अस्तित्ववाद (Existentialism) शब्द जर्मन भाषा के एग्जिस्टेन्स फिलॉसॉफी' के अनुवाद के हेतु प्रयोग में लाया गया था। साधारण भाषा में अस्तित्ववाद का अर्थ ह
अस्तित्ववाद का अर्थ, स्वरूप, विशेषताएं तथा विकास
अस्तित्ववाद का अर्थ
अस्तित्ववाद (Existentialism) शब्द जर्मन भाषा के एग्जिस्टेन्स फिलॉसॉफी' के अनुवाद के हेतु प्रयोग में लाया गया था। साधारण भाषा में अस्तित्ववाद का अर्थ हैं-"जो भी है--पशु, पक्षी, वस्तु सभी का अस्तित्व है।" किन्तु अस्तित्ववादी भाषा में अस्तित्व का सम्बन्ध केवल मानव के अस्तित्व से है।
'अस्तित्व' का अंग्रेजी पर्याय 'एग्जिस्टेन्स' (Existence) है, जिसका साधारण भाषा में अर्थ है 'इन्द्रिय सुलभ प्रत्येक उपस्थिति'।'दर्शनकोश' के अनुसार अस्तित्व का अर्थ है जीवित रहने की वह पद्धति, जो अन्य वस्तुओं के साथ समायोजन में निहित है।
"The mode of being which consists in interaction with other things."
अतः अस्तित्व का अर्थ केवल 'होना' ही नहीं है। प्रत्युत् 'होने की चेतना' है। जब तक अपने होने की 'चेतना' न हो तो, तब तक 'होना' अस्तित्व में परिणत नहीं किया जा सकता।'मैं हूँ' या 'यह मैं हूँ'--इस तरह की अनुभूति ही किसी भी प्राणी, वस्तु अथवा पदार्थ को अस्तित्वशील बना सकती है और इसी आधार पर अस्तित्ववाद का दर्शन स्थित है।
'अस्तित्ववाद' अपने वर्तपान अर्थ में 19वीं शदी के मध्य की उपज है। इसकी पृष्ठभूमि में औद्योगिक क्रान्ति जनित वह भौतिकता थी, जो मनुष्य-अस्तित्व की अवहेलना कर उसे निर्मूल्य कर रही थी। मनुष्य-अस्तित्व के इस अवहेलनात्मक सामाजिक दृष्टिकोण की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ चिन्तकों ने परम्परागत सामाजिक एवं धार्मिक मूल्य-मान्यताओं को निष्प्राण घोषित कर विशुद्ध मानवीय मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया। इन चिन्तकों में जर्मनी के फ्रेडरिक नीत्शे, कार्ल जेस्पर्स, मार्टिन हेडेगर, फ्रांस के ग्रेबियल मार्सेल, ज्याँपॉल सात्र, अल्बर्ट कामू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । डेनमार्क के सारेन किर्कगार्ड इस दार्शनिक प्रवृत्ति के प्रवर्तक हैं।
अस्तित्ववादी विचारकों में सर्वाधिक महत्त्व सार्च को दिया जाता है । साहित्य के क्षेत्र में इस दार्शनिक दृष्टिकोण को व्यापकत्व प्रदान करने वाले प्रथम दार्शनिक साहित्यकार सार्च ही हैं। अतः साहित्य में अस्तित्ववादी चिन्तन का प्रारम्भ सार्च से ही होता है, जिसका अनुकरण, बाद में बहुत-से लेखकों ने किया।
अस्तित्ववाद का स्वरूप
अस्तित्ववाद के अनुसार 'अस्तित्व' महत्त्वपूर्ण है। इसलिए सभी अस्तित्ववादी परम्परागत सिद्धांतों के विरोधी हैं। अस्तित्व के दो रूप हैं--धार्मिक और कला-सम्बन्धी।
