शक्ति विभाजन से क्या हैं - शक्तियों के पृथक्करण अर्थात विभाजन के सिद्धांत की व्याख्या स्वयं मोन्टेस्क्यू के शब्दों में इस प्रकार है-"प्रत्येक सरकार मे
शक्ति विभाजन से क्या हैं ? शक्ति विभाजन (पृथक्करण) का महत्व पर प्रकाश डालिए।
शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का अर्थ व परिभाषा
शक्तियों के पृथक्करण अर्थात विभाजन के सिद्धांत की व्याख्या स्वयं मोन्टेस्क्यू के शब्दों में इस प्रकार है-"प्रत्येक सरकार में तीन प्रकार की शक्तियाँ होती हैं-व्यवस्थापन सम्बन्धी-इस शक्ति के अनुसार, शासक अस्थायी या स्थायी कानूनों का निर्माण करता है और पहले से बने हुए कानूनों का संशोधन अथवा उनकी समाप्ति करता है। दूसरी शासन सम्बन्धी-जिसके अनुसार, वह सन्धि करता है अथवा युद्ध की घोषणा करता है, अन्य देशों को राजदूत भेजता है तथा उनके राजदूतों को अपने यहाँ स्थान देता है, सार्वजनिक सुरक्षा की स्थापना तथा आक्रमणों से रक्षा की व्यवस्था करता है। तीसरी न्याय सम्बन्धी-इस शक्ति के अनुसार, वह अपराधियों की दण्ड देता है, अथवा व्यक्तियों के झगड़ों का निबटारा करता है। व्यवस्थापन तथा शासन सम्बन्धी शक्तियाँ जब किसी एक व्यक्ति अथवा शासकों के समूह में निहित हो जाती हैं, तो स्वतन्त्रता का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। ऐसी दशा में इस बात का भय रहता है कि राजा अथवा सत्ता अत्याचारी कानूनों का निर्माण कर ले और उन्हें अत्याचार पूर्ण ढंग से कार्यान्वित करे। इसी प्रकार, यदि न्याय सम्बन्धी शक्ति को व्यवस्थापन अथवा शासन सम्बन्धी शक्तियों से पृथक् नहीं किया जाता तो भी स्वतन्त्रता सम्भव नहीं होती है। यदि वह (न्याय शक्ति) व्यवस्थापन शक्ति के साथ जोड़ दी जाएगी तो प्रजा के जीवन और उसकी स्वतन्त्रता को स्वेच्छाचारी नियन्त्रण का शिकार बनना पड़ेगा क्योंकि उस दशा में न्यायकर्ता ही व्यवस्थापक होगा। यदि इसे (न्याय शक्ति को) शासन शक्ति के साथ जोड़ दिया जाएगा तो न्यायकर्ता का व्यवहार हिंसक एवं अत्याचारी हो जायेगा।"
मोन्टेस्क्यू द्वारा शक्तियों के पृथक्करण की व्याख्या से दो बातें मुख्य रूप से उभरती हैं। उसने मुख्य रूप से दो प्रस्थापनाएँ स्थापित की हैं। यह इस प्रकार हैं
- सरकार में तीन प्रकार की पृथक्-पृथक् शक्तियाँ हैं।
- स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इन शक्तियों का केन्द्रण नहीं होना चाहिए।
इस प्रकार मोन्टेस्क्यू की मान्यता है कि हर प्रकार की सरकार में व्यवस्थापन, कार्य-पालन और न्यायपालन की तीन शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। वह यह धारणा रखता है कि सरकार की यह तीनों शक्तियाँ अलग-अलग प्रकार की विशिष्टताओं से युक्त होती हैं और इस कारण यह अलग-अलग रखी जा सकती हैं। वह ऐसी कोई सरकार नहीं मानता जिसको अनिवार्यतः यह तीन कार्य निष्पादित नहीं करने होते हैं। मोन्टेस्क्यू व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शक्तियों के एकत्रीकरण के स्थान पर शक्तियों के पृथक्करण का विचार प्रस्तुत करता है तथा शक्तियों के प्रस्तावित पृथक्करण की औचित्यता इस आधार पर पुष्टि करता है कि सरकार में शक्तियाँ ही विविध प्रकार की होती हैं। सरकार की यह शक्तियाँ प्रकृति में एक दूसरी से विशिष्ट प्रकार की होने के कारण अलग-अलग ही रहनी चाहिये अन्यथा इनका दुरुपयोग होगा और व्यक्ति की स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी। इस तरह मोन्टेस्क्यू शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को स्वतन्त्रता के अपने विचारों के ईद-गिर्द प्रस्थापित करता है। अतः उसके स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों का विवेचन करना प्रासंगिक होगा।
