राष्ट्रपति पद की योग्यतायें एवं कार्यकाल बताते हुए राष्ट्रपति के निर्वाचन, शक्तियों एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार राष्ट
राष्ट्रपति पद की योग्यतायें एवं कार्यकाल बताते हुए राष्ट्रपति के निर्वाचन, शक्तियों एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय
- राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति पर प्रकाश डालें।
- राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
- राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियाँ क्या हैं?
- राष्ट्रपति का निर्वाचन लिखिए।
- राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियों के बारे में आप क्या जानते हैं ?
- राष्ट्रपति की आपात शक्तियों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
- राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियाँ बताइये।
- राष्ट्रपति शासन से आप क्या समझते हैं ?
- राष्ट्रीय आपात क्या है? यह कब लगाया जाता है ?
- वित्तीय आपात क्या है ? इसका प्रभाव समझाइये।
भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति का पद अत्यन्त गौरवपूर्ण है। भारत की संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रपति वास्तविक प्रधान नहीं अपितु संवैधानिक प्रधान होता है।
राष्ट्रपति पद की योग्यतायें
संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिए निम्नलिखित योग्यतायें निर्धारित की गयी हैं -
- वह भारत का नागरिक हो,
- वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
- वह लोक सभा का सदस्य चुने जाने की योग्यता रखता हो।
- भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
राष्ट्रपति का निर्वाचन
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन अनुच्छेद 55 के अनुसार एकल संक्रमणीय समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा होता है। राष्ट्रपति का चयन एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है, जिसमें संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य एवं राज्यों की विधान सभाओं एवं साथ ही राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली क्षेत्र तथा संघ शासित क्षेत्र, पुदुचेरी के निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होते हैं। राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों - लोकसभा, राज्यसभा तथा राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों - विधानसभा, विधान परिषद में से किसी का भी सदस्य नहीं होना चाहिए। यदि निर्वाचन के पूर्व वह किसी भी सदन का सदस्य है तो, निर्वाचन की तिथि से उसकी सदस्यता समाप्त मानी जायेगी।
राष्ट्रपति पद का कार्यकाल
राष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तिथि से 5 वर्ष तक पद धारण करता है तथा कार्यकाल पूरा होने के पश्चात पुनः निर्वाचित हो सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति का सामान्य कार्यकाल 5 वर्ष है. किन्तु इसके पूर्व भी वह दो प्रकार से पदमुक्त हो सकता है .
- उपराष्ट्रपति को सम्बोधित एवं हस्ताक्षरित त्यागपत्र
- संविधान के उल्लंघन के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया के आधार पर।
राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति
भारतीय राष्ट्रपति राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष एवं संसद का अभिन्न अंग होता है। भारतीय संविधान के अंतर्गत यह सर्वाधिक सम्मान, गरिमा एवं प्रतिष्ठा का पद है। संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। (अनुच्छेद 53), किन्तु अनुच्छेद 74 (1) के अनुसार, राष्ट्रपति कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार करता है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। अनुच्छेद 75(1) के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता होता है।
42वें संविधान संशोधन के पश्चात राष्ट्रपति की स्थिति
42वें संविधान संशोधन, 1976 के पूर्व यह स्पष्ट नहीं था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है। यह माना गया कि कहीं राष्ट्रपति अपनी विधिक स्थिति का लाभ उठाते हुए मंत्रिपरिषद की सिफारिशों को मानने से इंकार न कर दे।
44वें संविधान संशोधन के पश्चात् राष्ट्रपति की स्थिति
