परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का महत्व राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रांति को परम्परागत राजनीतिशास्त्र की प्रतिक्रिया माना जाता है। लेकिन व्यवहारवाद
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत के महत्व की संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का महत्व
राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रांति को परम्परागत राजनीतिशास्त्र की प्रतिक्रिया माना जाता है। लेकिन व्यवहारवादी क्रान्ति के आगमन के लगभग दस या पन्द्रह वर्ष में ही (1970) इस आन्दोलन का स्वरूप बदल गया तथा व्यवहारवाद के स्थान पर उत्तर व्यवहारवाद आ गया। जिससे परम्परागत राजशास्त्र के महत्व का पता चलता है।
परम्परागत राजनीति सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु उसका मूल्य सापेक्ष होना है। व्यवहारवादी मूल्य-निरपेक्षता की जिद करते हैं पर यह नहीं समझ पाते कि राजनीतिक शोध में विषयों का चुनाव मूल्यों के अभाव में क्या तार्किक संगतता रखता है। वे 'क्या होना चाहिए' के स्थान पर 'क्या है' की बात करके अंधेरे में चले जाते हैं।
सिबली के अनुसार, मूल्य-निरपेक्षता व्यवहारवाद की सबसे बड़ी सीमा बन गया है। दूसरे, व्यवहारवादी, परम्परागत राज सिद्धांत की आलोचना ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में करते हैं। लेकिन, राजनीतिक व्यवहार के दो सन्दर्भ होते हैं-एक तो वर्तमान का सन्दर्भ और दूसरा अतीत का सन्दर्भ। इन दोनों की संबंध सूत्रता सर्वमान्य एवं निर्विवाद है। वर्तमान का सन्दर्भ, पर्यावरण या शून्य से नहीं आता। जहाँ से वह आता है, जिससे वह अपना विशेष रंग प्राप्त करता है और अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है, उसको नजर-अन्दाज करना कैसे यथार्थ की खोज हो सकती है।
मलफोर्ड सिबली ने अपने एक लेख 'द लिमिटेशन्स ऑफ बिहेवियरलिज्म' में कहा है कि “राजनीति को समझने के लिए कलाकार की विशिष्ट अन्तर्दृष्टि का होना उतना ही आवश्यक है जितना कि अंगों के विश्लेषण के अतिरिक्त सम्पूर्ण के साथ अंगों के अन्तःसंबंधों को जानना।” इसके अतिरिक्त लियो स्ट्रास के अनुसार, "कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जिन्हें माइक्रोस्कोप अथवा टेलीस्कोप के माध्यम से ही देखा जा सकता है। परन्तु बहुत सी ऐसी वस्तुएं भी होती हैं जिन्हें केवल आँखों द्वारा देखना ही ठीक रहता है।" ।
इसके अतिरिक्त, राजनीति का अध्ययन आदि केवल इसी आधार पर नहीं करना है कि व्यक्ति का व्यवहार निर्दिष्ट परिस्थितियों में क्या हो सकता है परन्तु इस आधार पर भी करना है कि वह आज क्या है, कल क्या था, भविष्य में क्या होगा और कैसा होना चाहिए तो, हमारा काम केवल व्यवहारवाद से नहीं चलेगा, तब हमें राजनीतिक चिन्तन के इतिहास, नीति-दर्शन, सांस्कृतिक इतिहास, शास्त्रीय परम्परा के परिकल्पना-शील राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विवरण और प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव आदि सभी से सहायता लेनी होगी और इसके लिए परम्परागत राजनीतिशास्त्र के महत्व का पता चलता है।
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