राजनीति शास्त्र की दार्शनिक पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। दार्शनिक दृष्टिकोण को निगमनात्मक पद्धति भी कहते हैं। इस उपागम में तथ्यों के आधार पर सा
राजनीति शास्त्र की दार्शनिक पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
अथवा राजनीतिक दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
राजनीतिक दर्शन का दार्शनिक दृष्टिकोण
दार्शनिक दृष्टिकोण को निगमनात्मक पद्धति भी कहते हैं। इस उपागम में तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धान्त की स्थापना नहीं की जाती अपितु सबसे पहले मनुष्य की मूल प्रकृति के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है और उसके आधार पर राज्य के उद्देश्यों और उसके स्वरूप की कल्पना की जाती है। फिर यह निश्चय किया जाता है कि राज्य-शक्ति किस प्रकार कार्य करती है। फिर इन विचारों का ऐतिहासिक घटनाओं के साथ सामंजस्य और सान्निध्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। प्लेटो, रूसो, मिल, सिज विक, बोसांके, टामस मोर, कांट, हीगेल, मार्क्स, गांधी, ग्रीन आदि दार्शनिकों ने इसी पद्धति का प्रयोग किया है।
प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'रिपब्लिक' में तथा टामस मोर ने 'यूटोपिया' में आदर्श राज्यों एवं समाजों की कल्पना की है।
हॉब्स तथा रूसो ने अपनी-अपनी धारणाओं के अनुसार मनुष्य की प्रकृति को निश्चित किया और उसके आधार पर राज्य का विश्लेषण किया।
हीगल ने भी इसी प्रकार से राज्य की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया है। किन्तु इन दार्शनिकों की ये धारणाएं वास्तविकताओं से सदा दूर रही हैं। इसीलिए इन आदर्शवादी धारणाओं को 'यूटोपिया' कहा जाता रहा है। सीले के मतानुसार इस उपागम द्वारा 'जो है' और 'जो होना चाहिए' अर्थात यथार्थ और आदर्श का भेद नहीं किया जा सकता। कोरी दार्शनिकता तथा आदर्शवादिता के परिणाम उपयोगी नहीं होते हैं।
इसीलिए ब्लूशली कहता है कि-"यह पद्धति कोरी सैद्धान्तिक है, जिसका तथ्यों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।"
सी० ई० मैरियम का कथन है कि "राजनीतिक सिद्धान्तीकरण का यदि विश्लेषण किया जाए तो उसका अधिकतर भाग किसी समाज के विशेष हितों का झीना आवरण-युक्त प्रचार ही निकलेगा।"
फिर भी यह पद्धति राजनीति विज्ञान के लिए एक उपयोगी साधन रहा है। आदर्शवाद का लक्ष्य व्यक्ति की कड़वे यथार्थवाद से रक्षा करके उसे एक उत्तम जीवन की
- ब्लुशली (Bluntschli) : "राजनीति-शास्त्र से सम्बन्धित वह विज्ञान है जो राज्य के आधारभूत तत्वों, उनकी आवश्यक प्रकृति, उनकी अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न ढंगों और उनके विकास का अध्ययन करता है।"
- गार्नर (Garner) : "राजनीति-शास्त्र का आरम्भ और अन्त राज्य के साथ होता है।"
- सीले (Seeley) : "जिस प्रकार अर्थशास्त्र सम्पत्ति का, जीव-शास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का और रेखागणित स्थान और इकाई का अध्ययन करते हैं, उसी प्रकार राजनीति-शास्त्र सरकारी प्रक्रिया का अध्ययन करता है।"
- पाल जैनेट (Paul Jennet) : "राजनीति-शास्त्र सामाजिक विज्ञान का वह भाग है जिसमें राज्य के आधार और सरकार के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है।"
- गैरिस (Garis) : "राजनीति-शास्त्र राज्य को एक शक्ति की संस्था मानता है तथा उसके सम्पूर्ण सम्बन्ध, उसकी उत्पत्ति, अवस्था (भूमि और निवासी), उसके प्रयोजन, उसके नैतिक महत्त्व, उसकी आर्थिक समस्याओं, उसके व्यक्तित्व की अवस्थाओं, उसके वित्तीय पहलू और उसके उद्देश्यों आदि पर विचार करता है।"
- गैटेल (Gettel) : "यह राज्य के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का, राजनीतिक संगठनों तथा राजनीतिक कार्यों का, राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन करता है।"
