दलीय प्रणाली के गुण और दोषों का वर्णन कीजिए
दल प्रणाली के गुण व दोषों का वर्णन कीजिए
दल प्रणाली के मुख्य गुण राजनीतिक दलों के मूल्यांकन के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं। यदि एक ओर दलीय व्यवस्था के समर्थकों द्वारा इन्हें मानव स्वभाव पर आधारित नितान्त स्वाभाविक वस्तु और लोकतन्त्र का मूलाधार कहा जाता है तो दूसरी ओर ऐलेक्जेण्डर पोप जैसे विद्वान् इसे 'कुछ व्यक्तियों के लाभ के लिये बहुतों का पागलपन कहते हैं।'
दलीय प्रणाली के गुण / विशेषता - Daliya Pranali ke Gun
- मानवीय स्वभाव के अनुकूल
- लोकतन्त्र के लिए आवश्यक
- शासन को दृढ़ता प्रदान करना
- सार्वजनिक शिक्षा का साधन
- शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण
- श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण
- शासन के विभिन्न अंगों में समन्वय और सामंजस्य
- कुशल नेतृत्व का अभाव
- राष्ट्रीय एकता का साधन
- सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास
दलीय व्यवस्था के गुण निम्नलिखित कहे जा सकते हैं
(1) मानवीय स्वभाव के अनुकूल - प्रकृति की तरह ही विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव और विचारों में भी बहुत भिन्नता पाई जाती है। स्वभाव से ही कुछ लोग उदार विचारों के होते हैं, कुछ अनुदार विचारों के होते हैं और कुछ के स्वभाव में ही विद्रोह की भावना विद्यमान होती है। विचारों और स्वभाव की यह भिन्नता विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा ही प्रकट हो सकती है इसलिए राजनीतिक दलों को मानवीय प्रकृति के नितान्त अनुकूल कहा जा सकता है।
(2) लोकतन्त्र के लिए आवश्यक - वर्तमान समय में विश्व के अधिकांश देशों में प्रतिनिधियात्मक प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था प्रचलित है। इस शासन-व्यवस्था में जनता अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करती है और इन प्रतिनिधियों द्वारा शासन कार्य किया जाता है। इस प्रकार के सभी कार्य राजनीतिक दल प्रणाली की सहायता से ही सम्पन्न हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में मैकाइवर का कहना है कि "राजनीतिक दलों के बिना सिद्धान्त का एक-सा विवरण, नीति का व्यवस्थित विकास और संसदीय चुनावों की वैधानिक विधि का नियमन नहीं हो सकता और न ही किसी प्रकार की स्वीकृत संस्थाएँ हो सकती हैं जिनके आधार पर कोई दल शक्ति प्राप्त कर सके या उसे स्थिर कर सके।"
(3) शासन को दृढ़ता प्रदान करना - दलीय प्रणाली इस सत्य को प्रकट करती है कि संगठन में ही शक्ति होती है और यह प्रणाली शासन को शक्ति प्रदान करती है जिससे शासन व्यवस्था सुगमता और दृढ़तापूर्वक चल सके। यदि जनता का प्रत्येक प्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से कार्य करे तो न सरकार स्थाई हो सकती है और न ही शासन में उत्तरदायित्व निश्चित किया जा सकता है। इस प्रकार के अनिश्चय और अविश्वास के वातावरण में शासन कार्य बहुत अधिक कठिन हो जाता है, लेकिन एक राजनीतिक दल के सदस्यों में शासन सम्बन्धी नीति के सम्बन्ध में एकता होती है, अतःशासन में दढता रहती है। डॉ० फाइनर के शब्दों में, "बिना संगठित राजनीतिक दलों के निर्वाचकगण या तो पंगु हो जाएँगे या विनाशकारी और ऐसी नीतियाँ ग्रहण करेंगे कि सारी शासन-व्यवस्था ही अस्त-व्यस्त हो जाएगी।"
