में भारत सरकार के कार्यालयों में चल रही अंग्रेजी को विक्टोरिया युग की भाषा शैली बताते हुए सरकारी प्रारूपो को पुराने ढंग को पूर्णत: संशोधित करने की आवश्यकता बताई थी।
अंग्रेजी में अनेक अनावश्यक वाक्यांशों की कमी नहीं है, जिनका अनुवाद करने से व्यर्थ में हिंदी भी क्लिष्ट और अटपटी हो जाती है। अत: अनवाद करते समय ऐसे शब्दों को छोड़ देना चाहिए और हिंदी की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार अनुवाद करना चाहिए।
कार्यालयीन भाषा की कलिष्टता का रोना भारत में ही नहीं, इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में भी है। कुछ वर्ष पूर्व इंग्लैंड की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती मारग्रेट थेचर ने अपने सरकारी कर्मचारियों को सरल भाषा प्रयोग करने के संबंध में जो निर्देश जारी किए थे, उन्हें यहां उद्धृत करना अप्रासागिक न होगा।
आपकी बात संक्षिप्त, बोधगम्य और थोड़े शब्दों में होनी चाहिए, भारी-भरकम शब्दों, वाक्यों और अन्तहीन पैराग्राफों से बचना चाहिए। संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग करें, लंबे-लंबे शब्दों से शैली में नीरसता आती है और पाठक ऊँघने लगते हैं। आप Attempt न लिखकर Try लिखें, Concerning न लिखकर About और Additional के बजाय More क्यों न लिखें। वाक्य संक्षिप्त और 15-20 शब्दों से अधिक न हो। इतने में भी आप नम्रता के साथ-साथ औपचारिक रूप में दमदार बात कह सकते हैं। अंत में उसने अपने नौकरशाही तंत्र को चेतावनी देते हए कहा था
"मुझे मजबूरन यह कहना पड़ रहा है कि यदि आप इसके बाद भी कृत्रिम और स्कूली बच्चों जैसी भाषा लिखेंगे और भाषा का सत्यानाश करते रहेंगे तो आपको मूर्ख नहीं तो और क्या कहा जाएगा"
3. कार्यालयी अनुवाद के सामने एक बड़ी कठिनाई तकनीकी और प्रशासनिक शब्दों में एकरूपता का अभाव भी है। इस ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए। आज हिंदी केंद्रीय सरकार के अतिरिक्त 10 राज्यों की भी राजभाषा है। किंतु इनके अनेक प्रशासनिक और तकनीकी शब्दों में भी भिन्नता है। जैसे फाइल के लिए केंद्र ने फाइल ही रखा है किंतु राज्यों में कहीं इसे मिसिल, कहीं पत्रावली, कहीं संचिका कहा जाता है। Compulsory शब्द के लिए केंद्र ने अनिवार्य, बिहार ने बाध्यात्मक, मध्य प्रदेश ने आवश्यक अपनाया है। इसी प्रकार Candidate के लिए उम्मीदवार, कहीं प्रत्याशी, कहीं अभ्यर्थी, परीक्षार्थी और कहीं पदाभिलाषी जैसे शब्दों का प्रयोग होता है।
प्रसन्नता का विषय है कि "मातृभाषा विकास परिषद " की जनहित याचिका पर 6 सितंबर, 2004 को उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देते हुए राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्र सहित सभी सरकारी निकायों को तकनीकी तथा वैज्ञानिक शब्दावली आयोग द्वारा तैयार की तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करने के निदेश दिए हैं। इससे सभी सरकारी कार्यालयों में भी समान शब्दावली प्रयोग में भी सहायता मिलेगी और हिंदी अनुवाद में एकरूपता आएगी।
अंत में मैं कार्यालयी अनुवाद के संबंध में यही कहना चाहूँगा कि यदि अनुवाद सांविधिक प्रकृति का नहीं है तो उसे सरल और प्रचलित भाषा में किया जाए। अनुवादक को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भी भाषा का सजक है। उसकी लिखी भाषा कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसका भी प्रयोग होगा। अनुवादक को स्रोत भाषा के भावों को अपनी भाषा में व्यक्त करना है। भाषा में स्वाभाविकता बनाए रखना अनुवादक का पहला कर्तव्य है, ताकि वह ऐसी न लगे कि यह कोई अनुवाद है। हिंदी में प्रयायों की कमी नहीं है। संदर्भ को देखते हुए सरल और उपयुक्त शब्दों का यन किया जाए। अनवाद में पांडित्य प्रदर्शन के लिए कलिष्ठ और अप्रचलित शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। अनुवाद के संबंध में अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। हमें उनसे लाभ उठाना चाहिए -
अनुवाद के संबंध में पास्तरनाक ने ओलगा को पत्र में लिखा था -
"मूल विचार को नंगा करके देखो। फिर उसे नए शब्दों के वस्त्र पहना दो। कम से कम शब्दों में पूरी बात कहने की सामर्थ्य होनी चाहिए। अनुवाद शब्द का नहीं, विचार का होता है। कमाल तब है कि शाब्दिक अनुवाद भी हो और कहने के ढंग में निखार भी हो। बड़ी बारीक रेखा होती है, दोनों के बीच, जो जितना संभाल ले उतना ही श्रेष्ठ अनुवादक माना जाता है।"
अनुवादक के लिए सबसे बड़ी बात यह है कि उसे इस बात पर ध्यान रखना होगा कि यह अनुवाद किसके लिए है, उसी के उपयुक्त भाषा का उपयोग करना चाहिए। अनुवाद के बाद अनुवादक को स्वयं अपने अनुवाद को तसल्ली के साथ पढ़ना चाहिए और भाषा में जहां प्रवाह नहीं है, उसे लाने का प्रयत्न करना चाहिए और जो शब्द निरर्थक और अटपटे लगें, उन्हें बदल देना चाहिए। अंग्रेजी के वाक्य बहुदा मिश्रित प्रकृति के होते हैं और कई उप-वाक्यों को मिलाकर एक वाक्य बनता है। हिंदी में यथावश्यक ऐसे वाक्य को तोड़ देना चाहिए। इससे जटिलता कम हो जाती है, अनुवाद में सबसे बड़ी कठिनाई शब्दों की न होकर वाक्यांशों और मुहावरों के अनुवाद की होती है। क्योंकि इनका अर्थ अलग-अलग शब्दों के अर्थ से नहीं समझा जा सकता। अनुवादक को इस दिशा में पूर्णत: सचेत रहना चाहिए। अंग्रेजी में But for, Save as provided जैसे अनेक ऐसे वाक्यांश या शब्द समूह हैं, जिनके अर्थ समुच्य रूप में ही निकलते हैं, पृथकपृथक शब्दों के रूप में नहीं। जैसे But का अर्थ है किंतु और For का अर्थ है "के लिए"। किंतु मिलने पर इनका अर्थ बदल जाता है जैसे I would have been ruined but for your help. अर्थात् यदि आप मेरी सहायता न करते तो मैं बर्बाद हो जाता। इसी प्रकार यहां Save का अर्थ बचाना नहीं बल्कि छोड़कर है।
इस प्रकार अनुवादक का दायित्व बड़ा महत्वपूर्ण और मल लेखक से किसी भी प्रकार कम नहीं होता।
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