शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए - शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन फ्रेंच दार्शनिक 'मांटेस्क्यू' ने किया था। मांटेस्क्यू के अनुसार
शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का सिद्धांत
शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन फ्रेंच दार्शनिक 'मांटेस्क्यू' ने किया था। मांटेस्क्यू के अनुसार राज्य की शक्ति को क्रमशः तीन भागों विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में वर्गीकृत करना चाहिए। इस प्रकार राज्य में शक्ति का केन्द्रीकरण नहीं हो पाता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। मानव इतिहास की तरफ दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति को शक्ति के द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है। वास्तव में शक्ति, शक्ति के द्वारा ही नियन्त्रित रह सकती है। उदाहरण के लिए किसी शक्तिशाली संस्था को नियन्त्रित रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी नियन्त्रक संस्था भी उतनी ही शक्तिशाली बनाई जाए अन्यथा वह संस्था उसका नियन्त्रण नहीं कर सकेगी। अतः राजनीतिक शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए उनको नियन्त्रित करने की व्यवस्था शासन शक्तियों को पृथक् करके की जाती है, इससे
- शक्ति, शक्ति की नियन्त्रक बन जाती है।
- शक्ति, शक्ति द्वारा सन्तुलित हो जाती है।
- शक्ति केवल अपने ही अधिकार क्षेत्र में सीमित रहती है।
- शक्ति अन्य शक्ति के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करने में असमर्थ हो जाती है और
- शक्ति अन्य शक्तियों के समान हो जाती है।
राज्य शक्ति को देखने पर यह स्पष्ट लगता है कि राज-शक्ति की अभिव्यक्ति साधारणतया तीन रूपों में होती है। दूसरे शब्दों में,राज्य-शक्ति के स्पष्टत: तीन पहलू होते हैं जो प्रकृति की दृष्टि से आपस में सम्बन्धित होते हुए भी भिन्न-भिन्न होते हैं। राज्य शक्ति का एक पहलू राज्य की इच्छा से सम्बन्धित है। सार्वजनिक जीवन के विषय में राज्य की नीति, सार्वजनिक सुरक्षा तथा समाज कल्याण के बारे में मल्यों व उद्देश्यों को ही राज्य की इच्छा कहते हैं। इसकी अभिव्यक्ति के लिए, अर्थात् इस इच्छा को मूर्त रूप देने के लिए संस्थागत संरचना को व्यवस्थापिका या विधान मंडल कहते हैं। व्यवस्थापिका कानून बनाकर राज्य की इच्छा को अभिव्यक्त करती है और व्यावहारिक रूप देती है। यह राज्य-शक्ति की व्यावहारिक अभिव्यक्तिक संस्था है। राज-शक्ति की अभिव्यक्त इच्छा को कार्यरूप देने वाली संरचनात्मक व्यवस्था, राज-शक्ति का दूसरा पहलू हैं। व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानून एवं उसके द्वारा निर्धारित नीति को कार्यान्वित करने का काम राज-शक्ति के दूसरे पहलू से सम्बन्धित संरचना का ही है। इसे कार्यपालिका का नाम दिया गया है। राज-शक्ति का तीसरा पहलू विधियों की व्याख्या से सम्बन्धित है और इसे न्यायपालिका के नाम से जाना जाता है। "व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित तथा कार्यपालिका द्वारा कार्यान्वित कानूनों का पालन ठीक तरह से तथा उनके वास्तविक अभिप्राय के अनुसार, हो रहा है, इसका निर्णय न्यायपालिका द्वारा किया जाता है। इससे स्पष्ट है राज्य शक्ति के तीन पहलू स्पष्ट रूप से भिन्नता रखते हैं। व्यवस्थापिका राज-शक्ति का कानूनों के रूप में निर्माण करती है, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित राज-इच्छा को कार्यान्वित करती है तथा न्यायपालिका यह देखती है कि राज्य इच्छा का निर्माण व कार्यान्वयन ठीक प्रकार से हुआ है या नहीं। इन तीनों संस्थाओं को सम्मिलित रूप से सरकार कहा जाता है।
राज्य शक्ति के विभाजन का विचार अति प्राचीन है, किन्तु शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को हम मोन्टेस्क्यू से पीछे नहीं ले जा पाते हैं। हरमन फाइनर ने ठीक ही लिखा है कि "शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत प्रथम बार पूर्ण रूप में केवल मोन्टेस्क्यू द्वारा ही प्रतिपादित किया गया है।"फाइनर ने आगे लिखा है कि "शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत मोन्टेस्क्य का अपना ही है यद्यपि इसके कछ संकेत जॉन लॉक की पुस्तक सिविल गवर्नमेन्ट से भी मिलते प्रतीत होते हैं।" अत: राज-शक्ति के पृथक्करण के नाम से जो सिद्धांत राजनीति शास्त्र में प्रचलित हैं तथा जिसके अनुसार व्यवस्थापन, शासन तथा न्याय, तीनों से सम्बन्धित शक्तियों का प्रयोग पूर्णतः स्वतन्त्र व भिन्न-भिन्न हाथों में होना चाहिए उसका जनक फ्रांसीसी विचारक मोन्टेस्क्यू ही को कहा जाना चाहिए। मोन्टेस्क्यू की तरह ब्रिटेन के एक विधिशास्त्री ब्लेकस्टोन ने भी राज-शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का बाद में विस्तार से विवेचन किया था। अत: इस सिद्धांत से मुख्यतया मोन्टेस्क्यू का नाम जोड़ा जा सकता है जो सही अर्थों में इसका जनक था।
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