- लीकॉक (Leacock) : "राजनीति-शास्त्र केवल सरकार का अध्ययन करता है।"
- लॉस्की (Laski) : "राजनीति का अध्ययन संगठित समाज में मनुष्य के जीवन से है।"
जैसा कि हमने पहले कहा है, इन सभी परिभाषाओं के लेखकों ने राजनीति-शास्त्र को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा है। परन्तु इन परिभाषाओं का आधार राज्य अथवा सरकार ही है।
ब्लुशली और गार्नर ने केवल राज्य को, सीले तथा लीकॉक ने केवल शासन-प्रणाली को, गैटेल ने राज्य और शासन-क्षेत्र को अपना आधार मान कर राजनीति-शास्त्र की परिभाषा की है। एक बात विचारणीय है : राज्य मनुष्यों का एक संगठन है और इसका व्यावहारिक रूप सरकार है। अतः राजनीति-शास्त्र को केवल राज्य का अध्ययन करते समय मनुष्यों और सरकार का अध्ययन भी कहा जा सकता है। राज्य न मनुष्यों को और न सरकार को अलग कर सकता है बल्कि इन्हीं के द्वारा उसकी सत्ता की अभिव्यक्ति होती है।
अतः राजनीति-शास्त्र को संक्षेप में. राज्य का अध्ययन कहा जा सकता है और विस्तत रूप से इसकी परिभाषा हम ऐसे विज्ञान के रूप में कर सकते हैं, "जो मनुष्य के राजनीतिक सम्बन्धों, इसके राजनीतिक संगठन और उसके संगठन के कार्य-भार को चलाने वाली संस्था (सरकार) का अध्ययन करता है।" यही विचार प्रसिद्ध विद्वान् गिलक्राइस्ट का है। उसने राजनीति-शास्त्र को राज्य तथा शासन दोनों का अध्ययन माना है। इस आधार पर एक अन्य विचारक, जकरिया (Zacharia) ने राजनीति-शास्त्र की उचित परिभाषा की है। उसके अनुसार, "राजनीति-शास्त्र क्रमबद्ध रूप में उन सिद्धान्तों को निर्धारित करता है, जिसके अनुसार सम्पूर्ण राज्यों का संगठन होता है तथा प्रभुसत्ता शक्ति का प्रयोग होता है।"
राजनीति-शास्त्र की परिभाषायें
प्रो० गैटेल द्वारा दी गई परिभाषा हमारे विचार में काफी हद तक ठीक है। राजनीति-शास्त्र, राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं के संगठन तथा कार्यों का अध्ययन करता है। इस प्रकार से प्राप्त सामग्री से यह राज्य की प्रकृति की व्याख्या तथा राजनीतिक प्रगति के नियमों को इकट्ठा करता है और अति परिवर्तनशील संसार के राजनीतिक संगठनों तथा कार्यों में सुधारों के लिए सुझाव देता है। परन्तु केवल एक परिभाषा के निर्धारण से हमारा कार्य समाप्त नहीं हो जाता। हमें तो राज्य तथा सरकार के अध्ययन करने वाले विषय को नाम देने में तथा इस विषय की शब्दावली के विभिन्न तकनीकी शब्दों की उचित परिभाषा करने के सम्बन्ध में भी विभिन्न मतों का सामना करना पड़ता है। राज्य के अध्ययन करने वाले विषय को क्या नाम दिया जाए, यह एक कठिन समस्या है।
प्रो० सिजविक ने अपनी पुस्तक 'ऐलिमेंट्स ऑफ पॉलिटिक्स' (Elements of Politics) में तभी तो कहा है, "मुख्य शब्दों की स्पष्ट तथा नपी-तुली परिभाषाओं की प्राप्ति करना वैज्ञानिक अनुसन्धान के विभिन्न विभागों में महत्त्वपूर्ण सफलता है और इसलिए यह बड़ी भारी सफलता होगी यदि राजनीति-शास्त्र के विषय का एक उचित नामकरण हो जाए।"
इसी तरह विद्वान गार्नर ने लिखा है "प्राकृतिक विज्ञानों के विपरीत राजनीति-शास्त्र की यह प्रमुख विशेषता है कि इसमें स्पष्ट तथा सर्वमान्य पारिभाषिक शब्दों का अभाव है।" इस शास्त्र में कई-एक ऐसे शब्द प्रयोग किए जाते हैं जिनका दूसरा अर्थ लिया जाता है। उदाहरणतः 'राज्य', 'शासन', 'राजनीति', 'राष्ट्र', 'राष्ट्रीयता' कुछ ऐसे ही शब्द हैं। 'राजनीति' शब्द के अर्थ लिए जाते हैं। इसी कारण राज्य के अध्ययन वाले विषय के नामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे राजनीति विज्ञान तो कुछ राजनीति दर्शन कहते हैं। परन्तु इसका अत्यंत लोकप्रिय परम्परागत रूप राजनीति-शास्त्र ही रहा है।
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