हरित राजनीति से क्या समझते हैं ? संक्षेप में व्याख्या कीजिए। हरित राजनीतिक सिद्धांत या पर्यावरणवाद कोई स्वाधीन राजनीति-सिद्धांत नहीं है। यह एक विचारधा
हरित राजनीति से क्या समझते हैं ? संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
- हरित राजनीतिक सिद्धांत का मूल्यांकन कीजिये।
- पर्यावरणवाद की राजनीति को स्पष्ट कीजिए ?
- हरित राजनीतिक सिद्धांत की अवधारणा क्या है ?
हरित राजनीतिक सिद्धांत या पर्यावरणवाद कोई स्वाधीन राजनीति-सिद्धांत नहीं है। यह एक विचारधारात्मक आंदोलन (Ideological Movement) है जो पश्चिमी राजनीति में 1970 से शुरू होने वाले दशक में उभरकर सामने आया और धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल गया। वातावरण के विज्ञान से गहरे सरोकार के कारण पर्यावरणवादियों को परिस्थितिविज्ञानवादी (Ecologists) भी कहा जाता है। फिर, चूँकि इस आंदोलन के अन्तर्गत वातावरण में हरियाली कायम रखने पर बल दिया जाता है, इसलिए इससे प्रेरित राजनीति को हरित राजनीति (Green Politics) की संज्ञा दी जाती है। कुछ देशों जैसे कि न्यूजीलैंड, पश्चिमी जर्मनी और ब्रिटेन में - 'हरित राजनीति' के लक्ष्यों की सिद्धि के लिए राजनीतिक दल बनाए गए, और चनाव भी लड़े गए. हालाँकि उन्हें कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाई है।
विकास का प्रभाव तो संपूर्ण विश्व के पर्यावरण पर पड़ता है लेकिन विकास के मार्ग का चयन केवल विकासशील देशों की समस्या है। विकासशील तथा अल्पविकसित देशों (Underdeveloped countries) के औद्योगीकरण (Industrialization) के लिए और वहाँ की विशाल जनसंख्या की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन (Exploitation of Natural Resources) जरूरी हो जाता है। दूसरी ओर, विकसित तथा औद्योगीकृत देशों (Developed and Industrialized Countries) में उपभोग (Consumption) का स्तर इतना ऊँचा है कि वहाँ की अपेक्षाकृत कम जनसंख्या के उपभोग के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया जाता है। दोनों हालतों में, विश्व के प्राकतिक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है।
मानव-सभ्यता के आरंभ में जब जनसंख्या कम थी, लोग सीधा-सादा जीवन बिताते थे और प्रकृति के निकट संपर्क में रहते थे, तब मामूली उत्पादन की जरूरत पड़ती थी। मनुष्य अपने उपभोग के लिए प्रकृति से जो-जो तत्व निकालता था (जैसे कि आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, इत्यादि), वे प्राकृतिक चक्र (Natural Cycle) के माध्यम से प्रकृति में वापस पहुँच जाते थे। अतः व्यवहार के धरातल पर, मानवीय उपभोग के कारण प्रकृति को कोई क्षति नहीं पहुँचती थी। उन दिनों प्राकृतिक संसाधनों का भंडार इतना विशाल था और उनकी खपत इतनी मामूली थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था - ये साधन मानवता के उपभोग के लिए कभी कम पड़ जाएंगे। परन्तु समय के साथ जनसंख्या बढ़ती गई; सभ्यता और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मनुष्य के उपभोग का स्तर भी ऊँचा होता गया और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतना बढ़ गया कि धीरे-धीरे उनके भंडार. में कमी की समस्या पैदा हो गई। इतना ही नहीं, सामान्य जीवन में कत्रिम साधनों का प्रयोग इतना बढ़ गया कि मनुष्य न केवल प्रकृति से दूर हो गया, बल्कि वह प्रकृति को दषित भी करने लगा। राजनीति के क्षेत्र में इस स्थिति का प्रत्युत्तर (Reponse) पर्यावरणवाद के रूप में सामने आया।
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