भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस की नीतियों क्या थी? कांग्रेस की स्थापना भारत में राष्ट्रवाद के प्रसार व भारतीयो
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस की नीतियों क्या थी?
- कांग्रेस की 'ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा से आप क्या समझते हैं ?
- प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस का क्रमिक सुधारों में विश्वास था, स्पष्ट करें।
- ब्रिटिश न्यायप्रियता के प्रति प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस की क्या नीति थी?
उत्तर - कांग्रेस की स्थापना भारत में राष्ट्रवाद के प्रसार व भारतीयों में एकजुटता लाने के उद्देश्य से की गयी थी। प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस का लक्ष्य राष्ट्रीय आन्दोलन को संगठित करने का था। अतः अपने प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस द्वारा क्रान्तिकारी परिवर्तनों की वकालत या सरकार के प्रति उग्र रुख अपनाने के स्थान पर उदार नीतियों का अनुसरण किया गया, ताकि सरकार के दमनचक्र से बचते हुए भारतवासियों को राष्ट्र के नाम पर संगठित किया जा सके। कांग्रेस की प्रारम्भिक नीतियाँ व कार्यक्रम भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों व कुप्रथाओं के उन्मूलन हेतु भी तत्पर थे।
प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस के द्वारा सुधारवादी व उदार नीतियों का अनुसरण किया गया, जिनका कि उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है -
स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियाँ
प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस कोई क्रान्तिकारी संगठन नहीं था। इसके नेता सरकार के प्रति किसी प्रकार के विद्रोह की भावना नहीं रखते थे। इनका संवैधानिक उपायों पर गहरा विश्वास था। कांग्रेस के प्रारम्भिक नेता उच्च मध्यम वर्ग के लोग थे और ये अंग्रेजी शासन, सभ्यता तथा संस्कृति के प्रशंसक थे। अतः इनकी सोच का प्रभाव कांग्रेस की प्रारम्भिक नीतियों पर भी पड़ा। इनमें से कुछ प्रमुख नीतियाँ निम्नलिखित थीं -
(1) ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा - प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस के नेता उच्चकोटि के देशभक्त होने के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान भी थे। अतः कांग्रेस की प्रारम्भिक नीतियों में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा की नीति का प्रमुख स्थान था। कांग्रेस के प्रारम्भिक नेताओं के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति कृतज्ञता के भाव थे क्योंकि वे मानते थे कि अंग्रेजी शासन के कारण ही भारत में शान्ति की स्थापना हुई और प्रगतिशील विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस सन्दर्भ में प्रमुख प्रारम्भिक कांग्रेसी नेता श्री व्योमेश चन्द्र बनर्जी के वक्तव्य का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें उन्होने कहा था कि . "मैं कहता हूँ कि ब्रिटिश सरकार को मेरे और यहाँ बैठे हुए मेरे दोस्तों की अपेक्षा अधिक गहरे व पक्के राजभक्त मिलना असम्भव है।" इसी प्रकार कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में दादाभाई नैरोजी ने कहा था कि - "आओ हम पुरुषों की तरह बोलें और घोषणा कर दें कि हम अटूट राजभक्त हैं।
(2) अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास - प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेसी नेताओं को अंग्रेजी उदारता, न्यायप्रियता और ईमानदारी पर पूर्ण विश्वास था। उनकी यह धारणा थी कि अंग्रेज स्वभाव से ही सच्चे व न्यायप्रिय होते हैं। उनका मानना था कि यदि उन्हें भारतीय समस्याओं का सही ज्ञान करा दिया जाये तो वे भारतीय दष्टिकोण को स्वीकार कर लेगें। उनके विचार से अंग्रेज स्वतंत्रता-प्रेमी थे और जब अंग्रेजों का यह विश्वास हो जायेगा कि भारतीय स्वशासन के योग्य बन गये हैं. तब वे हमें निश्चित ही इससे वंचित नहीं रखेंगे। वस्तुतः इस अटूट विश्वास ने ही इन नेताओं के मन में अटूट राजभक्ति की भावना को जन्म दिया था। इसी प्रकार इन नेताओं के पास जॉन ब्राइट. हेनरी फासेट. और चार्ल्स ब्रेडला जैसे अंग्रेजों के उदाहरण थे जोकि ब्रिटिश संसद में सदैव भारतीय जनता के हितों के पक्ष में बोलते थे।