44वें संविधान संशोधन, 1978 द्वारा अनुच्छेद 74 में कुछ संशोधन कर राष्ट्रपति को अधिक अधिकार दिये गये। यह निश्चित किया गया कि राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद द्वारा भेजी गयी सलाह को या तो माने अथवा पुनर्विचार के लिए वापस मंत्रिपरिषद को भेज सकता है, किन्तु पुनर्विचार के पश्चात् भेजी गयी सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा। इस परिवर्तन का उद्देश्य राष्ट्रपति पद की गरिमा एवं मंत्रिपरिषद पर राष्ट्रपति के 'नैतिक अंकुश' को बनाये रखने के लिए किया गया था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत की संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रपति वास्तविक प्रधान नहीं है अपितु उसकी प्रस्थिति एक संवैधानिक अध्यक्ष की है।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ एवं कार्य
संविधान के अधीन राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गयी है इन शक्तियों को निम्नप्रकार विभाजित किया जा सकता है -
कार्यपालिका शक्तियाँ - संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है, जिसका प्रयोग वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के साथ ही अन्य मंत्रियों, उच्च एवं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, राज्य के राज्यपालों, भारत के महा-न्यायवादी तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति को केन्द्रीय शासन से संबंधित सभी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है। प्रधानमंत्री का यह कर्त्तव्य है कि जब भी राष्ट्रपति आवश्यक समझें उसे मंत्रिपरिषद के निर्णयों एवं कार्यवाहिया से अवगत कराये।
विधायी शक्तियाँ - राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। उसे संसद का अधिवेशन बलाने, सत्रावसान करने तथा लोकसभा को विघटित करने का अधिकार है। वह लोक सभा की प्रथम बैठक तथा संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करता है। जब किसी विधेयक के संबंध में दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाता है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाता है। राष्ट्रपति विधेयको को अपनी अनुमति प्रदान करता है। धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही सदन में पेश किये जा सकते हैं।
न्यायिक शक्तियाँ - राष्ट्रपति को अनेक न्यायिक शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। वह उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तो करता है, साथ ही उसे किसी अपराधी को क्षमा करने, दंड को कम करने, दंड को बदलने अथवा समाप्त करने का अधिकार भी प्राप्त है। राष्ट्रपति अपने इस अधिकार का प्रयोग निम्न मामलों में कर सकता है .
- जहाँ दंड किसी सेना न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
- जहाँ आपराधिक मामला संघ की कार्यपालिका शक्ति के क्षेत्र के अंतर्गत हो।
- जहाँ मृत्युदंड दिया गया हो।
वित्तीय शक्तियाँ - संविधान द्वारा राष्ट्रपति को अनेक वित्तीय शक्तियाँ भी प्रदान की गयी है। वित्त विधेयक, धन विधेयक, अनुदान की मांगों से संबंधित विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना लोकसभा में पेश नहीं किये जा सकते। भारत की आकस्मिक निधि राष्ट्रपति के नियंत्रण में रहती है।
राजनयिक शक्तियाँ - देश का राज्याध्यक्ष होने के कारण राष्ट्रपति भारत के विदेशी संबंधों एवं विदेशी मामलों का प्रतिनिधित्व करता है। वह विदेशों में भारतीय उच्चायुक्तों एवं राजनयिकों को नियुक्त करता है तथा विदेशी राजनयिकों का स्वागत करता है एवं परिचय प्राप्त करता है।
राष्ट्रपति की सामान्यकालीन शक्तियों का मूल्यांकन
राष्ट्रपति की आपात-कालीन शक्तियों को छोड़ कर अन्य शक्तियाँ सामान्यकालीन शक्तियाँ कहलाती हैं। यद्यपि राष्ट्रपति की सामान्यकालीन शक्तियाँ ऊपरी तौर पर देखने से अत्यन्त विशाल दिखाई देती हैं, किन्तु 42वें एवं 44वें संविधान संशोधनों द्वारा जो व्यवस्था की गयी है, जिसे पहले बताया जा चुका है, वह मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है।
राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ
- युद्ध या बाह्य आक्रमण या 'सशस्त्र विद्रोह' से उत्पन्न राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)
- राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता से उत्पन्न राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)
- वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)
राष्ट्रीय आपातकाल
यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाये कि युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से देश की सुरक्षा के लिए संकट खड़ा हो गया है तो वह संपूर्ण भारत अथवा उसके किसी भाग की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है, किन्तु ऐसी घोषणा मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश पर ही की जा सकती है। यह उदघोषणा केवल एक माह तक ही प्रवर्तन में रहेगी यदि संसद के दोनों सदन अपने दो तिहाई बहुमत से उसका अनुमोदन न कर दें। यदि लोकसभा भंग रहती है तो राज्यसभा द्वारा एक माह के भीतर इसका अनुमोदन किया जाना आवश्यक है। संसद के दोनों सदन आपातकाल की उद्घोषणा को एक बार में 6 माह के लिए बढ़ा सकते हैं, किन्तु यह उद्घोषणा कितनी बार बढ़ायी जा सकती है इसकी कोई सीमा नहीं है।