धार्मिक रूप को प्रमुखता देने वाले दार्शनिकों का मत है कि मानवीय संघर्ष की क्रियाशीलता धार्मिक क्षेत्र में होनी चाहिए, जो ईश्वर-प्राप्ति का माध्यम बन सके। दर्शन, वस्तुतः इसी आधार पर विज्ञान से श्रेष्ठ होता है कि विज्ञान केवल वस्तुजगत् का अध्ययन करता है। अस्तित्ववादी अध्ययनों में वे रहस्य छिपे रहते हैं, जिनसे मानव जझता है और विश्वास-श्रद्धा का आधार स्वयं बनता है। इस आन्तरिक आत्मिक अनुभव को विज्ञान स्पर्श नहीं करता।
कार्ल जेस्पर्स का मत है कि जगत् का कोई भी तर्कपूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं किया जा सकता तथा बुद्धिवादियों का इस दिशा में कोई भी प्रयास व्यर्थ है, क्योंकि यह बहुत सम्भव है कि अस्तित्व के लिए वह 'मूर्तिशून्य' ही हो, जिसकी व्याख्या आवश्यक है। जगत् मृग-तृष्णा या माया नहीं है। अस्तित्व का वास्तविक अर्थ किसी मानव को किसी हठात् आघात (Shock) के माध्यम से ज्ञात हो सकता है। इस ज्ञान को आघात के माध्यम से ही प्राप्त करके मानव अपने दैनिक जीवन की दुश्चिन्ताओं से मुक्त हो सकता है।
कामू और सात्र अस्तित्ववाद के कला-सम्बन्धी रूप के स्थापक और पोषक हैं। इस 'वैयक्तिक आदर्शवादी कला सिद्धांत' का प्रतिपादन ज्याँपॉल सात्र ने 'अस्तित्व एवं मानव-स्वातंत्र्य में किया है। इस सिद्धांत के अनुसार कलाभिव्यंजना का मूल उद्देश्य 'अस्तित्व-सम्बन्धी विकिरण' है, जिसका अभिप्राय है--कला का उद्देश्य अतर्कवादी वैयक्तिक अनुभवों एवं दृष्टि-बोध का विकिरण करना।
वस्तुतः अस्तित्ववाद के अनुसार कला एवं साहित्य का उद्देश्य परोक्ष भावानुभूतियों का चित्रण करना होता है। ऑस्ट्रिया के कवि रिलके के सॉनेट और ऐलिगी (शोक-गीत) में इस प्रकार का चित्रण कुशलतापूर्वक किया गया है।
अस्तित्ववादी विचारक ज्ञान-विज्ञान को महत्त्वहीन मानते हैं। उनके लिए वह सब कुछ व्यर्थ है, जिससे अस्तित्व-बोध में सहायता नहीं मिलती। अस्तित्ववादी पूर्ण स्वतन्त्रता में जीकर अन्त में मृत्यु को 'अस्तित्व' का अनिवार्य अंश मानकर उसका साहसपूर्वक वरण करना चाहते हैं। सार्च का कथन है--'' मृत्यु नहीं आती है, जब तक 'मैं हूँ', मृत्यु के आने के बाद मैं हूँ ही नहीं', इसलिए बाधा कैसी? जन्म की भाँति मृत्यु भी एक शुद्ध तथ्य है।"
अस्तित्ववादी के लिए स्वतन्त्रता ही जीवन-दर्शन का मूलाधार है और मूल्यहीन साहित्य-दर्शन का एकमात्र मूल्य।
अस्तित्ववादी दर्शन का प्राण-तत्त्व चयन को स्वच्छन्दता अथवा वैयक्तिक स्वच्छन्दता है। इसलिए उनके साहित्य में घोर अराजकता, उन्मुक्त भोग, यौनवादिता, नास्तिकता, असामाजिकता, विज्ञान-विरोधिता आदि अनेक अनाचारी एवं अवांछनीय तत्त्वों की बहुलता पाई जाती है।
अस्तित्ववाद की विशेषताएं
अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि में मनुष्य की समस्या ही सर्वोपरि है। उसका ठोस अस्तित्व, व्यक्तिगत स्वच्छन्दता तथा अपने क्रिया-कलापों के निर्माण एवं उत्तरदायित्व का स्वतन्त्र अनुभव ही वे स्तम्भ हैं, जिन पर अस्तित्ववादी दर्शन का महल खड़ा है। साहित्य के क्षेत्र में यह जीवन-दृष्टि पूर्णतः व्यक्तिवादी, आत्मकेन्द्रित, अन्तर्मुखी और आत्मनिष्ठ विचारधारा है। अस्तित्ववाद