मोन्टेस्क्यू स्वतन्त्रता को श्रेष्ठतम मानवीय अच्छाई मानता है। उसके अनुसार, राज्य नाम की संस्था के आविर्भाव से स्वतन्त्रता के राजनीतिक पक्ष का महत्त्व बढ़ जाता है। राजनीतिक स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए उसने लिखा कि "जो हम चाहें उसे करने और जो नहीं चाहें उसे नहीं करने की स्वतन्त्रता ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है। इसे वह स्वच्छन्दता नहीं मानता, अपितु विधि के अन्तर्गत अर्थात् विधि जो कुछ करने की इजाजत दे, उसी के अनुसार, जो चाहे कर सके और जो नहीं चाहे नहीं कर सके, ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है। संक्षेप में, विधि के अनुसार व्यवहार ही स्वतन्त्रता है।"
इस स्तर पर मोन्टेस्क्यू इतिहास के अनुभव की चर्चा करती है और लिखता है कि "निरन्तर का अनुभव यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास सत्ता है उसकी प्रवृत्ति उस शक्ति का दुरुपयोग करने की होती है और वह अपनी शक्ति को तब तक बढ़ाता जाता है जब तक उसका सामना किसी नियन्त्रक सीमा से नहीं होता है।"
मोन्टेस्क्यू के अनुसार, ऐसी नियन्त्रक सीमा केवल एक ही परिस्थिति में सम्भव हो सकती है। जब शक्तियों का पृथक्करण करके शक्ति को शक्ति का नियन्त्रक व सन्तुलक बना दिया जाए। अत: मोन्टेस्क्यू ने इस बात पर अत्यधिक जोर दिया कि व्यवस्थापन, शासन और न्याय सम्बन्धी सभी शक्तियाँ पूर्णरूप से पृथक्-पृथक् हाथों में होनी चाहिए और किसी विभाग से सम्बन्धित अधिकारियों को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे अन्य विभाग की शक्ति को हथिया सकें अथवा उसमें हस्तक्षेप कर सकें। मोन्टेस्क्यू व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा का एक मात्र साधन राज्य शक्तियों के पृथक्करण द्वारा ही मानता है। उसके द्वारा प्रतिपादित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
- सरकार की व्यवस्थापन, कार्यपालन और न्यायपालन शक्तियाँ अलग-अलग संस्थाओं में निहित रहें।
- सरकार की इन तीन शक्तियों की संस्थाओं के कार्मिक (Personnel) भी पृथक्-पृथक् व्यक्ति रहें।
- सरकार की शक्ति की हर संस्था व संस्था के कार्मिक केवल अपने अधिकार क्षेत्र में सीमित, स्वतन्त्र और सर्वोच्च रहें।
मोन्टेस्क्यू के द्वारा प्रतिपादित शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत की व्याख्या से इस सिद्धांत के तत्वों का विवेचन करना आवश्यक हो जाता है। अतः हम शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विभिन्न तत्वों का विवेचन करके इसका मूल्यांकन करेंगे।
प्रश्न 2. शक्ति पृथक्करण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
शक्ति पृथक्करण की आवश्यकता
प्लेटो, अरस्त. पोलिबियस, सिसरो ओर जॉन लॉक ने सरकार की जिन शक्तियों के विभाजन का वर्णन किया है उनके पीछे मूल रूप से उनका यही मन्तव्य कि शक्तियों को विभाजित करने से इनके दुरुपयोग से बचाव की व्यवस्था हो जाती है। लॉक से पहले के विचारक इस सम्बन्ध में विशेष विस्तार से इसकी आवश्यकता पर बल नहीं दे पाए थे। किन्तु लॉक ने स्पष्ट रूप से उन तर्कों का उल्लेख किया जिनके कारण शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक समझा गया। उसने लिखा है कि सरकार के व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्बन्धी तीनों कार्य एक-दूसरे से पृथक हैं। इनको एक नहीं समझा जा सकता, इसलिए इनको सम्पादित करने वाले व्यक्तियों का भी अलग-अलग होना आवश्यक है। लॉक इससे आगे केवल व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को ही पृथक् रखने पर बल देकर रह गया। लॉक ने लिखा है कि "जिन व्यक्तियों के हाथों में विधि निर्माण की शक्ति होती है उनमें विधियों को क्रियान्वित करने की शक्ति अपने हाथ में लेने की भी प्रबल इच्छा हो सकती है क्योंकि शक्ति हथियाने का प्रलोभन मनुष्य की एक महान दुर्बलता है।"
