सामाजिक परिवर्तन का अर्थ, परिभाषा तथा इसकी विशेषताएं बताइए। सामाजिक परिवर्तन का अर्थ स्पष्ट कीजिए। सामाजिक परिवर्तन की कोई चार विशेषताएं लिखिए सामाजिक
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ, परिभाषा तथा इसकी विशेषताएं बताइए।
- सामाजिक परिवर्तन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- सामाजिक परिवर्तन की कोई चार विशेषताएं लिखिए
- सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप बताइए।
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
'परिवर्तन' शब्द काल की किसी अवधि में किसी वस्तु में दृश्यमान परिवर्तन को इंगित करता है। अतएव सामाजिक परिवर्तन का अर्थ होगा-किसी निश्चित कालावधि में किसी सामाजिक परिघटना में पर्यवेक्षणीय अन्तर। इसकी कुछ परिभाषायें निम्नलिखित हैं
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा
(i) "सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जो सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक अन्त:क्रिया अथवा सामाजिक संगठन के किसी अंग में अन्तर अथवा रूपान्तर को वर्णित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।" -जोन्स
(ii) "सामाजिक परिवर्तन समाज की क्रिया अथवा लोगों के जीवन में प्राचीन ढंग को विस्थापित अथवा परिवर्तित करने वाला नवीन शोभाचार अथवा ढंग है।" -एच० टी० मजूमदार
(iii) "सामाजिक परिवर्तन जीवन की स्वीकृत रीतियों में परिवर्तन को कहते हैं, चाहे ये परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के परिवर्तन से हुए हों अथवा सांस्कृतिक साधनों, जनसंख्या की रचना अथवा विचारधाराओं के परिवर्तनों से हुए हों अथवा समूह के अन्दर हुए आविष्कारों अथवा प्रसार से हुए हों।" -गिलिन एवं गिलिन
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन लोगों के जीवन-प्रतिमानों में होने वाले परिवर्तनों को निर्दिष्ट करता है। इसके अलावा यह समाज में हो रहे सभी परिवर्तनों का घोतक नहीं है। कला, साहित्य, औद्योगिकी, दर्शन आदि में आये परिवर्तनों को सामाजिक परिवर्तन में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। 'सामाजिक परिवर्तन' शब्द को संकुचित अर्थ में प्रयुक्त किया जाना चाहिए जो सामाजिक सम्बन्धों के क्षेत्र में परिवर्तनों को सूचित करता है। सामाजिक सम्बन्धों से अभिप्राय प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों एवं सामाजिक अन्त:क्रियाओं से है। इस प्रकार, सामाजिक परिवर्तन का अर्थ होगा-सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक अन्त:क्रियाओं या सामाजिक संगठन के किसी स्वरूप में अन्तर। यह समाज की संस्थागत एवं आचारात्मक संरचना में परिवर्तन है।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं
- सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक है
- सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक परिवर्तन है
- सामाजिक परिवर्तन की गति समरूप नहीं होती
- सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप एवं इसकी गति काल के तत्व से प्रभावित होती है
- सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य घटना है
- सामाजिक परिवर्तन की निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती
- सामाजिक परिवर्तन श्रृंखला-प्रतिक्रिया-अनुक्रम को दर्शाता है
- सामाजिक परिवर्तन अनेक तत्वों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है
- सामाजिक परिवर्तन प्रमुखतया प्रतिस्थापन अथवा रूपान्तरण प्रकार के होते हैं