(4) सार्वजनिक शिक्षा का साधन - राजनीतिक दल जनता को सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करने के अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन हैं। राजनीतिक दलों का उद्देश्य अपनी लोकप्रियता बढ़ाकर शासन शक्ति पर अधिकार करना होता है। इसलिए ये प्रेस और प्लेटफार्म तथा अन्य साधनों के माध्यम से अपनी विचारधारा का अधिकाधिक प्रचार करते हैं। इस प्रचार और वाद-विवाद के परिणामस्वरूप सर्वसाधारण जनता सार्वजनिक समस्याओं का कुछ ज्ञान तो प्राप्त कर ही लेती है। डॉ० फाइनर का मत है कि "राजनीतिक दल इस प्रकार कार्य करते हैं कि प्रत्येक नागरिक को सम्पूर्ण राष्ट्र का ज्ञान प्राप्त हो जाये, जो समय और प्रदेश की दूरी के कारण अन्यथा असम्भव है।"
(5) शासन की निरंकुशता पर नियन्त्रण - दलीय व्यवस्था के अन्तर्गत बहुसंख्यक दल द्वारा शासन कार्य और अल्पसंख्यक दल द्वारा शासन के विरोधी दल के रूप में कार्य किया जाता है। विरोधी दल शासन की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाते हुए शासन में सन्तुलन बनाए रखता है। विरोधी दल का अस्तित्व राज्य की विद्रोह से ही रक्षा करता है क्योंकि यदि जनता में सरकार के विरुद्ध अविश्वास फैल जाता है तो विरोधी दल दूसरी सरकार बनाने हेतु तत्पर रहता है। लावेल ने ठीक ही कहा है कि "एक मान्यता प्राप्त विरोधी दल की स्थाई उपस्थिति से निरंकुशता के मार्ग में बाधा पड़ती है।" इसी प्रकार लास्की ने कहा है कि "राजनीतिक दल ही देश में तानाशाही के उदय से हमारी रक्षा का सबसे बड़ा साधन
(6) श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण - श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण तभी सम्भव है जबकि कानूनों के गुणों व दोषों पर उचित रीति से विचार हो। व्यवस्थापिका में मौजूद विरोधी दल के सदस्य शासक दल द्वारा प्रस्तुत सभी विधेयकों की बाल की खाल उधेड़ने के लिए तत्पर रहते हैं। इस प्रकार के वाद-विवाद से विधेयकों के सभी दोष सामने आ जाते हैं और श्रेष्ठ कानून का निर्माण सम्भव होता है।
(7) शासन के विभिन्न अंगों में समन्वय और सामंजस्य - राजनीतिक दल सरकार के विभिन्न अंगों में आपसी विरोध दूर करके उनमें पारस्परिक सहयोग और सद्भावना उत्पन्न करते हैं। संसदात्मक शासन में तो राजनीतिक दलों के आधार पर ही व्यवस्थापिका और कार्यपालिका एक-दूसरे से सम्बन्ध होती हैं। शक्ति-विभाजन सिद्धान्त पर आधारित अध्यक्षात्मक शासन का एक बड़ा दोष व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में गतिरोध होता है, किन्तु अमरीका जैसे राज्य में राजनीतिक दलों द्वारा उस दोष को दूर कर शासन के दोनों अंगों के बीच अच्छे सम्बन्धों की व्यवस्था की गई है। गिलक्राइस्ट ने ठीक ही कहा है कि"राजनीतिक दल वास्तव में एक ऐसी पद्धति है, जिसने अमरीकी संविधान की अत्यधिक कठोरता के दोष को बहुत अधिक सीमा तक दूर कर दिया है।"
(8) कुशल नेतृत्व का अभाव - विभिन्न मतों का संगठन विवेकशीलता के कारण मनुष्यों में मतभेदों का होना नितान्त स्वाभाविक है और इसके साथ ही आधारभूत समस्याओं के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों के एक ही प्रकार के विचार भी होते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा इस प्रकार की आधारभूत एकता रखने वाले व्यक्तियों को संगठित करने का उपयोगी कार्य किया जाता है, ताकि वे एक ही इकाई के रूप में कार्य कर सकें। राजनीतिक दलों के अभाव में विभिन्न संघर्षात्मक विचार-समूह होंगे, जिनमें सामंजस्य के लिए ऐसी कोई सर्वमान्य बात नहीं होगी, जो इकट्ठे मिलकर प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य करने योग्य बनाए। राजनीतिक दल सदस्यों को अनुशासित रखने का कार्य करते हैं और दलों में आन्तरिक एवं विभिन्न दलों के बीच जो वाद-विवाद होते हैं उससे मनुष्यों में परस्पर विचारों का सहयोग, सहिष्णुता और उदारता बढ़ती है।
