केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की भूमिका अथवा स्थिति की विवेचना कीजिए। भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्यपाल की दोहरी भूमिका है। पहला
केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की भूमिका अथवा स्थिति की विवेचना कीजिए।
राज्यपाल, केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में
भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्यपाल की दोहरी भूमिका है। पहला वह राज्य का प्रधान है और द्वितीय वह भारत में संघीय सरकार का अभिकर्ता या प्रतिनिधि है। संविधान निर्माता भारत में एक ऐसी संघीय व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जिसमें 'सहयोगी संघवाद' की धारणा के आधार पर केन्द्र राज्य में सद्भावना पूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो सके और प्रशासनिक एकरूपता तथा राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके और उसके द्वारा राज्यपाल के पद की व्यवस्था इस लक्ष्य की पूर्ति के एक साधन के रूप में की गयी है। के. एम. मुन्शी ने विधानसभा में कहा था, 'राज्यपाल संवैधानिक औचित्य का प्रहरी और वह कड़ी है जो राज्य को केन्द्र के साथ जोड़ते हुए भारत की एकता के लक्ष्य को प्राप्त करती है। राज्यपाल की नियुक्ति के लिए जिस पद्धति को अपनाया गया है। वह भी इस बात को स्पष्ट करती है कि राज्यपाल की राज्य में केन्द्रीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका है। केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल के द्वारा निम्न कार्य किये जाते हैं -
- भारतीय संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार के बीच सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया और अनुच्छेद 256 तथा 257 में कहा गया है कि इस दृष्टि से केन्द्रीय सरकार राज्यों की कार्यपालिकाओं को आवश्यक निर्देश दे सकती है। केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकारों को राष्ट्रीय महत्व की सड़कों तथा संचार साधनों की रक्षा का भार सौपा जा सकता है और अनुच्छेद 258 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार अपने कुछ प्रशासनिक कार्य भी राज्य को हस्तान्तरित कर सकती हैं। केन्द्रीय सरकार के द्वारा राज्य सरकारों को इस प्रकार के निर्देश आदेश राज्यपाल के माध्यम से ही दिये जाते हैं और राज्यपाल का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि राज्य सरकार इन निर्देशों-आदेशों का पालन कर रही है अथवा नहीं। यदि राज्य का मन्त्रिमण्डल राज्यपाल को राष्ट्रपति के निर्देशों के विरुद्ध कार्य करने की सलाह देता है तो वह इस प्रकार की सलाह को अस्वीकार कर सकता है। यदि राज्य मन्त्रिमण्डल केन्द्रीय सरकार के निर्देश के अनुसार कार्य नहीं करता है तो राज्यपाल मन्त्रिमण्डल को चेतावनी दे सकता है तथा इसे संविधान के विरुद्ध कार्य मानकर अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को संवैधानिक संकेत की रिपोर्ट दे सकता है। जब कभी केन्द्रीय सरकार द्वारा राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण किसी कार्यक्रम को अपनाया जाता है तो राज्यपाल पर यह भार आ जाता है कि वह यह देखे कि राज्य सरकार इस कार्यक्रम को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रही है अथवा नहीं।
- केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल का एक महत्वपूर्ण कार्य राज्य के सम्बन्ध में समय-समय पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना है, जिसमें उसके द्वारा अपनी ओर से सुझाव भी दिये जाते हैं। राज्यपाल अपना पद ग्रहण करते समय संविधान की रक्षा करने की शपथ लेता है और इस दृष्टि से उनका सबसे प्रमुख कार्य यह देखना है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य कर रही है अथवा नहीं। यदि राज्य में संविधान के अनुसार रिपोर्ट देता है और इस प्रकार की रिपोर्ट के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। राज्यपाल राष्ट्रपति को इस प्रकार की रिपोर्ट स्वविवेक से ही भेजता है और इस सम्बन्ध में वह राज्य मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने पर राष्ट्रपति राज्यपाल को जो भी प्रशासनिक विधायी और वित्तीय कार्य सौंपता है राज्यपाल उन सबको पूरा करता है और केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के शासन का संचालन करता है।
- अनुच्छेद 200 के अनुसार राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किये गये किसी विधेयक को राज्यपाल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है। उदाहरण के लिए सम्पत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण या उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करने से सम्बन्धित विधेयक राज्यपाल के द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखे जायेंगे। राज्यपाल इस सम्बन्ध में स्वविवेक से ही कार्य करता है।
- अनुच्छेद 213 के अनुसार राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया है, किन्तु उसे कुछ विषयों के सम्बन्ध में अध्यादेश जारी करने के पूर्व राष्ट्रपति से स्वीकृति लेनी होती है। इसके अलावा राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में यह देखता है कि राज्य सरकार संकीर्ण प्रान्तीयवाद को न अपनाकर समस्त संघ के हितों को ध्यान में रखे। 19-20 मार्च, 1976 के राज्यपाल सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने कहा था,' संकीर्ण प्रान्तीयतावाद पर विजय प्राप्त करने में राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
संविधान निर्माताओं के द्वारा तो सम्भवतया यह सोचा गया था कि राज्यपाल की प्रथम भूमिका राज्य के संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में तथा द्वितीय भूमिका राज्य में केन्द्रीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में होगी, लेकिन व्यवहार के अन्तर्गत अनेक बार राज्य की यह द्वितीय भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसा विशेष रूप से उस समय होता है जबकि केन्द्र में एक राजनीतिक दल की सरकार हो और राज्य में किसी एक विरोधी राजनीतिक दल की या कुछ विरोधी दलों की मिली-जुली सरकार | व्यवहार के अन्तर्गत जब कभी राज्यपाल इन दोनों भूमिकाओं में परस्पर विरोध की स्थिति उत्पन्न हुई है तब राज्यपाल ने केन्द्रीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में अपनी भूमिका को ही अधिक महत्व दिया है। प्रश्न 4. राज्य में संवैधानिक संकट के समय राज्यपाल की भूमिका और स्थिति की विवेचना कीजिए।
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