(i) सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक है -सामाजिक परिवर्तन सभी समाजों में घटित होता है। कोई भी समाज सदा गतिहीन नहीं होता। आदिम तथा आधुनिक, दोनों समाजों में परिवर्तन होते रहे हैं। समाज अनेक गतिशील प्रभावों के अधीन अवस्थित है। जनसंख्या बदलती रहती है, प्रौद्योगिकी का विस्तार होता रहता है, भौतिक पदार्थों में परिवर्तन आता रहता है, विचारधाराएँ एवं आदर्श मूल्यों में नए तत्व सम्मिलित हो जाते हैं तथा संस्थागत संरचनाओं एवं कार्यों का आकार भी बदल जाता है। परिवर्तन की गति एवं सीमा समाजों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। कुछ समाजों में परिवर्तन शीघ्र हो जाता है, अन्य में धीरे-धीरे होता है।
(ii) सामाजिक परिवर्तन सामुदायिक परिवर्तन है -सामाजिक परिवर्तन किसी एक व्यक्ति के जीवन अथवा कछेक व्यक्तियों के जीवन-प्रतिमानों में परिवर्तन नहीं है, अपितु यह सम्पूर्ण समुदाय के जीवन में घटित होता है। दूसरे शब्दों में, केवल वही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाएगा जिसका प्रभाव सामुदायिक रूप में पड़ता है। सामाजिक परिवर्तन वैयक्तिक न होकर सामाजिक होता है।
(iii) सामाजिक परिवर्तन की गति समरूप नहीं होती -जबकि सामाजिक परिवर्तन सभी समाजों में घटित होता है, इसकी गति प्रत्येक समाज में समरूप नहीं होती। अधिकांश समाजों में इसकी गति इतनी धीमी होती है कि लोगों को इसका आभास तक नहीं होता। आधुनिक समाजों में भी अनेक क्षेत्रों में बहुत कम परिवर्तन अथवा कोई परिवर्तन नहीं आता। नगरीय क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र है।
(iv) सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप एवं इसकी गति काल के तत्व से प्रभावित होती है -सामाजिक परिवर्तन की गति उसी समाज में प्रत्येक काल अथवा युग में समान नहीं होती। आधुनिक काल में सामाजिक परिवर्तन की गति 1947 से पूर्व काल की अपेक्षा तीव्रतर है। इस प्रकार, सामाजिक परिवर्तन की गति युग-युग में भिन्न-भिन्न होती है। इसका कारण यह है कि परिवर्तनकारी कारण समय के परिवर्तन के साथ एक रूप नहीं रहते। 1947 से पूर्व भारत कम औद्योगीकृत था, 1947 के उपरांत यह अधिक औद्योगीकृत हो गया है। अतएव 1947 के उपरांत सामाजिक परिवर्तन की गति 1947 से पूर्व की अपेक्षा तीव्रतर थी।
(v) सामाजिक परिवर्तन एक अनिवार्य घटना है -परिवर्तन प्रकृति का नियम है। सामाजिक परिवर्तन भी प्राकृतिक है। यह प्राकृतिक क्रम में अथवा सुनियोजित प्रयत्नों के परिणामस्वरूप घटित हो सकता है। हम प्रकृतिवश परिवर्तन चाहते हैं। हमारी आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं। परिवर्तन की स्वाभाविक इच्छा तथा परिवर्तनशील आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए हमारी आवश्यकताएँ भी बदल जाती हैं। तथ्य यह है कि हम परिवर्तन की आतुरतापूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। ग्रीन (Green) के अनुसार, "परिवर्तन के प्रति उत्साही अनुक्रिया प्रायः जीवन का ढंग बन गयी है।"
(vi) सामाजिक परिवर्तन की निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती - सामाजिक परिवर्तन के सुनिश्चित स्वरूप के बारे में कोई भविष्यवाणी करना कठिन है। सामाजिक परिवर्तन का कोई ऐसा अन्तर्निहित नियम नहीं है जिसके अनुसार, यह विभिन्न रूप ग्रहण करेगा। अधिक-से-अधिक हम कह सकते हैं कि सामाजिक सुधार आन्दोलन के कारण अस्पृश्यता भारतीय समाज से समाप्त हो जायेगी, विवाह के आधार एवं आदर्शों से सरकार द्वारा पारित कानून के कारण परिवर्तन आ जायेगा, औद्योगीकरण नगरीकरण की गति से वृद्धि करेगा, परन्तु हम यह नहीं कह सकते हैं कि भविष्य में सामाजिक सम्बन्धों का निश्चित स्वरूप क्या होगा। इसी प्रकार यह भविष्यवाणी कर पाना बहुत मुश्किल है कि भविष्य में हमारी मनोवृत्तियाँ हमारे विचार प्रतिमान एवं आदर्श मूल्य क्या होंगे।