बिटिश न्याय के सम्बन्ध में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का अभिमत था कि . "इंग्लैण्ड हमारा मार्गदर्शक है। हमको अंग्रेजों की उदारता तथा न्याय में विश्वास है। संसार की महानतम प्रतिनिधि सभा, संसदों की जननी ब्रिटिश कॉमन्स सभा के प्रति हमारे हृदय में श्रद्धा है। इसी प्रकार रहीमतल्ला सयानी का तो यहाँ तक मानना था कि - "अंग्रेजो से बढ़कर सदाचारी व सत्यप्रिय जाति इस सूर्य के नीच कहीं नहीं बसती।"
(3) क्रमिक सुधारा में विश्वास - प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस की नीतियों में क्रमिक सुधारों के प्रति अटूट विश्वास भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। प्रारम्भिक कांग्रेसी नेता राजनीतिक क्षेत्र में क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे। वे इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि एकाएक स्वशासन में लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः वे प्रशासकीय व राजनीतिक क्षेत्रों में क्रमिक रूप से धीरे-धीरे सुधारों को लाना चाहते थे। इनके द्वारा प्रारम्भ में इस सन्दर्भ में सुधार की छोटी-छोटी माँगे ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखीं, जैसे - भारतीयों की उच्च पदों पर नियुक्ति, सरकार के व्यय में कमी, स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की स्थापना इत्यादि। इन सुधारों के लिए वे क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विरुद्ध थे, अतः उन्होंने सदैव ही ऐसी माँगे प्रस्तुत की जिनका ब्रिटिश शासन द्वारा कड़ा विरोध न किया जा सके। इस सन्दर्भ में श्री आर. जी. प्रधान का अभिमत है कि - "ये नेता न्यूनतम विरोध के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे. वे व्यवहारिक सुधारवादी थे, जिनमें विक्टोरिया उदारवाद के तरीके, सिद्धान्त और भावनाएँ भरी हुई थीं
(4) ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध - प्रारम्भिक कांग्रेसी नेता किसी भी प्रकार ब्रिटेन से सम्बन्ध विच्छेद करने के पक्ष में नहीं थे। वे ब्रिटेन के साथ सम्बन्धों को भारत के ही हित में समझते थे। इस सन्दर्भ में प्रमुख उदारवादी नेता श्री गोपालकृष्ण गोखले का मानना था कि - "हमको यह स्वीकारना होगा कि ब्रिटिश शासन विदेशी होने के कारण अपनी कमियों के साथ-साथ देशवासियों की प्रगति में एक बड़ा साधन भी रहा है।
इस प्रकार प्रारम्भिक कांग्रेसी नेताओं की धारणा थी कि ब्रिटेन के कारण ही भारत में प्रगतिशील सभ्यता का उदय हुआ है। अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा पद्धति, यातायात एवं संचार के साधनों की व्यवस्था, न्याय-प्रणाली और स्थानीय स्वशासन इत्यादि भारत के लिए उपयोगी हैं। अतः यह भारत के हित में है कि ब्रिटेन से उसका अटूट सम्बन्ध बना रहे।
निष्कर्ष : इस प्रकार उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन के आधार पर निष्कर्षतया यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में राजनीतिक सुधारों की माँग को संवैधानिक ढंग से पूरा कराने का प्रयास किया। उसे अंग्रेजों की न्यायशीलता में आस्था थी और विश्वास था कि यदि वह ब्रिटिश शासन को अपनी माँगों के औचित्य के विषय में संतुष्ट कर ले तो शासन उसकी माँगों को अवश्य ही पूरा करेगा। इसी कारण कांग्रेस ने अपनी स्थापना के प्रारम्भिक वर्षों में धीरे चलो' की नीति का अनुसरण किया। अतः प्रारम्भिक वर्षों में कांग्रेस एक प्रकार से ब्रिटिश शासन से चन्द राजनीतिक सुधारों की भीख सी माँगती रही। परन्तु यह भी एक तथ्य है कि आगामी वर्षों में कांग्रेस ही एक ऐसी संस्था या मंच थी. जिसके कुशल नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन सफल हुआ।
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