शक्तियों के पृथक्करण की आवश्यकता का विस्तार से विवेचन स्वयं मोन्टेस्क्यू ने ही किया है। वह फ्रांस का रहने वाला था तथा फ्रांस के राजा लुई चौदहवें का समकालीन था। इस समय फ्रांस में राजा की इच्छा ही कानून होती थी तथा उसी का निर्णय न्याय होता था। इस समय फ्रांस में राजा की इच्छा ही कानून होती थी तथा उसी का निर्णय न्याय होता था। फ्रांस की तानाशाही के वातावरण में पला और उससे प्रभावित मोन्टेस्क्यू इंगलैण्ड गया तो उसे वहाँ पर इसके विपरीत स्थिति देखने को मिली। वहाँ उस समय 'राज्य क्रांति' के बाद राजा की शक्ति मन्त्रिमण्डल व संसद की शक्ति के विकास के कारण, बहुत अंशों में मर्यादित हो चुकी थी। ब्रिटेन की तत्कालीन शासन व्यवस्था को देखकर वह इस निर्णय पर पहुँचा कि वहाँ राज-शक्ति का पृथक्करण हैं और इस कारण नागरिकों को इतनी स्वतन्त्रता का वातावरण उपलब्ध है। इसी अवलोकन (जो केवल अकस्मात् व भ्रान्तिपूर्ण अवलोकन था) से प्रभावित होकर उसने राज-शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यद्यपि ब्रिटेन की शासन व्यवस्था का उसने भ्रमपूर्ण विश्लेषण किया, किन्तु इस भ्रमात्मक अवलोकन पर राजनीति-शास्त्र को ठोसतप सिद्धांत देने के लिए समाज हमेशा ही उसका आभारी रहेगा। उसने शक्तियों के पृथक्करण की स्वतन्त्रता की पहली और आखिरी शर्त मान कर इस सिद्धांत का विस्तार से विवेचन किया।
लॉक, मोन्टेस्क्यू तथा सी० एफ० स्ट्रांग तीनों ने शक्तियों के पृथक्करण की आवश्यकता पर बल देते हुए एक ही बात को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट किया है। ब्लेक-स्टोन, एम० जे० सी० वाइल और लापालोम्बारा द्वारा दिए गए तर्कों से शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था निम्नलिखित कारणों से आवश्यक कही जा सकती है
शक्ति पृथक्करण का महत्व
- राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग से बचाव की व्यवस्था के लिए।
- नागरिकों की स्वतन्त्रताओं व अधिकारों की सुरक्षा के लिए।
- कार्य विभाजन से विशिष्टीकरण व कार्य-दक्षता में वृद्धि के लिए।
- शक्ति की शक्ति के द्वारा पहरेदारी सम्भव बनाने के लिए।
- राजनीतिक विकास व आधुनिकीकरण के लिए अपरिहार्य होने के कारण
- शासन कार्य को सरल व सुविधाजनक बनाने के लिए।
- उत्तरदायित्व का सुनिश्चित निर्धारण करने के लिए।
- न्यायपालिका की स्वतन्त्रता तथा निष्पक्षता की व्यावहारिकता के लिए।
इस सूची से स्पष्ट है कि शक्तियों के पृथक्करण की आवश्यकता व उपयोगिता का एक नहीं अनेक कारण हैं। इन कारणों में से अनेक तथ्य वर्तमान युग की परिवर्तित परिस्थितियों के कारण केवल सैद्धान्तिक महत्व के रह गए हैं। राजनीतिक दलों के विकास व अन्य लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं के शक्तियों के पूर्ण पृथक्करण को अनावश्यक बना दिया है। इस सम्बन्ध में हम इस सिद्धांत के मूल्यांकन के समय विस्तार से विचार करेंगे, किन्तु एक पहलू को लेकर शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत उत्तरोत्तर दृढ़ होता जा रहा है और वह है न्यायपालिका की स्वतन्त्रता व निष्पक्षता को व्यावहारिक बनाने के साधन के रूप में इसका योगदान। आधुनिक समय में सभी संवैधानिक राज्य, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के कम-से-कम प्रयोग से न्यायाधीशों को दलबन्दी की भावना के उतार-चढ़ाव से परे रखने का प्रयास करते हैं। इसी के माध्यम से केवल अपराध या भ्रष्टाचार की अवस्था को छोड़कर न्यायाधीशों को हटाना कठिन बनाकर, उनकी पदावधि सुरक्षित करते हुए, उनकी स्वतन्त्रता की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की व्यवस्था, हर लोकतान्त्रिक राज्य में शक्तियों के पृथक्करण के द्वारा ही की जाती है। शक्तियों के पृथक्करण के कम-से-कम आंशिक उपयोग से समस्त संवैधानिक राज्यों में न्यायिक निकायों की ऐसी हैसियत बना दी जाती है कि वह बेतुके और मनमाने हस्तक्षेप से मुक्त रहे और उनकी अवधि सुरक्षित रहे जिससे कि वे अपने विवेक के विरुद्ध कार्य की आशका के शिकार न हों। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता व निष्पक्षता के लिए शक्तियों का पृथक्करण संघात्मक व्यवस्थाओं के लिए आधारभूत है। संविधान की व्याख्या, रक्षा व नागरिकों के अधिकारों के रक्षक के रूप में स्वतन्त्र, निष्पक्ष व पृथक् न्यायालय अनिवार्य है और इस कारण शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत एम० जे० सी० वाइल के शब्दों में "बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्थापित होता रहा है।"
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