संविधानवाद की प्रमुख समस्याएं बताइये। संविधानवाद की प्रमुख समस्यायें हैं: युद्ध और तनाव का वातावरण निरंकुशतावाद / अधिनायकवाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था में
संविधानवाद की प्रमुख समस्याएं बताइये।
अथवा विकासशील देशों में संविधानवाद की समस्या पर प्रकाश डालिए।
संविधानवाद की प्रमुख समस्या
- युद्ध और तनाव का वातावरण
- निरंकुशतावाद / अधिनायकवाद
- लोकतान्त्रिक व्यवस्था में केन्द्रीय शासन के पास अत्यधिक कार्यभार
- जनता की आर्थिक-सामाजिक असन्तुष्टि
- विभिन्न वर्गों द्वारा संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रताओं का दुरुपयोग
संविधानवाद की प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैं
(1) युद्ध और तनाव का वातावरण - युद्ध और राज्यों के बीच तनाव का वातावरण संविधानवाद के मार्ग की एक प्रमुख बाधा है। युद्ध या युद्ध की आशंका की प्रत्येक स्थिति में शासनतन्त्र के द्वारा अपनी शक्तियों में बहुत अधिक वृद्धि कर ली जाती है और जनता भी सामान्य शासन की शक्तियों में इस वृद्धि को स्वीकार कर लेती है। यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि युद्ध के कारण संविधानवाद समाप्त हो जाए। लेकिन युद्ध या राज्यों के बीच तनाव का वातावरण सम्बन्धित राज्यों के संविधानवाद पर भारी दबाव डालकर उसे शिथिल कर देता है।
(2) निरंकुशतावाद / अधिनायकवाद - संविधानवादं को निरंकुशतावादी प्रवृत्ति का निरन्तर सामना करना होता है। निरंकुशतावाद विभिन्न रूपों और नामों में प्रकट होता है। मजदूर वर्ग का अधिनायकवाद, फासीवाद, नाजीवाद या सैनिक शासन निरंकुशतावाद के ही विभिन्न रूप हैं और इनमें से किसी का भी संविधानवाद से कोई मेल नहीं हो सकता। अनेक बार स्वयं जनता भी अपने अधैर्य या उग्र राष्ट्रवाद के कारण निरंकशतावाद की दिशा में आगे बढ़ने की बात सोच लेती है। डॉ०के० सी० हीयर के अनुसार, "संविधानवादी शासन का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि विभिन्न रूपों में निरंकशतावाद की शक्ति कितनी है? जैसे-जैसे वह बढ़ता है, वैसे-वैसे संविधानवादी शासन पीछे हटता जाता है।" अफ्रीकी. एशियाई और लैटिन अमरीकी देशों में निरंकुशतावाद की प्रवृत्ति प्रबल होने के कारण ही संविधानवाद शिथिल अवस्था में है।
(3) लोकतान्त्रिक व्यवस्था में केन्द्रीय शासन के पास अत्यधिक कार्यभार - संविधानवाद के मार्ग में एक बाधा यह है कि वर्तमान समय की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में केन्द्रीय संस्थाओं (व्यवस्थापिका, मन्त्रिमण्डल या अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति पद) के कार्य-भार में बहुत अधिक वृद्धि हो गयी है। ये केन्द्रीय संस्थाएँ जब इस कार्य भार को नहीं उठा पाती, तब जनता में स्वयं संविधानवादी व्यवस्था के प्रति ही असन्तोष की स्थिति का उदय होता है। "अनेक बार अत्यधिक कार्य भार से पीड़ित ये केन्द्रित संस्थाएँ स्वयं ही अपनी शक्तियों का एक भाग ऐसे पदाधिकारियों को सौंप देती हैं, जिनके पास निर्णायक शक्ति का होना संविधानवादी व्यवस्था के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।
(4) जनता की आर्थिक-सामाजिक असन्तुष्टि - यदि संविधानवाद आर्थिक-सामाजिक सन्तुष्टि की दिशा में आगे बढ़े, तब तो उसका मार्ग निरापद हो जाता है, लेकिन अनेक बार देखा गया है कि संविधानवाद जनता की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का अपेक्षित गति से समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाता। परिणामतया जन-आन्दोलन की स्थिति खड़ी हो जाती है। कभी-कभी तो आन्दोलन की स्थिति इतना गम्भीर रूप ले लेती है कि समस्त संविधानवादी व्यवस्था ही संकट में पड़ जाती है। आर० वलहैम के शब्दों में, 'जन असन्तोष की स्थिति में कोई भी संवैधानिक व्यवस्था सुरक्षित नहीं रह सकती।'
(5) विभिन्न वर्गों द्वारा संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रताओं का दुरुपयोग - संविधानवाद नागरिकों को शासन की आलोचना करने और शासन का विरोध करने के लिए जन-आन्दोलन का मार्ग अपनाने का अधिकार भी प्रदान करता है, लेकिन जब विभिन्न नागरिक समूह संविधान प्रदत्त स्वतन्त्रताओं का दुरुपयोग करने की दिशा में प्रवृत्त होते हैं तब संविधानवाद के लिए संकट खड़ा हो जाता है। नागरिकों द्वारा इस बात को समझ लिया जाना चाहिए कि सरकार का विरोध करने के उनके इस अधिकार की सीमाएँ हैं तथा इन सीमाओं का पालन अवश्य ही किया जाना है। शासन में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि उसके द्वारा संविधानवाद विरोधी तत्वों को नियन्त्रित किया जा सके। कमजोर सरकार भी संविधानवाद के मार्ग की •एक बड़ी समस्या बन जाती है।
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