हर्बर्ट रिजले के भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण भारत की प्रजातियों के वैज्ञानिक विवेचन में हर्बर्ट रिजले अग्रणीय हैं । लिखित प्रमाणों के अभाव...
हर्बर्ट रिजले के भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण
भारत की प्रजातियों के वैज्ञानिक विवेचन में हर्बर्ट रिजले अग्रणीय हैं । लिखित प्रमाणों के अभाव में यद्यपि विभिन्न प्रजातियों के वर्गीकरण और उनकी उत्पत्ति को स्पष्ट करना अत्यधिक कठिन था,लेकिन श्री रिजले ने मानवमितीय पद्धति (anthropometry) के आधार पर अध्ययन करके भारत की समस्त प्रजातियों को सात प्रमुख भागों में विभाजित किया। इन सात प्रजातियों में आपने प्रथम तीन प्रजातियों को मौलिक जबकि शेष को विभिन्न प्रजातियों के मिश्रण के रूप में स्वीकार किया। इन प्रजातियों की शारीरिक विशेषताओं और उनके क्षेत्रीय वितरण को निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है :
(1) द्रवीडियन (Dravidian)-द्रविड़ प्रजाति के शारीरिक लक्षण भूमध्यसागरीय प्रजाति के ही समान हैं। रिजले ने इस प्रजाति को भारत की मूल अथवा सबसे प्राचीन प्रजाति के रूप में स्वीकार किया है । इस प्रजाति के लोग गंगा के निचले हिस्से से लेकर तमिलनाडु तक फैले हुए हैं। इनका प्रमुख तमिलनाडु, हैदराबाद, मध्य प्रदेश के दक्षिणी भागों और छोटा नागपुर के पठारी प्रदेश में पाया जाता है। दक्षिण भारत के पनियन लोग और छोटा नागपुर की संथाल जनजाति इस वर्ग के सबसे स्पष्ट प्रतिनिधि हैं। इस इस प्रजाति के व्यक्तियों का कद छोटा, रंग काला, बाल सामान्य से अधिक और लहरदार, लम्बा सिर,कुछ चौड़ी और भारी नाक तथा गहरी काली आँखें कुछ प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ हैं।
(2) इण्डो-आर्यन (Indo-Aryan) - यह व्यक्ति काँकेशायड प्रजाति की विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं। उन्हें अल्पाइन प्रजाति की आमीनॉइड शाखा के अधिक निकट माना जा सक्ता है। भारत में इस प्रजाति के लोग पजाब, राजस्थान, कश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैले हुए हैं। इनकी शारीरिक विशेषताओं में लम्बा कद, गोरे से गेहुँए तक रंग,लम्बा सिर, नाक पतली और लम्बी, काली आखें और शरीर पर घने बाल अधिक महत्वपूर्ण हैं।
(2) मंगोलॉयड (Mongoloid) - भारत की कुल जनसंख्या में इस प्रजाति के व्यक्तियों प्रतिशत कम होने पर यह काफी लम्बे क्षेत्र में फैले हुए हैं। उत्तर भारत में हिमालय की तलहटी तथा पर्वतीय प्रदेशों (अर्थात् हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के उत्तरी सीमान्त प्रान्त) में इस प्रजाति के लोगों का केन्द्रीयकरण है। इस प्रजाति के व्यक्तियों का सर चौडा. कद औसत,रंग पीलापन लिये हुए, चेहरा गोल,शरीर पर बालों की मात्रा कम, आँखें भारी और अधखुलीं, नाक कुछ छोटी और चपटी लेकिन सुन्दर, मुलायम बाल आदि कुछ प्रमुख शारीरिक विशेषताएं हैं। भारतीय ग्रन्थों में इस प्रजाति को कहीं-कहीं पर 'किरात' के नाम से सम्बोधित किया गया है।
(4) आर्यो-द्रवीडियन (Aryo-Dravidian) - यह प्रजाति आर्य और द्रविड़ प्रजाति के मिश्रण का परिणाम है । इस प्रजाति के व्यक्ति पंजाब के दक्षिण-पूर्वी भागों, उत्तर प्रदेश के अधिकांश हिस्सों, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, बिहार, दक्षिण-पश्चिमी असम और उत्तरी मध्य प्रदेश में पाये जाते हैं। एक मिश्रित प्रजाति होने के कारण इसकी शारीरिक विशेषताएँ इण्डो-आर्यन तथा द्रविड़ प्रजाति से मिलकर बनी हैं। इस प्रकार मध्यम कद, गेहुँए से लेकर साँवले रंग तक, लम्बा सिर, नाक मध्यम से लेकर लम्बी तक और आँख का काला रंग इस प्रजाति की प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ हैं।
