भारत में क्षेत्रवाद पर निबंध - क्षेत्रवाद का तात्पर्य एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों की उस भावना से है जिसके अन्तर्गत वे अपनी एक विशेष भाषा
भारत में क्षेत्रवाद पर निबंध - Bharat mein Kshetra wad par Nibandh
- भारत में क्षेत्रवाद की समस्या पर चर्चा करें
- भारत में क्षेत्रवाद पर एक समाजशास्त्रीय निबंध लिखिये।
भारत में क्षेत्रवाद पर निबंध
भारत में क्षेत्रवाद पर एक समाजशास्त्रीय निबंध - भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की एक प्रमुख समस्या क्षेत्रवाद की है जिसने स्वतन्त्रता के बाद अत्यधिक विषम रूप धारण करके बड़े-बड़े संघर्षों तथा हिंसक आन्दोलनों को जन्म दिया है। क्षेत्रवाद में संघर्ष, विरोध तथा घृणा का आधार एक विशेष क्षेत्र के प्रति वहाँ के निवासियों की अन्ध-भक्ति का होना है। यही वह दशा है जिसे राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक बड़ा खतरा माना जाता है।
क्षेत्रवाद का अर्थ - विस्तृत अर्थों में क्षेत्रवाद का तात्पर्य एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों की उस भावना से है जिसके अन्तर्गत वे अपनी एक विशेष भाषा, सामान्य संस्कृति, इतिहास और व्यवहार प्रतिमानों के आधार पर उस क्षेत्र से विशेष अपनत्व महसूस करते हैं तथा क्षेत्रीय आधार पर स्व समूह के रूप में देखते हैं। इस अर्थ में क्षेत्रवाद की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए लुण्डबर्ग का कथन है कि "क्षेत्रवाद'' का तात्पर्य सामाजिक व्यवहारों के किसी भी ऐसे अध्ययन से है। जिसके अन्तर्गत एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र तथा विशेष प्रकार के व्यवहार-प्रतिमानों के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्धों पर अधिक बल दिया जाता है।
व्यक्ति जहाँ जन्म लेता है, जहाँ अपना जीवन व्यतीत करता है, उस स्थान के प्रति उसका लगाव होना स्वाभाविक होता है वह अपने क्षेत्र-विशेष को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त एवं उन्नत बनाने के लिए प्रयासरत रहता है, लेकिन जब यह भावना और लगाव अपने ही क्षेत्र-विशेष तक सिमटकर अत्यन्त संकीर्ण रूप धारण कर लेती है तब 'क्षेत्रवाद' की समस्या जन्म लेती है।
केवल अपने ही क्षेत्र-विशेष में सुविधाओं की इच्छा के कारण यह अवधारणा नकारात्मक बन जाती है। इससे क्षेत्र बनाम राष्ट्र की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है। क्षेत्रीयता, राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है, क्योंकि क्षेत्रवाद से ग्रस्त निवासी अपने क्षेत्र को अन्यों से विशिष्ट मानते हुए उचित-अनुचित तरीके से विकास की माँग करते हैं एवं अपने क्षेत्र में आने व दूर से राज्यों के नागरिकों के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रखते हैं।
भारत में क्षेत्रवाद की दुर्भावना पनपने के कई कारण हैं यहाँ भौगोलिक विभिन्नता, आर्थिक असन्तुलन, भाषागत विभिन्नता व राज्यों के आकार में असमानता के कारण क्षेत्रवाद की समस्या अधिक तीव्र हुई है। इससे पृथकतावादी को प्रोत्साहन मिला है व भूमि-पुत्र की अवधारणा का विकास हुआ है।
भारत के कुछ राज्यों जैसे - महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक आदि में तीव्र गति से विकास हुआ है, जबकि बिहार, उत्तर-प्रदेश, ओडिशा जैसे राज्यों में विकास दर बहुत ही धीमी है। दक्षिण पश्चिम के राज्यों पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया हैं, जबकि उत्तर-पूर्वी राज्यों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। विकास में असन्तुलन और प्राकतिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण राज्यों में मतभेद होते रहते हैं, जिनसे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है। इन सबके अतिरिक्त, भारत में जातिवाद के कारण भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है। हरियाणा और पंजाब इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है।
भारत में क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन देने में राजनीति भी एक प्रमुख कारक है। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसी कुछ राजनीतिक पार्टियों के सदस्य वोट की राजनीति और स्वार्थी प्रवृत्ति के चलते धर्म, जाति, वर्ग, क्षेत्र, सम्प्रदाय आदि का सहारा लेकर नफरत की राजनीति करते हैं और विघटनकारी रास्तों के द्वारा उन्माद फैलाकर वोट बैंक बनाने की कोशिश करते हैं।
