राजनीतिक सिद्धांत के पतन और पुनरुत्थान पर निबंध लिखें।

राजनीतिक सिद्धांत के पतन और पुनरुत्थान पर निबंध लिखें। राजनीतिक सिद्धांत के पतन का दावा करने वाले विचारक राजनीति के अध्ययन को वैज्ञानिक रूप देने के लि

राजनीतिक सिद्धांत के पतन और पुनरुत्थान पर निबंध लिखें।

  1. राजनीतिक सिद्धांत के पतन से सम्बन्धित डांटे जर्मीनो के विचार की व्याख्या करें।
  2. राजनीतिक सिद्धांत के पतन सम्बन्धित विवाद की चर्चा कीजिए।

राजनीतिक सिद्धांत के पतन का दावा करने वाले विचारक राजनीति के अध्ययन को वैज्ञानिक रूप देने के लिये राजनीतिक अन्वेषण (Political Inquiry) की दार्शनिक परंपरा से नाता तोड़ने की वकालत कर रहे थे। परन्तु राजनीतिक-दर्शन में आस्था रखने वाले विचारकों ने उनके इस दावे को कभी स्वीकार नहीं किया।

लियो स्ट्रास ने 1957 में 'जर्नल ऑफ पॉलिटिक्स' के अन्तर्गत अपने प्रसिद्ध लेख 'ह्वाट इज-पॉलिटिकल फिलॉसफी' (राजनीति-दर्शन क्या है?) में राजनीति दर्शन के महत्व पर बल देते हुए यह तर्क दिया कि राजनीति का नया विज्ञान ही उसके पतन का यथार्थ लक्षण है। इसने प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण (Positivist Vie) अपनाकर मानकीय विषयों (Normative Issues) की चुनौती की जो उपेक्षा की है, उससे पश्चिमी जगत् के सामान्य राजनीतिक संकट का संकेत मिलता है। इसने एक संकट को बढ़ावा भी दिया है। स्ट्रॉस ने लिखा कि - राजनीति का अनुभवमूलक सिद्धांत (Empirical Theory) समस्त मूल्यों की समानता की शिक्षा देता है; यह इस बात में विश्वास नहीं करता कि कुछ विचार स्वभावतः उच्चकोटि के होते हैं, और कुछ स्वभावतः निम्नकोटि के होते हैं; वह यह भी यहीं मानता कि सभ्य मनुष्यों और जंगली जानवरों में कोई तात्विक अन्तर होता है। इस तरह यह अनजाने में स्वच्छ जल को गंदे नाले के साथ बहा देने की भूल करता है।

इसी विवाद को आगे बढ़ाते हुए डांटे जर्मीनो ने 1967 में प्रकाशित कृति 'बियोंड आइडियोलॉजी - द रिवाइवल ऑफ पॉलिटिकल थ्योरी' (विचारधारा से परे - राजनीति-सिद्धांत का पुनरुत्थान) के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी और आरम्भिक बीसवीं शताब्दी के दौरान राजनीति-सिद्धांत के पतन के दो कारण थे -

  1. प्रत्यक्षवाद (Positivism) का उदय जिसने विज्ञान के उन्माद में मूल्यों को परे रख दिया था; और
  2. राजनीतिक विचारधाराओं का प्राधान्य जिनका चरम उत्कर्ष मार्क्सवाद के रूप में सामने आया था। परन्तु अब स्थिति बदल चुकी थी। सच्ची बात यह है कि राजनीति से जुड़े हए दाशानक चिंतन का स्रोत कभी संखा ही नहीं था। 1950 और 1960 के दशकों में ही अनक प्रतिभाशाली विचारकों ने राजनीतिक-दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया था, परन्तु प्रत्यक्षवाद के समर्थकों ने उसकी अनदेखी कर दी थी। इन विचारकों में माइकेल ओशॉट, हन्ना आरट, बट्री द जूवनेल, लियो स्ट्रॉस और एरिक वोएगलिन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय थे। फिर, 1970 और 1980 के दशकों में क्रिश्चियन बे, हर्बर्ट माय॑जे, जॉन उरॉल्स, सी० बी० मैक्फर्सन, युगेन हेबरमास, एलेस्डेयर मैकिंटायर और माइकेल वाल्जर इत्यादि ने अपनी महत्वपूर्ण कृतियों से राजनीतिक-दर्शन की परंपरा को समृद्ध किया।

जर्मीनो ने तर्क दिया कि राजनीतिक-सिद्धांत की नई भूमिका को समझने के लिये उसे राजनीति-दर्शन के रूप में पहचानना चाहिये। यह मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व का सही रूप में ढालने के सिद्धान्तों का आलोचनात्मक अध्ययन है। अतः इसका सरोकार उचित-अनुचित (Right and Wrong) के प्रश्नों से है। यह व्यवहारवादी विज्ञान (Behavioural Science) नहीं है जिसमें हर बात को ज्ञानेन्द्रिय-अनुभव (Sense Experience) के स्तर पर लाकर छोड़ दिया जाता है; यह किसी की राय पर आधारित विचारधारा (Opinionated Ideology) भी नहीं है। इसमें तथ्यों के ज्ञान के साथ-साथ वह अन्तर्दृष्टि भी आ जाती है जिसके आधार पर यह ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसका सरोकार मनुष्य की उन निरन्तर समस्याओं से है जिनका सामना उसे अपने सामाजिक अस्तित्व के दौरान करना पड़ता है।