(vii) सामाजिक परिवर्तन श्रृंखला-प्रतिक्रिया-अनुक्रम को दर्शाता है -समाज का जीवन-प्रतिमान अंत:सम्बन्धित अंगों की गतिशील व्यवस्था है। अतएव इनमें से किसी एक अंग से परिवर्तन दूसरे अंगों पर प्रतिक्रिया करते हैं। इस श्रृंखला प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप अनेक लोगों के जीवन की सम्पूर्ण विधि में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणतया, औद्योगीकरण ने उत्पादन की कुटीर प्रणाली को नष्ट कर दिया है। उत्पादन की कुटीर प्रणाली के विनाश ने स्त्रियों को घर से बाहर लाकर उनको कर्मशाला एवं कार्यालय में रोजगार दिलवा दिया है। स्त्रियों द्वारा नौकरियाँ कर लेने से उन्हें मनुष्य की दासता से मुक्ति मिल गई है। इसने उनकी अभिवृत्तियों एवं विचारों को भी प्रभावित किया है। इसका अर्थ था स्त्रियों के लिए नया सामाजिक जीवन। परिणामस्वरूप, इसका अभाव पारिवारिक जीवन के प्रत्येक अंग पर पड़ा है।
(viii) सामाजिक परिवर्तन अनेक तत्वों की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है - यह विचार किया जाता है कि कोई विशेष तत्व, यथा प्रौद्योगिकी में परिवर्तन, आर्थिक विकास अथवा जलवायु-सम्बन्धी दशाएँ सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करती हैं। इसे एकलवादी सिद्धान्त कहा जाता है जो सामाजिक परिवर्तन की किसी एक अकेले तत्व के सन्दर्भ में समीक्षा करता है। परन्तु एकलवादी सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन की जटिल परिघटना की समुचित व्याख्या प्रस्तुत: नहीं करता। वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन अनेक तत्वों का परिणाम होता है। कोई विशेष तत्व चिन्गारी का कार्य कर सकता है, परन्तु अन्य तत्व भी सम्बन्धित होते हैं जो उस चिन्गारी को सम्भव बना देते हैं। सामाजिक परिघटना पारस्परिक अन्योन्याश्रित होती है। कोई भी तत्व अकेला परिवर्तन को घटित नहीं करा सकता। वस्तुतः प्रत्येक तत्व प्रणाली का एक तत्व होता है। एक अंग में परिवर्तन दूसरे अंगों को प्रभावित करता है तथा ये प्रभाव शेष को प्रभावित करते हैं जब तक कि सम्पूर्ण प्रणाली प्रभावित नहीं हो जाती।
(ix) सामाजिक परिवर्तन प्रमुखतया प्रतिस्थापन अथवा रूपान्तरण प्रकार के होते हैं -सामाजिक परिवर्तनों को व्यापक रूप में प्रतिस्थापनों अथवा रूपान्तरों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह भौतिक पदार्थों या सामाजिक सम्बन्धों का रूपान्तरण हो सकता है। उदाहरणतया हमारे नाश्ते का स्वरूप बदल गया है। यद्यपि हम नहीं आधारभूत पदार्थ खाते हैं जो पहले खाते थे, यथा गेहूँ, अण्डा, अन्न, परन्तु उनका स्वरूप बदल गया है। अब तैयारशुदा कार्नफ्लेक्स, ब्रेड, पिज्जा, बर्गर, आमलेट ने पिछले वर्षों में खाए जाने वाले पदार्थों के रूपों को प्रतिस्थापित कर दिया है। इसी प्रकार, सामाजिक सम्बन्धों में भी रूपान्तरण आ सकता है। प्राचीन सत्ताप्रधान परिवार अब एक छोटा समानाधिकृत परिवार बन गया है। स्त्रियों के अधिकारों, धर्म, संस्कार एवं सह शिक्षा के बारे में हमारे विचार आज रूपान्तरित हो गए हैं।
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