की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1. व्यक्तिगत स्वच्छन्दता पर बल : अस्तित्ववादी दर्शन में स्वातन्त्र्य का बहुत महत्त्व है। ज्यों ही मनुष्य अस्तित्व में आता है, वह अपने स्वतन्त्र चयन द्वारा कार्य करके अपने अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है। कोई दैवी शक्ति उसके स्वभाव को नहीं बनाती। अस्तित्ववादी सभी प्रकार के परम्परित जीवन-मूल्यों के प्रति विद्रोह करना सच्ची वैयक्तिक स्वच्छन्दता मानते हैं। उनके अनुसार जीवन की निरर्थकता के प्रति विद्रोह करने वाले ही सच्चे अर्थों में मुक्त हैं। जिन्हें इस निरर्थकता का बोध हो गया, वे जीवन के प्रति सही अर्थ में विद्रोही हैं। इस विद्रोह का अभिप्राय है जीवन के परम्परागत मान-मूल्यों के प्रति समाज, धर्म, नीति आदि से सम्बन्धित धारागाओं एवं विचारों के प्रति विद्रोह।
2. अस्तित्ववाद मानवतावादी दर्शन है : सार्त्र अस्तित्ववादी दर्शन को मानवतावादी दर्शन की संज्ञा देते हैं । मनुष्य की पूर्ण गरिमा, उसके कृतित्व, अस्तित्व आदि का मतलब यही है कि उसे सभी प्रकार की पराधीनता से मुक्त कर दिया गया है। उस पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है। स्वतन्त्रता ही अस्तित्ववादी दर्शन का मूल है।
पूर्ण स्वतन्त्रता तथा अपने-आपको बनाने की स्वतन्त्रता मनुष्य के ऊपर विशेष प्रकार का दायित्व प्रदान कर देती है। मनुष्य पूर्णतया अपने प्रति उत्तरदायी है। वह जो कुछ भी है, अपनी इच्छा से है । वह अपने को जैसा बनाना चाहता है, वैसा बना सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना भविष्य चुनने के लिए स्वाधीन है, किन्तु अस्तित्ववाद में उत्तरदायित्व की उपेक्षा नहीं की गई है। इतना निश्चित है कि अस्तित्ववादी विचारधारा वाला व्यक्ति सामाजिक दायित्व की परवाह नहीं करता।
3. जीवन की निरर्थकता का अनुभव : अल्बर्ट कामू मानव की अभिलाषाओं एवं आशाओं का इस निरर्थक संसार से अनवरत संघर्ष मानते हैं, क्योंकि उनका प्रतिफलन असम्भव है। अतः संसार के सभी व्यापार अकारथ हैं। मानव का जीवन एक निरर्थक प्रयास है। जैसे सिसीफस का पहाड़ पर पत्थर चढ़ाने का प्रयास और फिर नीचे गिर पड़ने का क्रम। आधुनिक सभ्यता में मानव-जीवन भी इसी प्रकार व्यर्थ एवं अकारथ है। अस्तित्ववादी कामू इसी अनर्गल बोध से प्रभावित होते हुए निराशावादिता, पीड़ा, एकाकीपन एवं वैयक्तिक स्वच्छन्दता की ओर अग्रसर हैं।
4. मानव-स्थिति को पीड़ाजनक मानना : अस्तित्ववादी मानव-स्थिति को पूर्णतः दुःखद और पीड़ाजनक मानते हैं। इस दृष्टि से वे घोर निराशावादी हैं। पीड़ा, संत्रास, दुःख, यातना, एकाकीपन अथवा आत्म-निर्वासन से युक्त जीवन जीना मनुष्य की अनिवार्य स्थिति है । वे मानव-स्थिति का सीमा-निर्धारण करते हुए मृत्यु को उसकी सीमा मानते हैं।