निर्लिप्तता का अर्थ नैतिक तटस्थता नहीं है। कोई राजनीति-दार्शनिक अपने युग के राजनीतिक संघर्ष के प्रति उदासीन नहीं रह सकता, जैसा कि व्यवहारवादी सोचते हैं।

जर्मीनो का विश्वास है कि राजनीति-सिद्धांत प्रत्यक्षवाद के साथ-साथ नहीं पनप सकता तो आलोचनात्मक दृष्टिकोण से कोई सरोकार नहीं रखता। राजनीति-सिद्धांत की परंपरावादी और व्यवहारवादी धाराओं के बीच की खाई इतनी चौड़ी है कि इन्हें एक-दूसरे से जोड़ने की कोई सम्भावना नहीं है।

संक्षेप में, व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान के तथ्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए मूल्यों तथा आलोचनात्मक दृष्टिकोण के प्रति उदासीनता का दावा करता है जबकि परंपरागत राजनीति-दर्शन का मुख्य ध्येय मूल्यों के आधार पर राजनीतिक स्थितियों का आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना है। व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान ने मूल्य निरपेक्षता (Value-Neutrality) झण्डा खड़ा करके राजनीति-सिद्धांत के तात्विक कृत्य (Essential Function) से अपना नाता तोड़ लिया है।

अतः राजनीति सिद्धांत को पुनर्जीवित करने के लिये उस तात्विक कृत्य का पुनरुत्थान जरूरी है। जर्मीनो ने तर्क दिया कि राजनीतिशास्त्र सचमुच राजनीति का आलोचनाशास्त्र है। सच्चा राजनीति-दार्शनिक वह है जो सुकरात की तरह 'सत्ताधारी के प्रति सत्य बोलने' (Speaking truth to power) का बीड़ा उठाता है।

हरबर्ट मार्क्यूज ने राजनीति और समाज के अध्ययन में वैज्ञानिकता की माँग के एक और जोखिम की ओर संकेत किया है। मायूंजे के अनुसार, जब सामाजिक विज्ञान (Social Science) की भाषा को प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) की भाषा के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करते हैं, तब वह यथास्थिति (Status Quo) का समर्थक बन जाता है। इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत वैज्ञानिक शब्दावली (Scientific Terminology) की परिभाषा ऐसी संक्रियाओं (Operations) और व्यवहार (Behaviour) के रूप में दी जाती है जिनका निरीक्षण (Observation) और परिमापन (Measurement) किया जा सकता हो।

इस तरह वैज्ञानिक भाषा में आलोचनात्मक दृष्टि (Critical Vision) की कोई गंजाइश नहीं रह जाती। उदाहरण के लिये, निर्वाचन-व्यवहार (Electoral Behaviour) का निरीक्षण करते समय जब मतदान करने वालों की संख्या के आधार पर जन-सहभागिता (People's Participation) का अनुमान लगाया जाता है, तब यह प्रश्न उठाने की कोई गंजाइश नहीं रहती कि निर्वाचन की वर्तमान प्रक्रिया लोकतन्त्र की भावना को कितना सार्थक करती है, या नहीं करती।

ऐसी अध्ययन-प्रणाली अपना लेने पर सामाजिक विज्ञान सामाजिक अन्वेषण (Social Inquiry) का साधन नहीं रह जाता, बल्कि सामाजिक नियन्त्रण (Social Control) का साधन बन जाता है।

निष्कर्ष - कुछ भी हो, 1970 से शुरू होने वाले दशक में और इसके बाद 'राजनीति विज्ञान' और 'राजनीति-दर्शन' के बीच का यह विवाद उतना उग्र नहीं रहा। जहाँ डेविड ईस्टन ने 'उत्तर-व्यवहारवादी क्रान्ति' के नाम पर सामाजिक मूल्यों के प्रति राजनीति विज्ञान के बढ़ते हुए सरोकार का संकेत दिया है, वहाँ राजनीति-दर्शन के समर्थकों ने भी अपनी मान्यताओं को तथ्यों के ज्ञान के आधार पर परखने से संकोच नहीं दिया है।

कार्ल पॉपर ने वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) का विस्तृत निरूपण करते हुए उपयुक्त सामाजिक मूल्यों के बारे में निष्कर्ष निकालने से तनिक भी संकोच नहीं किया है।

जॉन राल्स ने न्याय के नियमों का पता लगाने के लिये अनुभवमूलक पद्धति अपनाने में अभिरुचि का परिचय दिया है।

सी० बी० मैक्फर्सन ने जोसेफ शम्पीटर और रॉबर्ट डाल के अनुभवमूलक दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए लोकतन्त्र का आमूल-परिवर्तनवादी सिद्धांत (Radical Theory) प्रस्तुत किया है।

हरबर्ट मार्क्यूज और युर्गेन हेबरमास ने समकालीन पूँजीवाद की आलोचना करते हुए अनुभवमूलक निरीक्षण की गहन अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है। अब यह स्वीकार किया जाता है कि राजनीति विज्ञान हमें सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों की तरह अपने साधनों को परिष्कृत करने में सहायता देता है, परन्तु साध्यों की तलाश के लिये हमें राजनीतिक-दर्शन की शरण में जाना पड़ेगा। साध्य और साधन परस्पर-आश्रित हैं; इसलिये राजनीतिक-दर्शन और राजनीति विज्ञान परस्पर-पूरक भूमिका निभाते हैं।

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