यदि राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो भारत में क्षेत्रवाद की समस्या को बल राजनीतिज्ञों द्वारा ही मिला है। वर्ष 1968 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग व नक्सलवादी क्षेत्रों में हथियार रखने पर प्रतिबन्ध लगा देने को राज्य सरकार द्वारा केन्द्र का हस्तक्षेप व जनता पार्टी के शासनकाल में गौहत्या प्रतिबन्ध के विषय पर केन्द्र और तमिलनाडू, केरल व पश्चिम बंगाल की सरकारों के बीच विवाद उत्पन्न होना उग्र क्षेत्रवाद के उदाहरण हैं।
भारत की संघात्मक व्यवस्था में प्रशासनिक एकरूपता पर बल दिया गया है, जिसका उद्देश्य 'विविधता में एकता' की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय विरासत को बनाए रखना है, किन्तु दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता के बाद से ही देश के कई भागों से भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि के आधार पर नए राज्यों की मांग उठती रही है और नए राज्य न सिर्फ बनते रहे हैं, बल्कि समय-समय पर और नए राज्यों की मांग भी जोर पकड़ती रही है।
वर्ष 1953 में आन्ध्र प्रदेश का गठन भाषा के आधार पर किया गया था। उसके बाद वर्ष 2000 तक भारत में राज्यों की कुल संख्या 28 हो गई। 2 जून, 2014 को आन्ध्र प्रदेश के पुनः विघटन होने पर एक और नया राज्य तेलंगाना अस्तित्व में आ चुका है, जिससे कुल राज्यों की संख्या बढ़कर 29 हो गई
अधिक अधिकार एवं सुविधाओं के नाम पर अब तक कई राज्यों का विभाजन या पुनर्गठन हो चुका है। जैसे - उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड, बिहार से झारखण्ड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ इत्यादि । हाल ही में तेलंगाना को अलग राज्य के रूप में स्वीकृति मिलने से पश्चिम बंगाल से गोरखालैण्ड, उत्तर प्रदेश से पूर्वांचल, बिहार से मिथिलांचल, असोम से बोडोलैण्ड इत्यादि क्षेत्रों को भी राज्यों के रूप में अलग करने की माँगें पुनः जोर पकड़ती जा रही है।
गौरतलब है कि बार-बार नए राज्यों के गठन से देश की एकरूपता एवं अखण्डता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और क्षेत्रीयता प्रबल होती जाती हैं। आवश्यकता पड़ने पर प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्य में जिलों की संख्या बढ़ाना विकास की दृष्टि से ज्यादा फायदेमंद सिद्ध होगा। इससे विकास को गति मिलेगी।
ज्यादातर स्थितियों में देखा जाता है कि नेतागण अपना उल्लू सीधा करने के लिए या राजनीतिक लाभ के लिए ही जनता को अलग राज्य की माँग हेतु उकसाते हैं। प्रायः नए राज्यों के गठन की माँग के वक्त विकास का हवाला दिया जाता है, किन्तु राज्यों के पुनर्गठन से यदि विकास को गति मिलती, तो इसका उदाहरण हमें अब तक कई बार मिल चुका होता।
अब तक एक भी ऐसा नया राज्य सामने नहीं आया है, जिसकी विकास दर में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई हो। अतः यदि हमें देश का विकास करना है और इसकी अखण्डता को अक्षुण्ण बनाए रखना है, तो हमें नए राज्यों का नहीं, बल्कि विकास की नीतियों का पुनर्गठन करना होगा।
इस तरह यह स्पष्ट है कि भाषा, क्षेत्र या विकास का हवाला देकर नए राज्यों की माँग करना और क्षेत्रीयता की समस्या को जन्म देना सर्वथा अनुचित है। क्षेत्रीयता हमारे देश की संघीय संरचना पर तीखा प्रहार करके हमारी राष्ट्रीय एकता को क्षीण करता है। क्षेत्रीयता एवं प्रान्तीयता की भावना जब-जब राष्ट्रीय हितों से संघर्ष करती है, तब-तब देश की एकता एवं अखण्डता के लिए खतरा उत्पन्न होता है।
पिछले एक दशक के दौरान इन्हीं एबसे एशिया के अनेक देशों में विखण्डन हो चुका है। केन्द्र में गठबन्धन सरकारों के अस्तित्व के दौरान ही, क्षेत्रीयता की माँग जोर पकड़ती है। क्षेत्रीय दल केन्द्र से क्षेत्रीय मुददों पर समझौता करके गठबन्धन सरकार का समर्थन करते हैं। अनेक बार ऐसा हुआ है कि केन्द्र सरकार, जिसमें किसी एक दल का प्रभाव होता है, राज्य के विरोधी दलों की सरकार के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाती है।
स्वतन्त्रता के साथ ही हमने एक विभाजन का दर्द झेला है, अब हम पुनः किसी विभाजन को बर्दाशत नहीं कर सकते, इसलिए हमें एकजुट होकर इस देश को सशक्त एवं सनातन रूप से जीवन्त और जाग्रत रखना होगा। इन उददेश्यों को पूरा करना तब ही सम्भव होगा जब हम क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों को देशद्रोही मानकर उनका दमन करेंगे।
निष्कर्ष - यदि हम भारतवासी किसी कारणवश छिन्न-भिन्न हो गए, तो हमारी पारस्परिक फूट को देखकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए भी राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए क्षेत्रीयता की संकीर्ण मानसिकता के विस्तार पर किसी भी तरह अंकुश लगाना समय की माँग है।
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