5. मृत्यु-बोध की मान्यता : अस्तित्ववादी मृत्यु को मानवीय स्थिति की सीमा मानते हैं। उनकी दृष्टि से मृत्यु की उपयोगिता है। वह जीवन का शुद्ध तथ्य है, क्योंकि मृत्यु से ही मनुष्य में निरासक्ति का भाव पैदा होता है तथा अस्तित्व-बोध के लिए मृत्यु जैसे धक्के की आवश्यकता है। मृत्यु-बोध मनुष्य को अस्तित्व-बोध कराने का महत्त्वपूर्ण अनुभव है; जैसे--टॉलस्टॉय की कहानी 'ईवान इलिच' में मृत्यु का प्रसंग, जिसमें अति सम्पन्न, पूर्णतः प्रतिष्ठित और अपने जीवन में अति सफल व्यक्ति ईवान इलिच को अचानक सीढ़ियों से गिरकर मरते हुए जीवन के प्रति मोह पैदा होता है। इलिच के शब्द--"काश, मैं जीवन फिर से प्रारम्भ करता"-- इस बात के द्योतक हैं कि आज की सभ्यता ने मनुष्य को अकेला कर दिया है। वह अपना आपा खो चुका है।
हिन्दी की नयी कविता में अस्तित्ववादी लहर व्याप्त है। नयी कविता के रचनाकारों में धर्मवीर भारती, भारतभूषण अग्रवाल, दुष्यन्त कुमार, कुँवर नारायण, अज्ञेय आदि की कविताओं में अनास्था, अस्तित्व-बोध, मृत्यु-बोध, वैयक्तिक स्वच्छन्दता, निराशा, पीड़ा, उन्मुक्त भोग आदि प्रवृत्तियों की अनुगूंज पाई जाती है।
6. निराशा का महत्त्व : अस्तित्ववादी दर्शन में निराशा का भी एक आधार है। इसका कारण है अपार सम्भावनाओं की स्थिति । प्रत्येक व्यक्ति कर्म करता है, वह परिस्थितियों और रुचि तथा विवेक के अनुसार निर्णय करता है, फिर भी, उसे वह नहीं मिलता, जो यह चाहता है। इसका मतलब हुआ कि व्यक्ति इच्छा करने में तो स्वतन्त्र है किन्तु इच्छा को पूर्ण करना उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर हैं। जैसे--एक व्यक्ति अपने मित्र के आने की प्रतीक्षा करता है, किन्तु उसका मित्र समय पर पहुँच जाएगा, इस पर उसका अधिकार नहीं है। इस विषय में वह कुछ भी नहीं कह सकता। मित्र का समय पर आना अनेक बातों पर निर्भर करता है वे बातें न तो मित्र जानता है और न उन पर उसका अधिकार है। इस प्रकार अनेक सन्दर्भ इस तथ्य से जुड़े हैं। इस प्रकार अस्तित्ववादी दर्शन में निराशा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
7. नैतिकता और उत्तरदायित्व की भावना : अंस्तित्ववादी दर्शन की. मान्यता है कि मनुष्य जब स्वतन्त्रतापूर्वक चयन करता है तो कभी अशिव का चयन नहीं करता। वह मंगल एवं सत्य को ही मूल्य बनाता है। वह अपनी आत्मिक स्वतन्त्रता का उपभोग करता हुआ शक्तिशाली हो जाता है और शक्तिशाली कभी भी अनुचित व्यवहार नहीं करता। नीत्शे का मत है कि "जो व्यक्ति शक्ति प्राप्त करना चाहता है, वह कोई भी उपाये काम में ला सकता है, किन्तु जिसने शक्ति प्राप्त कर ली है, वह सदैव संज्जनता, सभ्यता और ईमानदारी का व्यवहार करेगा।"
स्वतन्त्रता के साथ उत्तरदायित्व का भाव भी संलग्न है। मनुष्य स्वतन्त्र है तथा उत्तरदायी भी। जिस मनुष्य में उत्तरदायित्व की भावना नष्ट हो जाती है, उसका विकास भी रुक जाता है। सार्च का मत है कि मनुष्य प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदायी है। अस्तित्ववाद का प्रथम प्रयास यही है कि मनुष्य को उसके प्रति सजग किया जाए। परिस्थितियों की आड़ लेकर उत्तरदायित्वों से दूर भागना अनैतिक है, अनुचित है। अस्तित्वशील मानव अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग करता हुआ आत्मिक रूप से अनुभूत मूल्यों का पालन करता है। अपने लिए मूल्यों का चुनाव मानव उत्तरदायित्वपूर्वक स्वयं करता है।