(9) राष्ट्रीय एकता का साधन - राजनीतिक दल की परिभाषा करते हुए बर्कन इन्हें 'राष्ट्रीय हित की वृद्धि के लिए संगठित राजनीतिक समुदाय कहा है।' दल प्रणाली व्यक्तियों को संकुचित क्षेत्र से ऊपर उठाकर देश और राष्ट्र के कल्याण के सम्बन्ध में विचार के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार यह समाज में उस व्यापक दृष्टिकोण को विकसित करने में सहायक होती है जिससे राष्ट्रीय एकता के बन्धन दृढ़तर हो जाते हैं। पैटरसन के शब्दों में, "राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता का विकास करने और उसे बनाए रखने में सहायक होते हैं।"
(10) सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास - राजनीतिक दल अनेक बार सामाजिक सुधार एवं सांस्कृतिक विकास के भी अनेक कार्य करते हैं जैसे स्वतन्त्रता से पूर्व गाँधी जी के नेतृत्व में भारत में कांग्रेस ने हरिजनों की स्थिति को ऊँचा उठाने और मद्यपान का अन्त करने का प्रयत्न किया। विभिन्न राजनीतिक दल पुस्तकालय, वाचनालय एवं अध्ययन केन्द्र स्थापित करके बौद्धिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी योग देते हैं।
दलीय प्रणाली के दोष / हानि (Daliya visheshta ke dosh)
- लोकतन्त्र के विकास में बाधक
- राष्ट्रीय हितों की हानि
- शासन कार्य में सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की उपेक्षा
- भ्रमात्मक राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना
- सामान्य नैतिक स्तर में गिरावट
- जनता में मतभेदों को प्रोत्साहन
- राजनीति में भ्रष्टाचार
- समय और धन का अपव्यय
- राजनीतिक दलों में सत्ता का केन्द्रीकरण
दलीय पद्धति के दोष यद्यपि प्रतिनिधयात्मक प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों के द्वारा अनेक उपयोगी कार्य किए जा सकते हैं, किन्तु वर्तमान समय के लोकतन्त्रीय राज्यों में राजनीतिक दल जिस प्रकार से कार्य करते हैं उसे सर्वथा दोषहीन नहीं कहा जा सकता है। संक्षेप में राजनीतिक दलों के निम्नलिखित दोष कहे जा सकते हैं
(1) लोकतन्त्र के विकास में बाधक - लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आधारित होती है, लेकिन राजनीतिक दल इस व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अन्त कर लोकतन्त्र के विकास में बाधक बन जाते हैं। राजनीतिक दल के सदस्यों को सार्वजनिक क्षेत्र में अपने व्यक्तिगत विचार को त्यागकर दल की बातों का समर्थन करना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्ति दलीय यन्त्र के चक्र का एक ऐसा भाग बनकर रह जाता है जो पहिए के साथ ही चल सकता है स्वयं नहीं। लीलॉक ने कहा है कि "राजनीतिक दल उस व्यक्तिगत विचार तथा कार्य सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अन्त कर देते हैं जिसे लोकतन्त्रात्मक शासन का आधारभूत सिद्धान्त समझा जाता है।" इससे न केवल सामान्य जनता वरन् जनता के प्रतिनिधि की विचार स्वतन्त्रता भी समाप्त हो जाती है। इस स्थिति को व्यक्त करते हुए गिलबर्ट ने कहा है "मैंने हमेशा दल की पुकार पर ही मतदान किया और अपने सम्बन्ध में विचार करने के लिए कतई नहीं सोचा।"
