मार्कूजे के चिन्तन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। मार्कूजे ने अपने राजनीतिक चिन्तन में विपुल मात्रा में उत्पादन के दुष्परिणामों का भयानक चित्र प्रस्तु
मार्कूजे के चिन्तन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
मार्कूजे के चिन्तन का आलोचनात्मक मूल्यांकन
मार्कूजे ने अपने राजनीतिक चिन्तन में विपुल मात्रा में उत्पादन के दुष्परिणामों का भयानक चित्र प्रस्तुत किया है तथा उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों का विश्लेषण किया है, किन्तु उसने जिस मानवीय मनोवृत्तियों का उल्लेख किया है, उसके समर्थन में उसने आनुभविक तथ्य प्रस्तुत नहीं किए हैं। उसका यह कथन विचित्र प्रतीत होता है कि मनुष्य प्रसन्न है तो वह धोखे में हैं और यदि वह अप्रसन्न है तो उसकी प्रस्तावनाएँ सही हैं। अलगाव सम्बन्धी निष्कर्ष भी उसकी अपनी परिभाषाओं से विभिन्न प्रतीत होते हैं। उन्हें मानव अथवा समाज के आनुभविक प्रेक्षण के माध्यम से प्राप्त किया गया है।
मार्कूजे के अनुसार, आज व्यक्ति का दृष्टिकोण एकांगी हो गया है। वह लोक कल्याणकारी राज्य के बारे में सोचते हुए दिन-प्रतिदिन के काम में आने वाली वस्तुओं तथा मजदूर संगठनों के स्वरूप में होने वाले परिवर्तनों की ओर ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत सर्वथा निष्क्रिय हो गया है। वर्तमान के औद्योगिक युग का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसमें एक ही ढंग से सोचने पर विवश कर दिया है। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति आनन्द की नहीं रही है।
मार्कूजे के विचारों में हीगल, फ्रायड तथा मार्क्स का मिश्रण पाया जाता है। मार्कजे, फ्रांस टीजमैन तथा हन्ना आरेन्ट के समान समकालीन औद्योगिक समाज का खण्डन करके पूर्व-औद्योगिक समाज की ओर लौटने का आग्रह नहीं करता है। वह उत्तर -औद्योगिक युग में रहने वाले व्यक्ति के लिए सुख की व्यवस्था करना चाहता है। वह इस समृद्धि के युग में उत्पादन को श्रम का उपजात मानता है तथा अदमनात्मक सभ्यता का निर्माण करने के लिए सुखात्मककार्य-नियम के अधीन निष्पादन-कार्य-नियम को प्रतिस्थापित करना चाहता है। ऐसा होने पर अतिरिक्त दमन की मात्रा कम हो जाएगी। इस नवीन व्यवस्था को लाने के लिए उसने विद्रोहात्मक बहुमत का सहारा लिया है। उसने विद्रोहात्मक-बहुमत का नेतृत्व छात्र आन्दोलनों को दिया है तथा आवश्यकता पड़ने पर हिंसा का की समर्थन किया है। उसके विचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह राज्य की दमनात्मक सत्ता तथा संगठित पूँजीवाद की शक्ति से भयभीत है। एक ओर श्रमजीवी-वर्ग की क्रान्तिकारी भावनाएँ शान्त हो चुकी हैं तो दूसरी ओर संचार साधनों का प्रयोग करके बहुसंख्यकों को राज्य ने अपने प्रभाव में ले लिया है। उनको लोकतन्त्रात्मक अनुनय तथा राजनीतिक दलों में भी विश्वास नहीं है।
मार्कूजे की मान्यता है कि व्यक्ति को साधारण-सा श्रम करना चाहिए। इस दृष्टि से अब अधिक कार्य के विषय में सोचना आवश्यक नहीं रह गया है। अब तो मानव के समक्ष सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि वह आनन्द व सुख की प्राप्ति करे। किन्तु इस विचार से मनुष्य अपना पूर्णतः विकास नहीं कर सकता, क्योंकि औद्योगिक युग में प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण अपने शारीरिक, मानसिक तथा व्यक्तिगत विकास की ओर अग्रसर हो रहा है।
COMMENTS