भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण कीजिये। अथवा "भारत प्रजातियों का द्रावण पात्र है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए। भारत का प्रजातीय इतिहास...
भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण कीजिये।
भारत का प्रजातीय इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इसके प्रजातीय अध्ययन में कई कठिनाइयाँ आती हैं। एक तो भारत विशाल देश है, दूसरे प्रजातीय अध्ययन की सामग्री का अभाव है, तीसरे यहाँ प्रजातीय मिश्रण प्राचीनकाल से ही होता रहा है, चौथे अवशेषों के प्रति उदासीनता रही है और मृतकों को जलाने के कारण भी नर कंकाल सुरक्षित नहीं रह सके। उष्ण जलवायु के कारण कीड़े-मकोड़ों का बाहुल्य है जो प्रजातीय सामग्री को नष्ट कर डालते हैं। पांचवें विदेशी शासन के कारण भारतीयों की श्रेष्ठता के आधारों की उपेक्षा हुई। इसीलिए भारत में प्रजातीय तत्वों का अध्ययन और विश्लेषण न केवल अस्पष्ट है वरन जटिल भी है।
भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण
भारत के प्रजातीय तत्वों के अध्ययन के लिए सम्पूर्ण प्रजातीय इतिहास को दो भागों में बांटा जा सकता है : (1) प्रागैतिहासिक काल (2) ऐतिहासिक काल।
प्रागैतिहासिक काल
प्रागैतिहासिक काल के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अत्यन्त सीमित है। डा० मजमदार ने लिखा है की भारत के प्रागैतिहासिक काल के सम्बन्ध में हमें अब तक जो भी जानकारी प्राप्त है उसे एक आने के टिकट के पष्ठ भाग पर लिखा जा सकता है फिर भी इस युग के प्रजातीय तत्वों की जानकारी निम्न स्रोतों से होती है :-
1. पाषाण युग - इसके अवशेष दक्षिण प्रायद्वीप में मिलते हैं। इस आधार पर स्टुअर्ट पिगट ने लिखा है की यहाँ के निवासी पूर्व पुरुषाभ प्रजाति के प्रतिनिधि है।
2. नवापाषण युग - भारत के पूर्वी भाग में नवपाषाण युग की संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यहाँ के लोगों की प्रजाति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इन्हें क्रोमैगनन से सम्बन्धित और कुछ लोग आदि अग्नेयाभ या प्रोटो आस्ट्रालायड से सम्बन्धित मानते हैं।
3. नर्मदा घाटी सभ्यता - यह अति प्राचीन सभ्यता मानी जाती है। इसमें प्रजाति अवशेष न के बराबर प्राप्त हुए हैं अतएव प्रजाति के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट धारणा नहीं बन पाती।
4. सिन्धु घाटी सभ्यता - 5000 वर्ष पुरानी यह सभ्यता ताम्र तथा कांस्य युग से सम्बन्धित थी। इससे जो कंकाल, कर्पर व मूर्तियाँ मिली हैं उनसे तीन प्रजातीय तत्वों पर प्रकाश पड़ता है - (1) आदि अग्नेयाभ, (2) भूमध्यसागरीय, (3) अल्पाइन प्रजाति की आर्मीनायड शाखा।
5. वयाना स्यालकोट मरकान व मस्की - इन क्षेत्रों में खुदाई के फलस्वरूप कुछ कर्पर व नरकंकाल मिले। वयाना व स्यालकोट में मिले दो कर्परों का अध्ययन सर आर्थर कीथ ने किया और उन्हें आर्य प्रजाति का प्रतिनिधि बताया, मस्की में भूमध्यसागरीय व प्रोटोआस्ट्रालायड के प्रजातीय तत्व मिले।
इस तरह प्रागैतिहासिक काल की सामग्री अपर्याप्त है। इस समय का प्रजातीय इतिहास अस्पष्ट और धुंधला है। किन्तु इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल से ही भारत में कई प्रजातियाँ रहती रही हैं और उनमें मिश्रण होता रहा है।
ऐतिहासिक काल
ऐतिहासिक काल का आरम्भ वैदिक संस्कृति के विकास से होता है। इस काल के प्रजातीय इतिहास की सामग्री पर्याप्त तो नहीं किन्तु प्रागैतिहासिक काल की सामग्री की तुलना में अधिक स्पष्ट अवश्य है। इस काल के प्रजातीय तत्वों का अध्ययन व विश्लेषण जिन विद्वानों ने किया इनमें सर हर्बर्ट रिजले अग्रणी हैं। इस सम्बन्ध में अन्य उल्लेखनीय नाम हैं - हट्टन, बी. एल. गुहा, डी. एन. मजूमदार आदि।
रिजले के अनुसार भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण
रिजले के अनुसार अपने अध्ययन एक आधार पर सात प्रजातीय तत्वों का उल्लेख किया है। इनमें प्रथम तीन प्रमुख हैं - (1) द्रविड़, (2) मंगोल, (3) इण्डोआर्यन, (4) मंगोलोद्रवेडियन, (5) आर्योद्रवेडियन (6) साइथोद्रवेडियन, (7) टर्केइरानियन। रिजले के निष्कर्षों से अन्य विद्वान सहमत नहीं हुए।
हट्टन के अनुसार भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण
(1) नीग्रिटो, (2) प्रोटोआस्ट्रलायड, (3) भूमध्यसागरीय, (4) अल्पाइन प्रजाति की आर्मीन्वाइड शाखा, (5) मंगोल, (6) इण्डोआर्यन । डॉ० गुहा ने रिजले से तो मतभेद व्यक्त किया किन्तु हट्टन के निष्कर्षों को कुछ संशोधन के साथ स्वीकार किया।
डॉ० गुहा के अनुसार भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण
डॉ० गुहा ने भारत में 6 प्रजातीय तत्वों का उल्लेख किया है - (1) नीग्रिटो, (2) प्रोटोआस्ट्रलॉयड, (3) मंगोलॉयड, (4) भूमध्यसागरीय, (5) पश्चिमी चौड़े सिर की प्रजाति - (अ) अल्पाइन, (ब) डिनारी, (स) आर्मीन्वायड, (6) नार्डिक।
गुहा ने अपने निष्कर्षों में दो बातों पर बल दिया है - (1) नीग्रिटो तत्वों को सबसे प्राचीन माना है, (2) चौड़े सिर वाली प्रजाति को महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
डॉ० मजूमदार गुहा से इस बात पर सहमत नहीं कि नीग्रिटो प्रजाति भारत की प्राचीनतम प्रजाति है। इस सम्बन्ध में मजूमदार ने अनेक प्रमाण दिये हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत में आधुनिक समय में ही नहीं वरन अति प्राचीन काल से (प्रागैतिहासिक काल से) अनेक प्रजातीय तत्व मिलते रहे हैं। यहाँ बाहर से अनेक प्रजातियाँ आयीं तथा यहाँ के निवासियों में घुल मिल गयीं। वह मिश्रण भी अति प्राचीन काल से यहाँ होता रहा है। अतएव यह कहना उचित है कि स्मरणातीत काल से भारत परस्पर विरोधी प्रजातियों और सभ्यताओं का संगम स्थल रहा है और इसमें आत्मीकरण और समन्वय की प्रक्रियायें चलती रही हैं। भारत में इसके फलस्वरूप इतनी अधिक प्रजातियाँ मिलती हैं जितनी कि विश्व में अन्यत्र नहीं मिलती। अतएव यह कहना उचित है कि भारत प्रजातियों का द्रावण पात्र है।
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