(2) राष्ट्रीय हितों की हानि - राजनीतिक दल की परिभाषा करते हुए इसे राष्ट्रीय हितों की वृद्धि के लिए संगठित समुदाय कहा जाता है, किन्तु व्यवहार में व्यक्ति अनेक बार अपने राजनीतिक दल के इतने अधिक भक्त हो जाते हैं कि वे जाने-अनजाने में दल के हितों को राज्य के हितों से प्राथमिकता दे देते हैं, जिससे राष्ट्रीय हितों को अपार हानि पहुँचती है। इस सम्बन्ध में मैरीयट ने कहा है कि "दल भक्ति के आधिक्य से देश भक्ति की आवश्यकताओं पर परदा पड़ सकता है। मत प्राप्त करने के धन्धे पर अत्यधिक ध्यान देने से दलों के नेता और उनके प्रबन्धक देश की उच्चतम आवश्यकताओं को भूल सकते हैं अथवा टाल सकते हैं।" इस प्रकार का भय उन दलों में विशेषत: बहुत अधिक हो जाता है, जिनकी भक्ति देश के बाहर किसी बाहरी सत्ता के प्रति होती है।
(3) शासन कार्य में सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की उपेक्षा - शासन कार्य मानव जीवन की सर्वोच्च कला है और देश के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा ही यह कार्य किया जाना चाहिए। किन्तु दलीय-व्यवस्था के कारण सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की सेवा से वंचित रह जाता है। सर्वोत्तम व्यक्ति न तो जी-हजरी कर सकते हैं और न ही विचार एवं कार्य की स्वतन्त्रता को छोड़ सकते हैं। इस कारण दलीय राजनीति में उनके लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। इस प्रकार राजनीति में योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा होती है और अयोग्य व्यक्तियों को प्रशासनिक ढाँचे में स्थान मिल जाता है, जिससे सम्पूर्ण प्रशासनिक स्तर में गिरावट आ जाती है।
(4) भ्रमात्मक राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना - राजनीतिक दलों को सार्वजनिक शिक्षा का साधन कहा जाता है, किन्तु व्यवहार में राजनीतिक दल जनता को सही राजनीतिक शिक्षा प्रदान न करके झूठे भाषणों और बकवास के द्वारा भोली-भाली जनता को धोखे में डालने की चेष्टा करते हैं। अपने स्वार्थ के लिए झूठ को सच और सच को झूठ कहना उनका परम कर्त्तव्य हो जाता है। गिलक्राइस्ट ने तो यहाँ तक कह दिया है कि "राजनीतिक दल अपने विचारों की सत्यता और दूसरों के विचारों की असत्यता के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित करने की सदा ही चेष्टा करते रहते हैं और इस प्रकार दल बहधा वास्तविकता का दमन करने और अवास्तविकता प्रकट करने के अपराधों के दोषी होते हैं।"
(5) सामान्य नैतिक स्तर में गिरावट - व्यवहार में, राजनीतिक दलों का एकमात्र उद्देश्य येन केन प्रकारेण' शासन शक्ति पर अधिकार करना होता है और इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उनके द्वारा नैतिक, अनैतिक सभी प्रकार के उपाय अपना लिए जाते हैं। चुनाव के समय विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध जिस प्रकार का विषैला प्रचार किया जाता है, उम्मीदवारों के व्यक्तिगत जीवन पर आक्षेप किए जाते हैं और झूठे वायदे किए जाते हैं, इससे सामान्य जनता के नैतिक स्तर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दलों के इन कुकृत्यों के कारण ही राजनीतिक बुराई की पर्यायवाची बन गई है।
