हिंदू विवाह की आवश्यक शर्तें - (Hindu Vivah ki Aavashyak Sharten) हिंदू को अपने वर्ण में ही विवाह करना चाहिए, समगोत्री अर्थात अपने ही गोत्र में विवाह
हिंदू विवाह की आवश्यक शर्तें - (Hindu Vivah ki Aavashyak Sharten)
- हिंदू को अपने वर्ण में ही विवाह करना चाहिए
- समगोत्री अर्थात अपने ही गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए
हिंदू विवाह से सम्बन्धित निषेध निम्नलिखित चार प्रकार के हैं -
1. अंतर्विवाह (Endogamy) - धार्मिक ग्रन्थों में यह बताया गया है कि हिन्दू को अपने वर्ण में ही विवाह करना चाहिए, किन्तु व्यावहारिक रूप में प्रत्येक वर्ण अनेक जातियों और उपजातियों में विभक्त हैं और इन उपजातियों के भी अनेकों भाग हैं। ये सभी भाग एक-एक अन्तर्विवाही समूह हैं। इस प्रकार इसकी सीमा संकुचित है। प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों का विवाह नगरों में हो जाता है, किन्तु नगरों की लड़कियों का विवाह ग्रामों में नहीं होता है। इस स्थिति में ग्रामवासी अपना एक घेरा बना लेते हैं जोकि 50 से 300 परिवारों का होता है और इसी घेरे के अन्दर विवाह करते हैं।
2. बहिर्विवाह (Exogamy) - इनके संबंध में निम्नलिखित विवेचना के आधार पर एक प्राथमिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है -
(i) गोत्र-बहिर्विवाह (Gotra exogamy) - गोत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में मिलता है। इसका आशय है - गौशाला, गाय का समूह, पहाड़ व किला आदि। वैदिक काल में सगोत्र-विवाह पर प्रतिबन्ध नहीं था । गोत्र शब्दों का अर्थ एक घेरे में रहने वाले व्यक्तियों से या एक विशेष समूह के व्यक्तियों से सम्बन्धित है। इस प्रकार एक परिवार अर्थात घेरे में रहने वाले व्यक्तियों के आपस में वैवाहिक सम्बन्ध नहीं हो सकते थे।
(ii) प्रवर-बहिर्विवाह (Pravara exogamy) - वैदिक इंडेक्स के अनुसार प्रवर का अर्थ आव्हान करना होता है। इंडो आर्यन लोगों में अग्नि की पूजा या हवन का प्रचलन था। हवन करते समय पुरोहित अपने प्रमुख पूर्वजों का नाम लेते थे इस प्रकार इसके अन्तर्गत एक व्यक्ति के उन पूर्वजों को शामिल किया जाता है जो अग्नि का आह्वान करते हैं। इस सम्बन्ध में एक प्रमुख विद्वान ने कहा है कि - "धीरे-धीरे इनके साथ सामाजिक धारणा भी जुड़ गई और इन ऋषि पूर्वजों का महत्व अनेक घरेलू और सामाजिक संस्कारों में भी हो गया जिसमें विवाह-संस्कार प्रमुख है।
(iii) सपिण्ड बहिर्विवाह (Sapinda-exogamy) - सपिण्ड बहिर्विवाह पर भी निषेध पाया जाता है। मनु के अनुसार सपिण्ड विवाह के निषेध माता पक्ष की लड़की से विवाह न करने से सम्बन्ध रखता है। अर्थात उन्होंने मौसी, भाभी, चाची एवं बुआ की लड़कियों से विवाह करने को गलत बताया है। इस सम्बन्ध में एक प्रमुख विद्वान ने कहा है कि - एक ही पिण्ड या शरीर रखने वालों में एक ही शरीर के अवयव रखने के कारण सपिण्डता का सम्बन्ध होता है।
3. अनुलोम व प्रतिलोम विवाह (Anuloma and Pratiloma Marriage) - अनुलोम व प्रतिलोम विवाह को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है -
(i) अनुलोम विवाह (Hypergamy) - जब एक उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी लड़की से किया जाय जिसका वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं वंश लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम या कुलीन विवाह कहते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के विवाह में लड़का उच्च सामाजिक समूह का होता है और लड़की निम्न सामाजिक समूह की। उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण लड़के का विवाह एक क्षत्रिय या वैश्य लड़की से होता है तो इसे हम अनुलोम विवाह कहेंगे। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक अनुलोम विवाहों का प्रचलन रहा है।
(ii) प्रतिलोम विवाह (Hypogamy) - अनुलोम विवाह का विपरीत रूप प्रतिलोम विवाह है। इस प्रकार के विवाह में लड़की उच्च वर्ण, जाति, उप-जाति, कुल या वंश की होती है और लड़का निम्न वर्ण, जाति, उप-जाति, कुल या वंश का इसे परिभाषित करते हुए कपाड़िया ने कहा है कि "एक निम्न वर्ण के व्यक्ति का उच्च वर्ण की स्त्री के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता था" उदाहरण के लिए, यदि एक ब्राह्मण लड़की का विवाह किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र लड़के से होता है तो ऐसे विवाह को हम प्रतिलोम विवाह कहेंगे।
अनुलोम और प्रतिलोम विवाह ऊर्ध्व विवाह से सम्बन्धित है और हिन्दू समाज की यह निजी विशेषता है। प्राचीनकाल से सवर्णों में अनुलोम विवाह की मान्यता थी। नवीं व दसवीं सदी तक इनका काफी प्रचलन रहा, धीरे-धीरे इनकी संख्या कम होने लगी। पिछली कुछ शताब्दियों में या तो इस प्रकार के विवाह हुए नहीं और यदि हुए भी तो उन्हें मान्यता नहीं मिली। मनुस्मृति में अनुलोम विवाह के संबंध में यह कहा गया है कि ब्राह्मण अपने से निम्न वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) की कन्या से विवाह कर सकता है।
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