सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत की विवेचना कीजिए अथवा सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए। सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत की ...
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत की विवेचना कीजिए
- अथवा सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए।
- सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत की विवेचना कीजिए।
- सोरोकिन के सांस्कृतिक परिवर्तन की व्याख्या कीजिए।
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांतों के अन्तर्गत हम (1) सामाजिक परिवर्तन की दिशा, एवं (2) सामाजिक परिवर्तन के कारणों से सम्बन्धित सिद्धांतों का वर्णन करेंगे।
(1) सामाजिक परिवर्तन की दशा - प्रारम्भिक समाजशास्त्री आदिम लोगों की संस्कृति को नितान्त गतिहीन समझते थे, परन्तु पूर्व-साक्षर समाजों के वैज्ञानिक अध्ययन से यह विचार त्याग दिया गया है। मानवशास्त्री अब इस बात पर सहमत हैं कि आदिम संस्कृतियों में भी परिवर्तन हुए हैं, यद्यपि उनकी गति इतनी धीमी थी कि वे गतिहीन दीखते थे। पिछले वर्षों में सामाजिक परिवर्तन तीव्र गति से हुआ है। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् अनेक देशों की न केवल राजनीतिक संस्थाओं, अपितु उनकी वर्गीय संरचनाओं, आर्थिक व्यवस्थाओं एवं जीवन-ढंगों में गहन परिवर्तन हुए हैं। सामाजिक परिवर्तन की दिशा की व्याख्या करने के लिए अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं। प्रत्येक सिद्धांत का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है
(i) अपकर्षण का सिद्धांत - कुछ विचारकों ने सामाजिक परिवर्तन का ह्रास अथवा अपकर्षण के साथ तादात्म्य किया है। उनके अनुसार, प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य स्वर्णयुग-सुख की पूर्ण अवस्था में रहता था। कुछ समय के उपरान्त अपकर्षण आरम्भ हो गया जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य अपेक्षाकृत पतित अवस्था में पहुँच गया। प्राचीन पूर्व में यही विचार प्रचलित था। भारत, फारस एवं सुमेरिया के महाकाव्यों में इसी विचार का प्रतिपादन किया गया। इस प्रकार भारतीय पुराणों के अनुसार, मनुष्य चार युगों-सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग के बीच से गुजरा है। सतयुग सर्वोत्तम चरण था जिसमें मनुष्य ईमानदार, नेक एवं पूर्णतया सुखी था। तदुपरान्त पतन आरम्भ हो गया। आधुनिक युग कलियुग का युग है जिसमें मनुष्य धोखेबाज, झूठा, बेईमान, स्वार्थी और परिणामतः दुखी है। प्रारम्भ में इतिहास की ऐसी विचारधारा थी, यह समझने योग्य है, क्योंकि आजकल जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम पतन देख रहे हैं।
सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत
सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत के अनुसार मानव-समाज चक्रों या आवृत्तियों से गुजरता है। समाजशास्त्रियों यथा स्पेंगलर (Spengler) का विश्वास है कि समाज का भी पूर्व-निर्धारित जीवन-चक्र है और प्रत्येक सभ्यता जन्म, युवावस्था और मृत्यु के चक्र से गुजरती है। इसी को सामाजिक परिपर्तन का चक्रीय सिद्धांत कहते हैं। आधुनिक समाज का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया है। यह अपनी वृद्धावस्था में है। परन्तु चूँकि इतिहास अपने को दोहराता है, अतएव समाज सभी चरणों से गुजरने के बाद अपनी प्रारम्भिक अवस्था को लौट आता है जिसमें चक्र पुनः आरम्भ हो जाता है। हिन्दू पुराणों में यही विचार मिलता है जिसके अनुसार, कलियुग समाप्त होने के पश्चात् धर्मयुग पुनः आरम्भ होगा। जे० बी० बरी (J. B.Bury) ने अपनी पुस्तक 'The Idea of Progress' में इंगित किया है कि यह अवधारणा यूनान के स्टोइक (Stoic) दार्शनिकों एवं कुछ रोमन दार्शनिकों, विशेषतया मायूंस आरिलियस (Marcus Aurelius) की शिक्षाओं में भी पाई जाती है।
