राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित दैवी सिद्धांत सबसे प्राचीन है। दैवीय सिद्धांत के अनुसार
राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत
दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत: राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित दैवी सिद्धांत सबसे प्राचीन है। दैवीय सिद्धांत के अनुसार राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है। ईश्वर या तो यह कार्य स्वयं ही करता है या इस सम्बन्ध में अपने प्रतिनिधियों की नियुक्ति करता है। राजा, ईश्वर का प्रतिनिधि होने के नाते केवल उसी के प्रति उत्तरदायी होता है और प्रत्येक परिस्थिति में राजा की आज्ञा का पालन प्रजा का परम धार्मिक कर्त्तव्य है।
राज्य की दैवी उत्पत्ति सिद्धांत की विशेषताएं
- राज्य शक्ति का प्रादुर्भाव ईश्वर द्वारा हुआ है। ईश्वर राजाओं को शक्ति प्रदान करता है।
- राज्य मानवीय कृति नहीं वरन् ईश्वरीय है।
- जिस प्रकार ईश्वर जो कुछ करता है, वह अपनी सृष्टि के हित के लिए ही करता है, उसी प्रकार राजा के सभी कार्य ठीक, न्यायसंगत और आवश्यक रूप से जनता के हित में होते हैं।
- राजसत्ता पैतृक होती है अर्थात् पिता के बाद पुत्र इसका अधिकारी होता है।
- राजा प्रजा के प्रति उत्तरदायी न होकर ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है और राजा की विधि-विहित शक्ति का विरोध करना पाप है।
राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत का विकास
ऑस्ट्रियन लेखक जैलीनेक ने कहा है कि दैवी सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति का सबसे प्राचीन सिद्धांत है और मानवीय इतिहास के दीर्घ काल तक राज्य को एक दैवी संस्था समझा जाता रहा है। राज्य की उत्पत्ति के इस सिद्धांत के दर्शन सबसे प्रमुख रूप में विविध धर्मग्रन्थों में होते हैं। सर्वप्रथम यहूदी धर्मग्रन्थ Old Testament में दैवी सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। इस पुस्तक में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते हुए कहा गया है कि राजा केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। ईसाई धर्मग्रन्थ 'बाईबिल' में भी लिखा है कि प्रत्येक आत्मा को उच्चतर शक्तियों के अधीन रहना चाहिए, क्योंकि ईश्वर की शक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई शक्ति नहीं है। सभी सांसारिक शक्तियाँ ईश्वर प्रदत्त हैं। अतएव जो कोई उनकी अवज्ञा करता है, वह देवाज्ञा की अवज्ञा करता है और जो लोग अवज्ञा करते हैं, उन पर ईश्वर का शाप गिरेगा।" इसी प्रकार महाभारत.मनस्मति आदि प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थों में यह प्रतिपादन किया गया है कि राजा का निर्माण इन्द्र, मित्र, वरुण,यम आदि देवताओं के अंश को लेकर हआ है और राजा मनुष्यों के रूप में एक महती देवता होता है। प्राचीन मिस्त्र, फारस, चीन और जापान में लोग राज्य की दैवी उत्पत्ति में विश्वास करते थे। मिस्त्र में राजा को 'सूर्यपुत्र' समझा जाता था और जापान में जापानी लोग अपने राजा मिकाडो को 'सूर्यदेव का पुत्र' मानते हैं।
प्राचीन यूनानी साहित्य में भी दैवी सत्ता के प्रसंग मिलते हैं। यूनानी कवि होमर अपनी ख्याति प्राप्त रचना 'इलियड' में राज्यसत्ता को दैवी स्थिति मानता है।
मध्य युग में पोपशाही और पवित्र रोमन साम्राज्य' के बीच एक-दूसरे पर अपनी सर्वोपरिता स्थापित करने के लिए कड़ा संघर्ष हुआ और इस संघर्ष में सेण्ट आगस्टाइन तथा पोप ग्रेगरी जैसे ईसाई सन्तों ने राज्य पर चर्च की सर्वोपरिता सिद्ध करने के लिए दैवी सिद्धांत का प्रबल समर्थन किया। धर्म सुधार के युग में भी लूथर और काल्बिन ने लौकिक सत्ता की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया था।
इस सिद्धांत का सबसे प्रबल समर्थन 7वीं सदी में स्टुअर्ट राजा जेम्स प्रथम द्वारा अपनी पुस्तक "True Law of Free Monarchies' में किया गया। उसने कहा कि "राजा लोग पृथ्वी पर परमात्मा की श्वाँस लेती हुई मूर्तियाँ होती हैं" इसलिए उन्हें ईश्वर कहना चाहिए। उसने यहाँ तक कहा कि "राजा कभी दुराचारी नहीं हो सकता।" यदि कोई राजा दुराचारी हो तो इसका अर्थ यह है कि उसको ईश्वर ने जनता को उसके पापों का दण्ड देने के लिए भेजा है।
अत: यदि जनता ऐसे राजा से छुटकारा पाने के लिए चेष्टा करती है, तो उसका यह कार्य सर्वथा अनुचित और कानून विरुद्ध है। एक अन्य स्थान पर उसने लिखा है कि "एक दुष्ट राजा के आचरण की जाँच भी ईश्वर के द्वारा की जा सकती है उसके प्रजाजनों या अन्य किसी मानवीय सत्ता द्वारा नहीं।" राबर्ट फिल्मर ने भी Patriarchia में यही प्रतिपादित किया कि राजा को शासन शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है। लुई चौदहवें के स्वेच्छाचारी राज्य का समर्थन करते हुए वूज ने बतलाया था कि "राजतन्त्र सर्वोत्तम प्रकार का राजनीतिक संगठन है और राजा का राज्य में वही स्थान है जो पिता का कटुम्ब में। राजा ईश्वर का प्रतिबिम्ब है।"
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