न्यायिक सक्रियतावाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। Judicial Activism Criticism in Hindi: न्यायिक सक्रियतावाद का आशय है संविधान कानून और अपने दायित्वों
न्यायिक सक्रियतावाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। Judicial Activism Criticism in Hindi
न्यायिक सक्रियतावाद का आशय
न्यायिक सक्रियतावाद का आशय है संविधान कानून और अपने दायित्वों के प्रसंग में कानूनी व्याख्या से आगे बढ़कर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों और सामाजिक आर्थिक न्याय की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए संविधान और कानून की रचनात्मक व्याख्या करते हुए जनसाधारण के हितों की रक्षा के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना। इसके अन्तर्गत यह बात सम्मिलित है कि जब सम्मान के हित की दृष्टि से आवश्यक होने पर शासन को निर्देश देना और शासन की स्वेक्षाचारिता पर रोक लगाना न्यायपालिका का दायित्व है।
न्यायिक सक्रियतावाद की आलोचना
जब न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायपालिका ने अपने लिए समस्त राज्य व्यवस्था में बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली तब केवल न्यायिक सक्रियता की प्रवृत्ति ही नहीं वरन् स्वयं न्यायपालिका भी तीखी आलोचना का विषय बनी। कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव बी० पी० मौर्य ने दिसम्बर 96 में ये कहा सर्वोच्च न्यायालय संविधान द्वारा कार्यपालिका और नौकरशाही को विविध प्रकार के आदेश निर्देश देते हुए व्यावस्थापिका के तीसरे सदन की भूमिका निभाने की चेष्टा कर रहा है। आलोचना के अनुसार न्यायाधीशों की प्रचार पाने की भूख ने उन्हें न्यायिक सक्रियता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है।
कुछ बहुत प्रमुख न्यायवादियों और विधिवेत्ताओं ने भी न्यायिक सक्रियता की आलोचना की है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता 'ननी पालखीवाला' न्यायिक सक्रियता पर कड़ी आपत्ति प्रकट करते हुए इसे एक तरह 'न्यायिकता तानाशाही' कहते हैं और न्यायमूर्ति एच० आर० खन्ना का कहना है कि न्यायालयों का प्रमुख कार्य विवादों का अविलम्ब निपटारा करना है। न्यायालयों में अपने इस कार्य पर ध्यान न देकर न्यायिक, सक्रियता के रूप में जिस स्थिति को अपनाया है वह स्वेच्छाचरित है। न्यायालयों की यह स्वेच्छाचरित न केवल अनौचित्यपूर्ण हैं वरन् तर्क वृद्धि भी है। इस बात को भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी भी स्वीकार करते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ मामलों में अतिसयता को अपना लिया है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत कोई गैर निर्वाचित संस्था को नीति निर्धारक निकाय का रूप नहीं ले सकती है।
आलोचकों का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय और कुछ निर्णयों मात्र से. व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन हो पाना स्वभाविक नहीं है। 1982 का बन्धुवा मुक्त मोर्चा बनाम भारत संघ का मामला उदाहरण है। बन्धुवा मुक्ति मोर्चा के स्वामी अग्नि वेष ने अपनी याचिका के जरिये फरीदाबाद की पत्थर खानों में काम कर रहे बाल मजदूरों को मूल अधिकारों का प्रश्न उठाया था। वे कहते हैं की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस प्रसंग में जारी निर्देशों में से किसी पर भी अब कार्यवाही नहीं हई इस स्थिति का कारण यह है कि सामाजिक आर्थिक क्षेत्र की न्यायिक परिस्थितियाँ ध्यान में न रखते हुए निर्णय दे दिए गये। प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता बन्धुवा मजदूरी का अन्त और बालश्रम की समाप्ति आदि ऐसे विषय नहीं है जिनके सम्बन्ध में मात्र न्यायिक निर्णय से लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।
यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय समस्त प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार के लिए प्रयत्नशील हैं, लेकिन निचली अदालतों में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार, जिससे हम सभी परिचित हैं के प्रति वे पूर्णतया उदासीन हैं। उच्च स्तर की न्यायपालिका का न्यायिक सम्मान के प्रति अत्यधिक भावुकता पूर्ण दृष्टिकोण उचित नहीं कहा जा सकता है।
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