अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए संवैधानिक उपाय : अनूसूचित जातियों की एक लम्बे समय से चली आ रही सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक - निर्योग्यताओं को दूर करने
अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए संवैधानिक उपाय की विवेचना कीजिए।
ब्रिटिश शासन काल में अस्पृश्य जातियों की स्थिति बहुत दयनीय थी। महात्मा गाँधी वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अछूत कहे जाने वाले लोगों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग मानते हुए उनकी दशा में सुधार करने की आवाज लगाई। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गयी कि शूद्र वर्ण में भी जिन जातियों को 'अन्त्यज' अथवा 'अस्पृश्य' माना जाता रहा है, उन्हें कानूनी संरक्षण तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण देकर ही उनकी दशा में सुधार किया जा सकता है। इसके लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 के उपबन्धों के अन्तर्गत राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि वह विभिन्न राज्यपालों से परामर्श करके उन जातियों की एक अनुसूची तैयार करें जिन्हें सामाजिक धार्मिक और आर्थिक आधार पर सभी अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। इस अनुसूची में जिन जतियों को सम्मिलित किया गया, उन्ही को अनुसूचित जातियां कहा जाता है। इन जातियों के चयन का आधार उनका अपवित्र व्यवसाय तथा अस्पृश्यता की भावना थी।
अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए संवैधानिक उपाय
अनूसूचित जातियों की एक लम्बे समय से चली आ रही सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक - निर्योग्यताओं को दूर करने के लिए 'अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955" पास करके अस्पृश्यता से सम्बन्धित सभी तरह के आचरणों को अपराध घोषित कर दिया। इस कानून को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए सन् 1976 में इसका नाम 'नागरिक अधिकार संरक्षण कानून" कर दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता से सम्बन्धित किसी भी तरह के आचरण का उन्मूलन कर दिया गया। अनुच्छेद 46 के द्वारा अनुसूचित जातियों को सामाजिक अन्याय और शोषण के विरुद्ध सुरक्षा देकर उनके आर्थिक और शैक्षणिक हितों को सुरक्षित करने का प्रावधान किया गया। अनुच्छेद 25 के द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए हिन्दुओं के धार्मिक स्थानों में प्रवेश सम्बन्धी निर्योग्यताएँ समाप्त कर दी गयी। अनुच्छेद 330, 332 और 334 के द्वारा संसद तथा राज्य के विधान मण्डलों में इन जातियों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई।
अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए देश में सन् 1990 से एक "अत्याचार निरोधक अधिनियम लाग किया गया। सन 1990 में ही संविधान में 65 वाँ संशोधन करके अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गयी जिससे अनुसूचित जातियों के विभिन्न हितों की रक्षा करने के साथ ही उनकी स्थिति का सही मूल्यांकन किया जा सके।
संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार संसद, तथा राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों को दिये जाने वाला आरक्षण और अधिक समय के लिए बढ़ा दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 335 के अनुसार प्रतियोगी परिक्षाओं के द्वारा होने वाली नियुक्तियों में 15% स्थान तथा सीधी भर्ती में अनुसूचित जातियों के लिए 16.66% स्थान आरक्षित रखे गये हैं। उन्हें योग्यता के मानदण्डों और आयु सीमा में भी छूट दी जाती है।
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