आपात उदघोषणा का प्रभाव
राष्ट्रीय आपात का भारत की राजनीतिक प्रक्रिया पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है
- राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान संसद विधि द्वारा लोकसभा का कार्यकाल 1 वर्ष के लिए बढ़ा सकती है, किन्तु यह विस्तार आपातकाल की समाप्ति के बाद अधिकतम 6 माह तक चल सकता है।
- संसद को राज्य सूची सहित किसी भी विषय पर विधि बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसी तरह संसद सत्र में न हो तो राष्ट्रपति किसी भी विषय पर अध्यादेश जारी कर सकता है।
- केन्द्र सरकार की कार्यकारिणी शक्ति का विस्तार राज्य सूची के विषयों तक हो जाता है। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों को निर्देश दे सकती है कि वे अपनी कार्यकारिणी शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करें।
राज्यों में राष्ट्रपति शासन
यदि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 356 के तहत राज्यपाल की सिफारिश पर अथवा अन्य आधार पर यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य या राज्यों में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है तो उस राज्य का शासन राष्ट्रपति अपने हाथ में ले संकता है। इसी को राष्ट्रपति शासन कहते हैं। यह उद्घोषणा अधिकतम दो माह तक चल सकती है यदि संसद द्वारा दो माह के भीतर साधारण बहुमत से इसका अनुमोदन न कर दिया जाये। संसद अपने अनुमोदन से एक बार में 6 माह के लिए इसे बढ़ा सकती है। इस प्रकार छ: माह करके यह घोषणा अधिकतम तीन वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है, किन्तु एक वर्ष से अधिक इसे केवल तभी बढ़ाया जा सकता है, जब देश में अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल लगा हो या चुनाव आयोग यह प्रमाणित कर दें कि उस राज्य में ऐसी परिस्थितियाँ नहीं है कि चुनाव कराये जा सकें।
उद्घोषणा का प्रभाव
- राष्ट्रपति राज्य सरकार के सभी कार्य अपने हाथ में ले सकता है तथा उसका प्रशासन राज्यपाल या किसी प्रशासक के माध्यम से करेगा।
- राज्य विधानसभा को भंग या निलंबित कर उस राज्य के लिए विधि बनाने तथा बजट पारित करने का काम संसद करती है।
- यदि संसद का सत्र न चल रहा हो तो राष्ट्रपति उस राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है।
- यदि लोकसभा सत्र में न हो तो राष्ट्रपति अपनी अनुज्ञा से संचित निधि से धन स्वीकृत कर सकता है।
वित्तीय आपातकाल
यदि राष्ट्रपति को यह आभास हो जाये कि भारत या उसके किसी भाग में वित्तीय स्थायित्व या साख का संकट खड़ा हो गया है तो वह वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है। यह उद्घोषणा अधिकतम दो माह तक चल सकती है, यदि संसद द्वारा साधारण बहुमत से उसका अनुमोदन न कर दिया जाये। वित्तीय आपातकाल की अधिकतम अवधि निश्चित नहीं है।
उद्घोषणा का प्रभाव
- संघ एवं राज्य सरकारों के पदाधिकारियों (उच्च एवं उच्चतम, न्यायालय के न्यायाधीशों सहित) के वेतन एवं भत्तों में कटौती की जा सकती है।
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित सभी धन विधेयकों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।
- राष्ट्रपति, राज्य सरकारों को वित्तीय औचित्य के सिद्धान्तों के पालन का निर्देश दे सकता
- केन्द्र एव राज्यों के मध्य धन संबंधी बंटवारे के प्रावधानों में परिवर्तन किया जा सकता है।
आपातकालीन शक्तियों का मूल्यांकन- संविधान में आपातकालीन उपबंधो की अनेक विद्वानों ने कटु आलोचना की है। एच. वी. कामथ ने संकटकालीन प्रावधानों की आलोचना करते हुए कहा है कि, “इस अध्याय द्वारा हम एक निरंकुश तथा पुलिस राज्य की आधारशिला रख रहे हैं। विद्वानों का मानना है कि आपातकाल के दौरान देश का संघात्मक स्वरूप समाप्त हो जाता है और वह एकात्मक रूप ग्रहण कर लेता है साथ ही मौलिक अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। आलोचकों का यह भी मानना है कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन का प्रयोग सत्तारूढ़ दल अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए कर सकता है, इतना ही नहीं वित्तीय आपातकाल के दौरान राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता समाप्त हो जाती है और वे पूर्णतया केन्द्र की दया के पात्र बन जाते हैं। इस प्रकार आपात उपबन्धनों की अनेक आधारों पर आलोचना की जाती है।
COMMENTS