नियतिवादी सिद्धांत की आलोचना : नियतिवादी के मार्क्सवादी सिद्धांत में निःसन्देह एक महान् सत्य का प्रतिपादन किया गया है, परन्तु इसमें सम्पूर्ण सत्य निहि
- नियतिवादी सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये।
- सोरोकिन के सांस्कृतिक गतिशीलता के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
नियतिवादी सिद्धांत की आलोचना
नियतिवादी के मार्क्सवादी सिद्धांत में निःसन्देह एक महान् सत्य का प्रतिपादन किया गया है, परन्तु इसमें सम्पूर्ण सत्य निहित नहीं है। इस तथ्य को कम लोग ही अस्वीकृत करेंगे कि आर्थिक तत्व जीवन की सामाजिक अवस्थाओं को प्रभावित करते हैं परन्तु कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति इस मान्यता को स्वीकार नहीं करेगा कि आर्थिक तत्व अकेले ही मानव इतिहास के एक मात्र सक्रिय कारण है। अन्य तत्व भी इतिहास को प्रभावित करते रहते हैं। इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि समाज मार्क्स द्वारा परिकल्पित अवस्थाओं में से अवश्य ही गुजरता है। उसकी यह धारणा कल्पनात्मक है। मूल्य एवं अतिरिक्त मूल्य के बारे में मार्क्स का सिद्धांत आधुनिक अर्थशास्त्रियों को मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक परिवर्तन एवं आर्थिक प्रक्रिया के मध्य सम्बन्ध की मार्क्सवादी व्याख्या अपर्याप्त मनोविज्ञान पर आधारित है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अपर्याप्त मनोविज्ञान कदाचित् सभी नियतिवादी की विनाशक दुर्बलता है। मार्क्स हमें यह नहीं बतलाता कि उत्पादन के ढंगों में परिवर्तन किस प्रकार होता है वह ऐसा समझता है कि
जैसे उत्पादन की परिवर्तनशील प्रविधि स्वयं अपनी व्याख्या कर रही है। वह सामाजिक परिवर्तन की सरल व्याख्या प्रस्तुत करता है तथा जीवन की जटिलताओं की अवहेलना करता है। वह संस्थाओं के इर्द-गिर्द एकत्रित मनोवृत्तियों का सरलीकरण करता है। परिवार के प्रति भक्ति एवं इसकी दृढ़ता को, व्यवसाय एवं चिन्तन को आर्थिक वर्ग के अधीन कर देता है। वस्तुतः उसने सामाजिक परिवर्तन के कारणों के जटिल प्रश्न का न्यायोचित रूप में सामना नहीं किया है। आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तन परस्पर-सम्बद्ध हैं, इस तथ्य से कोई इंकार नहीं करेगा, परन्तु यह कथन कि सामाजिक सम्बन्धों की अधिरचना आर्थिक संरचना द्वारा निश्चित होती है, अतिशयोक्तिपूर्ण है। रसेल (Russell) ने लिखा है, "मनुष्य सत्ता चाहते हैं वे अपने अहं एवं आत्मसम्मान हेतु संतुष्टियाँ चाहते हैं। वे प्रतिद्वन्द्वी पर इतनी तीव्रता से विजय पाना चाहते हैं कि विजय को सम्भव बनाने के अचेत उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रतिद्वन्द्विता को उत्पन्न कर लेंगे। ये सभी उद्देश्य विशुद्ध आर्थिक उद्देश्यों को महत्वपूर्ण ढंगों से काट देते है।" सामाजिक परिवर्तन की नियतिवादी व्याख्या एकांगी एवं अतिसरलीकृत है।
आर्थिक नियतिवाद के सिद्धांत की आलोचना करने वाले कुछ सामाजिक विचारों की धारणा है कि संस्कृति के अभौतिक तत्व सामाजिक परिवर्तन के मूलभूत स्त्रोत हैं। वे विचारों को सामाजिक जीवन के आधारभूत चालक समझते हैं। आर्थिक अथवा भौतिक घटनावस्तु को अभौतिक के अधीन समझा जाता है। गुस्तेव ली बान (Gustave Le Bon), जॉर्ज सोरल (George Sorel), जेम्स जी० फ्रेजर (James G. Frazer) एवं मैक्स वेबर (Max Weber) का विचार था कि धर्म सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख चालक है। इस प्रकार हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म एवं यहूदी धर्म का अपने अनुयायियों की आर्थिक गतिविधियों पर निर्धारक प्रभाव पड़ा है।
सोरोकिन (Sorokin) ने अपनी पुस्तक 'Contemporary Sociology Theories' में धार्मिक नियतिवाद के सिद्धांत की आलोचना की। उसने प्रश्न रखा, "यदि सभी सामाजिक संस्थायें धर्म में परिवर्तन के प्रभावाधीन बदलती हैं तो स्वयं धर्म में कब और क्यों परिवर्तन आता है?" सोरोकिन के अनुसार, परिवर्तन संस्कृति के अनेक अंगों की अन्तः क्रिया द्वारा उत्पन्न होता है जिनमें से किसी को भी प्रमुख नहीं कहा जा सकता। इसका अर्थ है कि परिवर्तन एकलवादी न होकर बहुलवादी है। परन्तु सिम्स (Sims) ने सामाजिक परिवर्तन के बहुलवादी सिद्धांत की आलोचना की है। उसका कथन है कि परिवर्तन भौतिक संस्कृति में प्रारम्भ होता है जहाँ से वह अन्य क्षेत्रों में फैल जाता है। परिवर्तन न केवल आर्थिक तत्वों द्वारा उत्पन्न होता है, अपितु अधिकांशतया स्वरूप में स्वचालित भी है।
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