यह विचार कि परिवर्तन चक्रिय ढंग से घटित होता है, कुछ आधुनिक लेखकों की रचनाओं में भी मिलता है जिन्होंने चक्रिक सिद्धांत की विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। फ्रांसीसी मानवशास्त्री वेचर डी० लायूज का विचार था कि प्रजाति संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्धारक है। उसके अनुसार, जब समाज में श्रेष्ठ प्रजातियों के लोग निवास करते हैं तो उस समय सभ्यता का विकास होता है एवं इसकी प्रगति होती है; परन्तु जब प्रजातीय रूप में निम्न व्यक्ति इसमें घुल-मिल जाते हैं तो इसका पतन होने लगता है।
उसके अनुसार, पाश्चात्य सभ्यता का विनाश अवश्यम्भावी है, क्योंकि विदेशी निम्न व्यक्ति इसमें निरन्तर प्रवेश कर रहे हैं तथा इस पर उनका नियन्त्रण भी बढ़ता जा रहा है। जर्मन के मानवशास्त्री, ऑटो आमोन (Otto Ammon), अंग्रेज व्यक्ति हाउस्टन स्टीवर्ट चैम्बरलेन (Houseton Stewart Chamberlain) एवं अमरीकन मैडीसन ग्रांट (Madison Grant) तथा लोथोपस्टोडार्ड (Lothrop Stoddard) भी लापूज (Lapouge) के विचार से सहमत हैं जिसे जीवशास्त्रीय चक्र का सिद्धांत कहा जा सकता है।
स्पेंगलर ने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत की एक अन्य व्याख्या भी प्रस्तुत की है। उसने आठ बड़ी एवं उच्च सभ्यताओं, यथा मिस्री, यूनानी एवं रोमन आदि का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि सभी सभ्यताएँ जन्म, विकास एवं मृत्यु के समान चक्र से गुजरती हैं। उसके अनुसार, पाश्चात्य सभ्यता का पतन आरम्भ हो गया है जो अपरिहार्य है।
बिल्फ्रेडो पैरेटो (Vilfredo Pareto) ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि समाज राजनीतिक शक्ति एवं पतन के काल से गुजरते हैं जिनकी चक्रीय ढंग से पुनरावृत्ति होती है। उसके अनुसार, समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं-एक वे जो पारम्परिक ढंगों का अनुसरण करना पसंद करते हैं जिनको उसने 'Rentiers' कहा है एवं दूसरे वे जो अपने लक्ष्यों की प्राप्ति-हेतु जोखिम उठाना चाहते हैं जिन्हें उसने 'Speculators' कहा है। राजनीतिक परिवर्तन शक्तिशाली कुलीन वर्ग के प्रत्याशियों द्वारा आरम्भ किया जाता है जिनकी शक्ति का बाद में ह्रास हो जाता है एवं चतुर छल-साधनों को आश्रय लेता है तथा उसमें 'Rentier' मानसिक वृत्ति के लोग प्रवेश कर जाते हैं। समाज का पतन आरम्भ हो जाता है, परन्तु इसके साथ ही 'Speculators' प्रत्याशी पराधीन लोगों में से नया शासक वर्ग बनाने के लिये सर उठाते हैं तथा पुराने वर्ग को उखाड़ फेंकते हैं। उसके बाद पुन: चक्र प्रारम्भ हो जाता है।
एफ० स्टुअर्ट चैपिन (F. Stuart Chapin) ने चक्रीय परिवर्तन की अन्य व्याख्या प्रस्तुत की है। उसने संग्रह की अवधारणा को सामाजिक परिवर्तन के अपने सिद्धांत का आधार बनाया। उसके अनुसार, सांस्कृतिक परिवर्तन समय की दृष्टि से चयित रूप में संग्रहात्मक (Selectively accumulative in time) होता है। उसने लिखा, "सांस्कृतिक परिवर्तन की अवधारणा का सर्वाधिक आशापूर्व उपागम परिवर्तन की प्रक्रिया को समय की दृष्टि से चयित रूप में संग्रहात्मक एवं स्वरूप में चक्रीय अथवा प्रदोलकीय समझना होगा।" इस प्रकार, चैपिन के अनुसार, सांस्कृतिक परिवर्तन चयित रूप में संग्रहात्मक तथा स्वरूप में चक्रिक दोनों है। उसने समकालिक चक्रिक परिवर्तन (Synchronological change) की कल्पना का प्रतिपादन किया है। उसके अनुसार, संस्कृति के विभिन्न अंग विकास, उत्कर्ष एवं पतन के चक्र से गुजरते हैं। यदि प्रमुख अंगों का चक्र यथा सरकार एवं परिवार एक समय में समकालिक हैं तो सम्पूर्ण संस्कृति समेकन की स्थिति में होगी। यदि वे समकालिक नहीं तो संस्कृति विघटन की स्थिति में होगी।
चैपिन के अनुसार, विकास एवं पतन का चक्र सांस्कृतिक स्वरूपों पर भी उतना ही अपरिहार्य है जितना जीवित वस्तुओं के लिए।
सोरोकिन का सांस्कृतिक परिवर्तन सिद्धांत