(6) जनता में मतभेदों को प्रोत्साहन - राजनीतिक दल मतभेदों को दूर करने के स्थान पर प्रोत्साहित करते हैं। सार्वजनिक जीवन को कटुतापूर्ण बना देते हैं। व्यवस्थापिका तो विरोधी वर्गों में विभाजित हो ही जाती है, दूसरी ओर देश भी ऐसे विरोधी पक्षों में विभाजित हो जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते, परस्पर आक्षेप लगाते और लड़ते हैं। डॉ० बेनीप्रसाद के शब्दों में, "राजनीतिक दल समाज के विभाजन को अधिक विस्तृत बना देते हैं। असम्बद्ध प्रश्नों का समावेश करके राजनीतिक प्रश्नों को उलझा देते हैं. तर्कहीन भावनाओं को उभारकर तर्क को निरुपाय कर देते हैं और सामान्य सहयोग के मार्ग में बाधक बनते हैं।"
(7) राजनीति में भ्रष्टाचार - राजनीतिक दल नीचे से लेकर ऊपर तक सुव्यवस्थित रूप से संगठित होते हैं और चुनाव के समय दल की स्थानीय शाखाएँ बहुत अधिक सक्रिय हो जाती हैं। जब एक राजनीतिक दल का उम्मीदवार विजयी हो जाता है तो उस दल के स्थानीय नेता राजकीय पद, ठेके या इनाम के रूप में अनुचित लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। इन बुराइयों का उत्तरदायित्व राजनीतिक दलों पर ही आता है क्योंकि यदि राजनीतिक दल न हों तो निर्वाचक अपने मताधिकार का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करेंगे और ये बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होंगी। इसके अतिरिक्त, चुनावों में विजय प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दलों को बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है और इस प्रकार की धनराशि दान, आदि के रूप में धनी व्यक्तियों से प्राप्त की जाती है। स्वाभाविक रूप से जब इस राजनीतिक दल को शक्ति प्राप्त होती है तो वह इन धनी व्यक्तियों के हित में कानूनों का निर्माण करता है। इस प्रकार इन दलों के कारण सम्पूर्ण राजनीति एक प्रकार का व्यवसाय बन जाती है।
(8) समय और धन का अपव्यय - दलीय व्यवस्था के कारण व्यवस्थापिका सभाओं में विरोधी दल 'विरोध के लिए विरोध' की प्रवृत्ति अपना लेता है और इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अमूल्य समय और अत्यधिक धन का अपव्यय होता है। दलीय ढाँचे के कारण जितनी बड़ी मात्रा में धनराशि का अपव्यय होता है, उसे यदि राष्ट्र हित के कार्यों में व्यय किया जाये तो देश बहुत अधिक उन्नति कर सकता है।
(9) राजनीतिक दलों में सत्ता का केन्द्रीकरण - राजनीतिक दलों के सम्बन्ध में अनेक प्रभावशाली लेखकों द्वारा एक गम्भीर आक्षेप यह किया जाता है कि राजनीतिक दलों का वास्तविक संचालन गट विशेष के थोड़े-से नेताओं द्वारा किया जाता है, जो अपने समर्थकों पर कठोर नियन्त्रण रखते हैं। विल्फ्रेड परेरो और रॉबर्ट माइकेल ने इस बात का प्रतिपादन किया है कि राजनीतिक दलों का ढाँचा वास्तव में वर्गतन्त्रीय होता है जिसके अन्तर्गत कुछ गिने-चुने व्यक्तियों द्वारा मनमाने प्रकार से कार्य किया जाता है। इस प्रकार प्रजातन्त्र वर्गतन्त्र के रूप में परिणत होकर रह जाता है।
निष्कर्ष - राजनीतिक दलों के अनेकानेक दोष गिनाए जा सकते हैं, लेकिन वास्तव में ये दोष मानवीय दुर्बलताओं और परिस्थितियों की अपूर्णताओं के ही प्रतिबिम्ब हैं। ऐसी स्थिति में हमारे द्वारा मानवीय चरित्र को उन्नत कर और परिस्थितियों को सुधार कर राजनीतिक दलों के दोषों को बहुत अधिक सीमा तक दूर किया जा सकता है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी दोषों और कमियों के बावजूद राजनीतिक दल प्रजातन्त्र के लिए अपरिहार्य हैं। अत: जैसा कि लावेल ने लिखा है, "राजनीतिक दल अच्छे हैं या बुरे इस सम्बन्ध में सूचना एकत्र करना वैसा ही है जैसा इस सम्बन्ध में विचार करना कि हवाएँ और ज्वार-भाटे अच्छे होते हैं या बुरे।"
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