(5) मंगोलो-द्रवीडियन (Mongolo-Dravidian)-रिजले का विचार है कि इस प्रजाति की उत्पत्ति मंगोल प्रजाति का ऐसे द्रविड़ों से मिश्रण होने से हुई जिनके रक्त में कुछ अंश इण्डो-आर्यन प्रजाति का था। इस प्रकार मंगोलो-द्रवीडियन प्रजाति में प्रमुख रूप से मंगोल और द्रविड़ तथा कुछ अंश में इण्डो-आर्यन प्रजाति की शारीरिक विशेषताओं का मिश्रण है। इनका रंग काला, सिर चौडा और पीछे से कुछ चपटा, नाक मध्यम और कभी-कभी कुछ चपटी, मध्यम कद तथा चेहरे पर घने बाल कुछ प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ हैं। इस शाखा के स्पष्ट प्रतिनिधि पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा में सबसे अधिक संख्या में हैं।
(6) सीथो-द्रवीडियन (Scvtho-Dravidian) - यह प्रजाति मध्य एशिया से भारत में आने वाली सीथियन प्रजाति तथा भारत की मूल द्रविड़ प्रजाति की मिश्रित शाखा है। इस प्रजाति के लोग मध्य प्रदेश महाराष्टं तथा कुर्ग की पहाड़ियों में फैले हुए हैं। महाराष्ट्री ब्राह्मण इस प्रजाति के विशेष प्रतिनिधि माने जाते हैं। सीथियन प्रजाति में मंगोल तत्वों की अधिकता कारण सीथो-द्रवीडियन वर्ग भी दो भागों में विभक्त है। उच्च समूहों में सीथियन विशेषताओं की अधिकता है जबकि निचले समूहों में द्रविड़ प्रजाति की । सामान्य रूप से गोरा रंग, चौड़ा सिर, मध्यम कद, सुन्दर और छोटी नाक और शरीर पर कम बाल इस प्रजाति की कुछ प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ हैं।
(7) तुर्को-इरानियन (Turko-Iranian) - रिजले ने भारत के प्रजातीय तत्वों का विवेचन अविभाजित भारत के समय में दिया था। इस कारण आपने यहाँ उस शाखा का भी उल्लेख किया जो बिलोचिस्तान के बिल्लोच और ब्राहुई लोगों की विशेषताओं को स्पष्ट करती थी। वर्तमान भारत में इस प्रजाति के अब कोई लक्षण उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इस शाखा को हर अपनी अध्ययन-वस्तु में सम्मिलित नहीं करते।
भारत में उपर्यक्त प्रजातियों की उत्पत्ति किस प्रकार तथा किस क्रम में हुई ?
प्रजातियों की उत्पत्ति स्पष्ट करने में भी रिजले ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आपके अनुसार भारत में विभिन्न प्रजा समूहों की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा है :
- द्रविड़ भारत की मूल और प्राचीनतम प्रजाति है । इस प्रजाति का आस्टेलिया आदिवासियों अथवा आस्ट्रेलॉयड से कोई सम्बन्ध नहीं है । यह कहना कि यह नीग्रिटो प्रकार की ही एक उपशाखा है, गलत है क्योंकि द्रविड़ प्रजाति में नीग्रिटो की कोई विशेषता नि" रूप से नहीं मिलती। आरम्भ में यह भारत के लगभग सभी भागों में फैली हई थी ले बाद में इण्डो-आर्यन प्रजाति के द्वारा आक्रमण होने के कारण यह दक्षिण भारत की ओर लगी और बाद में यहीं स्थायी रूप से रहने लगी।
- भारत में सबसे पहले बाहर से आकर बसने वाली प्रजाति इण्डो-आर्यन थी। दो प्रजाति ने मध्य एशिया की ओर से भारत के उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त से यहाँ प्रवेश
- और इस प्रकार आरम्भ में भारत के पश्चिमी सीमा प्रान्त में बस गई,जहाँ से इसने सबसे पर उत्तर भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया।
- इण्डो-आर्यन प्रजाति द्वारा उत्तर भारत की ओर बढ़ने के समय सबसे पहले उनका मिश्रण द्रविड़ प्रजाति से हुआ। इस प्रकार आरम्भ में इण्डो-आर्यन प्रजाति जिन-जिन क्षेत्रों की
- ओर बढती रही. इनके मिश्रण से आर्यो-द्रवीडियन प्रजाति की उत्पत्ति हुई जिसकी विशेषताएं आज समस्त उत्तर प्रदेश के अधिकांश भागों, बिहार और मध्य प्रदेश के ऊपरी हिस्सों में पायी जाती हैं।