विभिन्न तथ्यों के आधार पर सोरोकिन ने निष्कर्ष निकाला कि सभ्यताओं की तीन प्रमुख श्रेणियाँ हैं, अर्थात् काल्पनिक,आदर्शात्मक एवं संवेदनात्मक। काल्पनिक प्रकार की सभ्यता में वास्तविकता एवं मूल्यों की अतीद्रिय एवं परातार्किक ईश्वर के संदर्भ में व्याख्या की जाती है, जबकि इंद्रिय संसार मिथ्या प्रतीत होता है। संक्षेप में, काल्पनिक संस्कृति में समस्त घटनाओं का एक मात्र कारण भगवान को समझा जाता है। आध्यात्मिक कल्पना जीवन का आधार बन जाती है तथा वास्तविकता एवं व्यावहारिकता उसी कल्पना-लोक में खो जाती है। आदर्शात्मक प्रकार की संस्कृति में वास्तविकता एवं मूल्यों को इंद्रिय एवं अतींद्रिय, दोनों समझा जाता है। यह संवेदनात्मक एवं काल्पनिक दोनों का समन्वय होता है। इसमें न ईश्वर की अवहेलना की जाती है और न इहलोक की। न तो भौतिक सुख को ही सब कुछ मान लिया जाता है और न ही आध्यात्मिक कल्पना के बहाव में डूबा जाता है। संवेदनात्मक प्रकार की संस्कृति में जीवन का सम्पूर्ण ढंग भौतिक वादी मनोवृत्ति से प्रभावित होता है। इसमें इन्द्रियजनित आवश्यकताओं व इच्छाओं की पूर्ति के साधनों की प्रधानता होती है। धर्म, प्रथा, परम्परा का स्थान गौण होता है, विज्ञान व प्रौद्योगिकी का महत्व अधिक होता है। वास्तविकता एवं मूल्य केवल इन्द्रियों तक सीमित है। इन्द्रियों से परे किसी वास्तविकता को नहीं माना जाता।
सोरोकिन के अनुसार, पाश्चात्य सभ्यता संवेदनात्मक अवस्था की अतिपरिपक्व अवस्था में है जिसे नई काल्पनिक अवस्था में आना चाहिए।
अधुनातन समय में अर्नाल्ड जे० टायनवी (Arnold J. Toynbee) एक विख्यात अंग्रेज दार्शनिक ने भी विश्व-सभ्यता के इतिहास का चक्रिक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार, सभ्यता तीन अवस्थाओं-यौवन, प्रौढ़ता एवं पतन से गुजरती है। उसने 'आवाहण' (challenge) और 'प्रत्युत्तर' (response) की धारणाओं का विकास किया है। प्रत्येक समाज के सामने 'आवाहण' होते हैं और प्रत्येक अवस्था उसका प्रत्युत्तर है। टायनवी ने तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं
- आवाहण को प्रत्युत्तर यह युवावस्था का काल है;
- संकट का समय-यह वृद्धावस्था का समय होता है।
- अंतिम रूप से पतन-यह मृत्यु का समय है।
टायनवी का विचार था कि हमारी सभ्यता, यद्यपि यह अंतिम पतन की अवस्था में है, को मरने से बचाया जा सकता है। उसका कहना है कि रचनात्मक अल्पसंख्यक अपने को रोगी सभ्यता से दूर रख सकते हैं और ईश्वर-प्रदत्त शक्तियों से ज्ञान एवं शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। ये लोग जनता में उत्साह भर सकते हैं और पुनः शक्ति का संचार कर सकते हैं तथा आवाहण को प्रत्युत्तर को दे सकते हैं। इस प्रकार सभ्यता को नष्ट होने से बचाया जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन के चक्रिक स्वभाव के उपर्युक्त सिद्धांतों को सांस्कृतिक चक्रों के सिद्धांत कहा जा सकता है। वस्तुत: वे वैज्ञानिक अध्ययनों की अपेक्षा दार्शनिक चिंतन की उपज हैं। इन अवधारणाओं के लेखक कुछेक पूर्वमान्यताओं को लेकर विचार आरम्भ करते हैं जिनको वे इतिहास से प्राप्त तथ्यों द्वारा समर्थित करने को प्रयत्न करते हैं। वे दार्शनिक सिद्धांत हैं जिन्हें विकृत ऐतिहासिक साक्ष्य द्वारा प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। बार्न्स (Barnes) ने टायनबी की अवधारणा के बारे में लिखा है-"यह वस्तुपरक अथवा व्याख्यात्मक सिद्धांत तक नहीं है। यह धर्मशास्त्र है जिसमें ईश्वर की इच्छा को स्पष्ट करने के लिए इतिहास से चयित तथ्यों का प्रयोग किया गया है, ठीक उसी प्रकार, जैसे मध्ययुगीन पशु-विषयक उपदेशात्मक कथाओं के संग्रह में प्राणिशास्त्रीय कल्पनाओं को समान परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त किया गया था। टायनबी द्वारा एकत्रित विशाल सामग्री इतिहास की वास्तविक प्रक्रिया की अपेक्षा उसके मस्तिष्क की प्रक्रियाओं पर अधिक प्रकाश डालती है। उसने इतिहास को, जैसा यह मुक्ति के लक्ष्य को बढ़ावा देने के लिए होना चाहिए, अपने विचारानुसार वैसा लिखा है, न कि जैसा कि यह वास्तविकता में रहा है।"
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