अस्तित्ववाद का विकास
अस्तित्ववाद की भूमिका नीत्शे एवं किर्कगार्ड ने उन्नीसवीं सदी में ही तैयार कर दी थी। यद्यपि उन्होंने कोई दर्शन प्रतिपादित नहीं किया, तथापि उनके विचार अस्तित्ववादी दृष्टिकोण को प्रेषित करते हैं और इसी, कारण वह आधुनिक युग के अस्तित्ववाद का प्रवर्तक बन गये। उनके अनुसार धर्म आन्तरिक विकल्प होता है, जिसमें श्रद्धा की आवश्यकता होती है। कला, विज्ञान एवं इतिहास उसके पूरक हैं और उसके अंग हैं। जीवन मानव के निश्चय पर निर्भर करता है। मानव उत्सुकता की स्थिति में रहता है और निराशा के मार्ग से गुजरता है। इन्हीं विचारों के आधार पर जर्मनी में अस्तित्ववादी विचारधारा का सूत्रपात हुआ। .
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हेडेगर ने अस्तित्ववादी विचारधारा को आगे बढ़ाया। उनके अनुसार मानव असहिष्णु संसार में अपने उद्देश्यों की पूर्ति के हेतु संघर्ष करता है जिसका परिणाम 'न कुछ' तक पहुँचते-पहुंचते मृत्यु तक पहुँच जाता है।
जेस्पर्स के अनुसार विधान और दर्शन, दोनों ही सत्य की खोज में असफल हैं। कोई भी व्यक्ति एकान्तिक नहीं है। अस्तित्व का भी विस्तार होता है। समस्त अध्यात्म दार्शनिक के लिए एक अस्तित्ववान्' की खोज है। इनकी दृष्टि में भी निराशा एवं खीझ का प्रतिपादन तथा मृत्यु का अनिवार्य भय है, जो अस्तित्व की चरम तृप्ति है।
ज्याँपॉल सात्र नास्तिक अस्तित्ववाद के प्रतिपादक हैं। उनका मत है कि ईश्वर मर चुका है। वस्तुतः अस्तित्ववाद 'नास्ति' की स्थिति में निकाले गए प्रयासों या परिणामों का प्रयास मात्र है। सात्र ने 'ईश्वर है' के विचार को नकारा है तथा अस्तित्व को सार से भी पूर्व की स्थिति माना है। चेतन विषय अपने लिए होता है और वस्तु जगत् स्वयं में होता है। मानव कुछ भी करने में स्वतन्त्र है, परन्तु वह मृत्यु के भय से ग्रस्त रहता है।
अस्तित्ववाद की उपलब्धियाँ
अस्तित्ववाद आधुनिक युग की सबसे बड़ी विशेषता और माँग--व्यक्तिगत मानवीय स्वतन्त्रता पर विशेष बल देता है। मानव को व्याख्यायित करना, मानव-चेतना का मूल्य बताना, मानव को पूर्णरूपेण उत्तरदायी सिद्ध करना तथा अपरिहार्य मृत्यु के लिए उसे तैयार करना अस्तित्ववाद की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।
मानव की जो व्याख्या और परिभाषा इस दर्शन में प्रस्फुत की गई है, उसको कहीं से भी निरस्त नहीं किया जा सकता।
यह वर्ग-समुदाय की सारहीनता को सिद्ध करता है और नये यथार्थ-बोध के आधार पर नवीन मूल्य-बोध के सृजन द्वारा जीवन और जगत् में क्रान्ति लाते रहने का पक्षधर है, जिससे कोई मूल्य-बोध जड़ न हो जाए।
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