परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत आधुनिक परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं रह गया है।' व्याख्या कीजिए। 1950 से शुरू होने वाले दशक में राजनीति सिद्धांत के ह्रास
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत आधुनिक परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं रह गया है।' व्याख्या कीजिए।
1950 से शुरू होने वाले दशक में राजनीति सिद्धांत के ह्रास या पतन के बारे में जो विवाद चला था, उसके सन्दर्भ में अनेक समकालीन विचारकों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये।
आल्फ्रेड कॉबन ने 1953 में ही 'पॉलिटिकल साइंस क्वार्टर्ली' में प्रकाशित अपने लेख के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि समकालीन समाज में न तो पूँजीवादी प्रणालियों में राजनीति-सिद्धान्त की कोई प्रासंगिकता रह गई है, न साम्यवादी प्रणालियों में। पूँजीवादी प्रणालियाँ उदार लोकतन्त्र (Liberal Democracy) के विचार पर आधारित हैं, परन्तु आज के युग में लोकतन्त्र का एक भी सिद्धान्तकार विद्यमान नहीं है। फिर, इन प्रणालियों पर एक विस्तृत अधिकारिकतन्त्र (Bureaucracy) और विशाल सैनिक तन्त्र (Military Machine) हावी हो गया है जिससे इनमें राजनीतिक-सिद्धान्त की कोई भूमिका नहीं रह गई है। दूसरी ओर, साम्यवादी प्रणालियों में एक नई तरह के दलीय संगठन (Party Organization) और छोटे-से गुटतन्त्र (Oligarchy) का वर्चस्व है। अतः इनमें भी राजनीति-सिद्धांत की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है।
कॉबन ने तर्क दिया कि हेगेल और मार्क्स की दिलचस्पी तो सष्टि के एक छोटे-से हिस्से में थी। हेगल का सरोकार क्षेत्रीय राज्य (Territorial State) से था; मार्क्स का सरोकार सर्वहारा वर्ग (Proletariat Class) से था। ये दोनों अपने-अपने सन्दर्भ में मनुष्य की नियति का पता लगाना चाहते थे। परन्तु समकालीन राजनीति इतने बड़े पैमाने पर सक्रिय है कि इन विचारों की सहायता से उसका विश्लेषण या मार्ग-दर्शन संभव नहीं रह गया है। इसके अलावा तार्किक प्रत्यक्षवादियों (Logical Positivists) ने तथ्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हए मूल्यों को अपने विचार-क्षेत्र से बाहर कर दिया है।
इस तरह इन्होंने भी राजनीतिक सिद्धांत के पतन में योग दिया है। इन सब परिवर्तनों के बावजूद कॉबन ने यह आशा व्यक्त की कि सारा खेल खत्म नहीं हो गया है।
राजनीति विज्ञान को उन प्रश्नों के उत्तर देने हैं जिनका उत्तर देने के लिये अन्य सामाजिक विज्ञानों की तर्क-प्रणाली (Methodology) असमर्थ है।
वस्तुतः राजनीति विज्ञान को विवेकपूर्ण निर्णय के मानदण्ड (Criteria of Judgment) विकसित करने चाहिये। इन्हीं से राजनीति विज्ञान का अस्तित्व सार्थक होगा।
इधर सीमोर मार्टिन लिप्सेट ने 1960 में अपनी चर्चित कृति 'पॉलिटिकल मैन' (राजनीतिक मानव) के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि समकालीन समाज के लिये उपयुक्त मूल्य पहले ही तय किये जा चुके हैं।
संयुक्त राज्य अमरीका में उत्तर समाज (Good Society) की युगों पुरानी तलाश अब खत्म हो चुकी है क्योंकि हमने उसे पा लिया है। वर्तमान लोकतन्त्र का सक्रिय रूप ही उस उत्तम समाज की निकटतम अभिव्यक्ति है। अतः अब इस पर आगे बहस बेकार है।
इस तरह लिप्सेट ने भी राजनीतिक-सिद्धांत की सार्थकता पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया।
सम्बंधित लेख :
- परंपरागत (शास्त्रीय) राजनीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं ?
- परंपरागत राजनीति शास्त्र का क्षेत्र स्पष्ट कीजिए।
- परंपरावाद का क्या अर्थ है ? स्पष्ट रूप से समझाइए।
- परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की सीमाओं का वर्णन कीजिए।
- राजनीति के परम्परागत दृष्टिकोण पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- परंपरागत चिंतन यथार्थ राजनीति के विश्लेषण में असमर्थ सिद्ध हुआ है। संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
- राजनीति शास्त्र की दार्शनिक पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
- राजनीति शास्त्र की विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं को बताइए।
- राजनीति शास्त्र के गुण एवं दोष बताइए।
- संरचनात्मक प्रकार्यवाद दृष्टिकोण का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
- राजनीति शास्त्र के अध्ययन की पर्यवेक्षणात्मक पद्धति का वर्णन कीजिए।
- लासवेल की अवधारणात्मक संरचना सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
COMMENTS