- इसके पश्चात् उत्तरी एशिया की ओर से भारत की उत्तरी-पूर्वी सीमा से होकर मंगोल प्रजाति ने यहाँ प्रवेश किया। आरम्भ में यह प्रजाति केवल पहाड़ी प्रदेशों तक ही सीमित रही तथा इन्हीं प्रदेशों में इस प्रजाति की विशेषताओं का पर्याप्त विकास हुआ। इसी कारण उत्तर भारत के समस्त पहाड़ी क्षेत्रों में इस प्रजाति के तत्व आज भी बहुतायात के साथ विद्यमान हैं।
- कुछ समय के बाद मंगोल प्रजाति ने नेपाल के नीचे से बंगाल और उड़ीसा की ओर बढ़ना आरम्भ किया। दूसरी ओर पश्चिम भारत की ओर से इण्डो-आर्यन प्रजाति का भी भारत के अन्य क्षेत्रों में विस्तार हो रहा था। इसके फलस्वरूप पहाड़ों की तलहटी और उसस कुछ नीचे तक के क्षेत्रों में मंगोल तथा द्रवीडियन प्रजाति का मिश्रण होने से मंगोलो-द्रवीडियन प्रजाति की उत्पत्ति हुई, जबकि बंगाल और उडीसा में मंगोलो-द्रविडियन प्रजाति की विशेषताज में इण्डो-आर्यन प्रजाति की कुछ विशेषताएँ सम्मिलित हो गयीं।
- भारत में पायी जाने वाली सीथो-द्रवीडियन प्रजाति की उत्पत्ति तब हुई जब मध्य एशिया में ही रहने वाली सीथियन प्रजाति ने भारत के पश्चिमी भाग से यहाँ प्रवेश किया। आरम्भ में यह प्रजाति पंजाब राजस्थान तथा गुजरात की ओर बढ़ी लेकिन आर्यों के आक्रमण के फलस्वरूप इसने दक्षिण भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया और इसी समय इसका द्रविड प्रजाति से मिश्रण होने लगा। रिजले ने मराठा लोगों को इसी मिश्रण का परिणाम बताया है। सीथियन प्रजाति को भारतीय लेखों में शक नाम से भी सम्बोधित किया गया है।
रिजले द्वारा प्रस्तुत भारत की विभिन्न प्रजातियों और उनके स्थानीय वितरण को निम्नांकित मानचित्र से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । इस मानचित्र में रिजले द्वारा प्रस्तुत तुर्की ईरानियन प्रजाति को सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि अब यह भारत के क्षेत्र में नहीं है। इसके स्थान पर हमने गुहा द्वारा वर्णित 'चौड़े सिर वाली प्रजाति' को सम्मिलित कर लिया है।
रिजले का प्रजातीय वर्गीकरण की आलोचना
समालोचना-रिजले के विचार अत्यधिक व्यवस्थित होने के बाद भी कुछ दोषों से युक्त हैं। इसी कारण हट्टन तथा गुहा ने रिजले के निष्कर्षों को पूर्णतया स्वीकार नहीं किया है। उपयुक्त वर्गीकरण के प्रमुख दोषों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है :
(1) यह कहना कि द्रविड भारत के प्राचीनतम निवासी थे, उचित प्रतीत नहीं होता। वास्तव में प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड प्रजाति के तत्व सबसे अधिक मौलिक और प्राचीन हैं।
(2) रिजले ने जिन प्रजातियों का उल्लेख किया है उनमें अनेक शब्द एक विशेष भाषा-भाषी समूहों को स्पष्ट करते हैं, किसी प्रजाति को नहीं । जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं द्रविड़ अथवा 'आर्य' भाषा-समूह के लोगों को एक प्रजाति मान लेना बिल्कुल गलत है। क्योंकि यह नाम तो केवल उन समूहों का था जो द्रविड़ अथवा आर्य भाषा बोलते थे। इस प्रकार द्रविड़ अथवा आर्य भाषा-भाषी समूहों में एक से अधिक प्रजातियों के होने की सम्भावना सकती है।
(3) रिजले का वर्गीकरण पूर्ण नहीं है। भारत में आज ऐसे अनेक प्रजातीय तल हैं जिनका रिजले ने किसी भी प्रजाति के अन्तर्गत उल्लेख नहीं किया है।
(4) भारत की पौराणिक गाथाओं के आधार पर, यह भी सन्देह का विषय है कि मंगोल प्रजाति ने सीथियन अथवा शक प्रजाति से पहले प्रवेश किया। रिजले के अनुसार मंगोल प्रजाति का प्रवेश ईसा से लगभग 700 वर्ष पहले से आरम्भ हुआ था। यदि इस में विश्वास कर लिया जाये, तब भी सीथियन प्रजाति का यहाँ मंगोलों से पहले आना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि महाभारत काल के बहुत पहले से ही आर्यों और शकों अथवा सीथियन्स के बीच युद्धों का उल्लेख मिलता है।
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