राजस्थान में महिलाओं की स्थिति पर निबंध : राजस्थान में महिलाओं की स्थिति जानने के लिए तीन तथ्यों पर ध्यान देना जरुरी है। पहला, सामाजिक संरचना में महिल
राजस्थान में महिलाओं की स्थिति पर निबंध - Rajasthan Mein Mahilaon Ki Sthiti Par Nibandh
राजस्थान में महिलाओं की स्थिति पर निबंध
राजस्थान में महिलाओं की स्थिति जानने के लिए तीन तथ्यों पर ध्यान देना जरुरी है। पहला, सामाजिक संरचना में महिलाओं की असमान एवं निम्न स्थिति से संबंधित है। दूसरे तथ्य का सम्बन्ध उस विश्वव्यापी आन्दोलन से है जो अब तक की महिलाओं की प्रस्थिति को सबलीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से बदलना चाहते हैं और तीसरे तथ्य का सम्बन्ध भारत में संविधान के उस 73वें और 74वें संशोधन से है, जिसने भारत के इतिहास में पहली बार महिलाओं को विशेष रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं का पंचायतीराज व्यवस्था में आरक्षण निश्चित किया है।
राजस्थान में महिलाओं का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण - राजस्थान में महिलाओं की स्थिति के विश्लेण से पूर्व, हमें राज्य की सामाजिक संरचना और सामाजिक जीवन को समझना होगा। मूल रूप में देश की सामाजिक संरचना वैदिककाल से ही जिन व्यवस्थाओं के आधार पर अपना अस्तित्व कायम किए रही उसमें वर्णव्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली, वर्णाश्रम, संस्कार आदि प्रमुख है। संपूर्ण देश का सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन का मूल ढांचा ही राज्य के सामाजिक एवं पारिवारिक ढाँचे का आधार था, जिसके मध्यकाल तक आते-आते कई प्रमाण भी मिले हैं।
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जैसा कि हम भारत में महिलाओं की प्रस्थिति का अध्ययन करके जान चुके हैं कि वैदिक काल में सभी परिप्रेक्ष्य से महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति सम्माननीय थी। धर्मसूत्र, स्मृति एवं महाकाव्य व पुराणकाल की लंबी अवधि में कई ऐसे सामाजिक परिवर्तन हुए कि शनैः-शनैः स्त्रियों की प्रस्थिति में गिरावट आती गई। जो कि अट्ठारहवीं सदी तक विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई अपने अस्तित्व को ढूँढ पाने में असफल रही।
राजस्थान के संदर्भ में मध्यकाल का समय वह था जहाँ एक ओर तो सामंतवादी संरचना सुदृढ़ हुई वहीं दूसरी ओर मुस्लिम आक्रमण हुए और इन दोनों तत्वों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से महिलाओं की स्थिति को और भी अधिक पीड़ादायक बना दिया।
परिवार, सामाजिक संरचना की केन्द्र इकाई है। समाज वैज्ञानिकों एवं इतिहासकारों का विश्वास है कि पूर्व में राजस्थान में संभवतः मातृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था रही है। इस तथ्य के पीछे आहड़ और कालीबंगा सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त जानकारी है। लेकिन कालान्तर में कृषि युग के आरम्भ के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपना स्वरूप, समाज में ग्रहण किया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने संपूर्ण भारत की ही तरह राजस्थान में स्त्री के महत्व को कम कर दिया।
विभिन्न शोध यह बताते हैं कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के आरंभिक वर्षों में यद्यपि कन्या जन्म उल्लास और हर्ष का विषय नहीं था, परन्तु उनके जन्म के पश्चात् उनकी उपेक्षा भी नहीं की जाती थी। शनै:शनैः कन्या जन्म दुर्भाग्य का कारण माना जाने लगा और राज्य में यह भी कई बार पाया गया कि कन्या के जन्म के साथ उनका वध कर दिया गया।
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वैदिक काल से ही हमारी सामाजिक संरचना में वर्ण व्यवस्था का महत्व रहा है और इसी वर्ण व्यवस्था का विखंडित स्वरूप आगे चलकर जाति व्यवस्था हो गया। इस तथ्य के प्रमाण तत्कालीन पुरालेखों तथा साहित्यिक दस्तावेजों में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। जातिगत व्यवस्था में ऊँच-नीच का संस्तरण राज्य में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है। सामाजिक संस्तरण की इस व्यवस्था ने राज्य की स्त्रियों की प्रस्थिति को प्रभावित किया। राज्य में सबसे प्रभावशाली और प्रभुत्वशाली राज्य के शासक, उनके वंशज या अन्य राजपूत वर्ग के वंशज थे, जिनके पास जागीरें थीं। इस सामन्तवादी व्यवस्था में नैतिकता, नारी और भूमि को एक दृष्टि से देखती थी। सामन्तवादी इस व्यवस्था में बहुविवाह अपनी पराकाष्ठा पर था। स्त्री के जीवन की परिधि घर की चारदीवारी सुनिश्चित की गई। स्वतंत्रता, समानता तथा अपने अधिकारों के लिए खड़े होना भी, राज्य की स्त्रियों के लिए अकल्पनीय था।
यदि हम सम्पत्ति के संदर्भ में महिलाओं के अधिकार की चर्चा करें तो पाएँगे कि धर्मशास्त्रों द्वारा तय किए गए सम्पत्ति के अधिकार के मानदण्ड राजस्थान में भी यथावत दिखाई देते हैं। राजस्थान की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी और महिलाएँ पुरुषों की ही भाँति खेतों में कार्य करती थीं। कृषि कार्य ही नहीं, पशुपालन, खेतों में बुआई, सिंचाई, सूत काटना, मिट्टी के बर्तन बनाना आदि कार्यों में भी राज्य की महिलाएँ संलग्न रहती थी।
