ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिए - ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति के सुधारात्मक प्रयासों में ब्रिटिश शासन की महत्वपूर्ण भूमिका रही
ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिए
ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति के सुधारात्मक प्रयासों में ब्रिटिश शासन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, परन्तु इस काल में भारतीयों द्वारा समय-समय पर समाज सुधार के जो प्रयास किए गए उसमें ब्रिटिश सरकार के द्वारा इन प्रयासों को विशेष एवं व्यावहारिक सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। इस समय तक भारतीय स्त्रियों पर समस्त प्रकार की निर्योग्यताएँ लाद दी गई थीं। आर्थिक निर्योग्यताओं के सम्बन्ध में के.एम. पाणिक्कर ने अपनी पुस्तक 'हिन्दू सोसायटी एट क्रॉस रोड्स' में लिखा है".....पत्नी पति के परिवार का एक अंग हो गई और विधवाओं को मृत तुल्य मान लिया गया।" इन सभी निर्योग्यताओं के विरुद्ध अंततः देश के समाज सुधारकों ने प्रयास किए। 1828में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना करके सती प्रथा के विरुद्ध संघर्ष किया। उन्होंने कहा कि सती के संस्कार का शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है। देशी रियासतों में राजाओं के सहयोग से सती प्रथा को लगभग बंद कर दिया गया, परन्तु एक लंबे समय तक इसको वैधानिक स्तर पर अवैध कृत्य घोषित नहीं किया गया, आखिर कर 1829 में कानून ने इस प्रथा को अवैध करार दिया गया।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए आंदोलन चलाया और स्त्रियों की शिक्षा के लिए भी वकालत की। विधवा पुर्नविवाह तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए महर्षि कर्वे ने प्रयास किया। उन्होंने 1916 में एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र में स्थापित किया। बड़ौदा साम्राज्य के शासक, सायाजी राव गायकवाड ने भी बाल विवाह व बहुपत्नी विवाह रोकने, स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए हर संभव प्रयास किए।
स्त्री को शारीरिक, मानसिक तथा सर्वांगीण क्षति पहुँचाने का माध्यम बाल विवाह' जैसी कुप्रथा रही है। इस कुप्रथा को रोकने के लिए 1929 में बाल विवाह नियन्त्रण अधिनियम (शारदा एक्ट) पारित हुआ। इस कानून के अनुसार कन्या के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष तथा लड़के के 18वर्ष निर्धारित की गई। साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी, सरोजनी नायडू के शब्दों में, "सभी भारतीय और विशेषकर भारतीय नारियां हरिविलास शारदा के प्रति सदैव कृतज्ञ रहेंगी क्योंकि उन्होंने बड़े साहस और परिश्रम से प्रगतिशील समाजसुधार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।"
उन्नीसवी सदी के समाजसुधारकों के प्रयासों ने भारतीय इतिहास में महिलाओं की प्रस्थिति को उच्च करने के लिए जो प्रयास किए, उसी की परिणति विभिन्न वैधानिक व्यवस्थाएँ थी, जिन्होंने उत्तरोत्तर भारतीय स्त्रियों की स्थिति को परिवर्तित करने में महत्ती भूमिका निभायी
1. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (संशोधन विधेयक) 1929
2. हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार का अधिनियम, 1937
3. हिन्दू विवाह अयोग्यता निवारण अधिनियम, 1946
4. विशेष विवाह अधिनियम, 1954
5. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
6. दहेज प्रतिबंध अधिनियम, 1961 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम
7. समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976
भारतीय स्त्रियों की समानान्तर प्रस्थिति के लिए किए गए प्रयासों को तीन भागों में विभक्त किया गया है
1. महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन के अन्तर्गत प्रयत्न
2.स्त्री संगठनों द्वारा सुधार कार्य।
3. संवैधानिक व्यवस्थाएँ
महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की स्थिति संबंधी सुधार कार्यों को भी सम्मिलित किया। राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पश्चात् वे ब्रिटिश सरकार को स्त्रियों की स्थिति से संबंधित सुधार के प्रस्ताव प्रतिवर्ष भेजते रहे । महात्मा गांधी ने स्त्रियों को राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
भारतीय स्त्रियों की सामाजिक प्रस्थिति में बदलाव के लिए स्त्री संगठनों द्वारा भी अथक प्रयास किए गए। बंग महिला समाज व महिला थियोसोफिकल सोसायटी यद्यपि स्त्रियों के लिए आधुनिक आदर्शों को स्थापित करने की चेष्टा कर रही थी तथापि उनका कार्यक्षेत्र स्थानीय स्तर तक ही था। राष्ट्रीय स्तर पर भारत महिला परिषद (जो कि 1904 में स्त्रियों की मुक्ति के संघर्ष हेतु प्रारम्भ हुआ), 1910 में स्थापित 'भारत स्त्री महामण्डल', 1917 में एनीबेसेन्ट द्वारा संचालित महिला भारतीय संघ, 1925 में लेडी एबरडन तथा लेडी टाटा द्वारा आरम्भ किया गया 'भारतीय महिला राष्ट्रीय परिषद' तथा 1927 में मार्गरेट कसिन्स तथा अन्य द्वारा 1929 में स्थापित 'ऑल इंडिया वूमेन्स कॉन्फरेन्स'। इन सभी संगठनों का उद्देश्य पर्दा एवं बाल विवाह जैसी बुराइयों का उन्मूलन,हिन्दू अधिनियमों में सुधार, अधिकारों व अवसरों की समानता जैसे मुद्दों को उठाया।
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