भारतीय संस्कृति में संस्कार वह है जिसके होने से कोई व्यक्ति या पदार्थ किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है अर्थात् संस्कार वे रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती है। जीवन के बौद्धिक विकास से संबंधित ज्ञान तथा प्रकाश प्रदान करने वाले शिक्षा से जुड़े सभी संस्कारों जैसे विद्यारम्भ, उपनयन, वेदाध्ययन तथा समावर्तन के वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार संपादन के सारे अधिकारों से स्त्रियों को वंचित कर दिया। स्पष्ट है कि व्यक्ति के विकास, उन्नति तथा बौद्धिक उत्कर्ष का संबंध मात्र पुरुषों से था।
व्यवस्थित और विश्वसनीय शोध एवं आँकड़ों के अभाव में राजस्थान में पुरातन शिक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में विश्लेषण करना मुश्किल कार्य है। 'मधुमालती' में शिक्षा को अनन्त ज्ञान और आजीविका का स्रोत बताया गया है। राजस्थान की कई रियासतों में प्राथमिक शिक्षा के विद्यालय थे, जिन्हें उपासरा, पोसाल, मकतब आदि कहते थे। शिक्षा के सम्बन्ध में यह स्पष्ट था कि मध्यकाल तक आते-आते राजस्थानमें महिलाओं से संबंधित कई प्रयासों के प्रचलन के चलते स्त्रियों से शिक्षा के अधिकार छीन लिए गए। राजस्थान में लड़कियों के लिए अलग पाठशालायें नहीं थीं।शाही परिवार तथा मध्यमवर्ग की महिलाएँ यद्यपि घर पर शिक्षक बुलाकर पढ़ लिया करती थीं, परन्तु यहाँ भी संगीत, चित्रकला जैसे विषयों को ही उनके द्वारा पढ़ा जाता था। स्त्रियों की शिक्षा का सबसे बड़ा बाधक तत्व 'बाल विवाह' जैसी कुप्रथा बनी। राजस्थान देश के उन राज्यों में से एक था जहाँ बाल विवाह के आँकड़े अन्य राज्यों से अपेक्षाकृत बहुत अधिक थे।
मध्यकाल में बाल विवाह, पर्दा प्रथा, कन्या वध जैसी प्रथाएँ राज्य की महिलाओं को उनके मानवीय अधिकारों से वंचित कर रही थीं, परन्तु सती प्रथा ने मानवता को कलंकित कर दिया था।स्त्री-शुचिता, चारित्रिकउत्कृष्टता एवं भारतीय संस्कृति के परम्परागत निर्वाहन के नाम पर स्त्री के समस्त व्यक्तित्व को इस तरह सम्मोहित कर दिया जाता है कि वह स्वयं अपने पति की मृत्यु के पश्चात् अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती। 'जौहर प्रथा' को तथाकथित गौरवमय परम्परा, राज्य के सत्ता सम्पन्न एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पोषकों ने घोषित कर येन-केन प्रकारेण स्त्री को विवश किया कि वह वैधव्य को छोड़कर स्वयं को पति के साथ चिता में जला ले। उल्लेखनीय है कि राजा राम मोहन राय ने पुरजोर तरीके से 'सती प्रथा'क | िवरोधक रतेह एय हउ ल्लेखि िकया िकव दोंए वंह मारे धर्मग्रन्थों में सती प्रथा' के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं है। इसलिए इसे शास्त्रसम्मत कहना अनुचित होगा।
महिलाओं के संदर्भ में जब मध्यकाल में कुप्रथाओं की चर्चा की जाती है तो राज्य का नाम 'डाकन प्रथा' से जुड़ा हुआ दिखाई देता है। इस परम्परा को यूँ तो अंधविश्वास कहा जाता रहा है परन्तु इस परम्परा का सच इससे भी कहीं अधिक एक सोची-समझी गई योजना से ज्यादा रहा है। शोध बताते हैं कि अधिकतर 'डायन' उन्हीं महिलाओं को घोषित किया जाता था, जो अकेली हो या विधवा हो और जिसकी सम्पत्ति को परिवार के अन्य सदस्य या फिर गाँव के प्रभुत्वशील लोग हड़पना चाहते हों। ऐसी महिलाओं को गाँव के पुजारी या तांत्रिक के जरिए, 'डायन' घोषित करवाया जाता था और इस क्रूर प्रथा के चलते अंततोगत्वा महिला को इतना प्रताड़ित किया जाता कि उसकी मृत्यु हो जाती। दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष तो यह है कि आज भी यदाकदा, राज्य के सुदूर पिछड़े क्षेत्रों से ऐसी खबर आती रहती है।
राजस्थान की महिलाओं का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करते हुए भक्तिकाल के संदर्भ में चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। भक्ति आंदोलन का उद्भव समाज में फैली कुप्रथाओं के विरुद्ध हुआ था। भक्ति आंदोलन की इस परम्परा में राजस्थान में भी कई संत हुए जिनमें संत रैदास, जांभोजी, रामचरण दादू, धन्ना आदि प्रमुख थे, लेकिन स्त्रियों की स्थिति को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय नाम 'मीराबाई' का है। मध्यकाल में जब स्त्री को घर की चारदीवारी के भीतर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया गया था, उस समय मीरा ने हर सामाजिक बंधन को तोड़ कर ईश्वर भक्ति में स्वयं को लीन करते हुए काव्य रचना की। उनके काव्य में लोकलाज तजने, कुल मर्यादा को लांघने का उल्लेख मिलता है। यहाँ आध्यात्मिक समानता पर आधारित भक्ति का आचरण स्त्री पराधीनता को प्रत्यक्ष चुनौती थी।
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