भारत सरकार अधिनियम, 1909 ई. के मुख्य दोषों पर प्रकाश डालिए। भारत सरकार अधिनियम, 1909 में निहित दोष कछ महत्त्व के तत्त्वों को छोडकर अनेक ऐसे बिन्दु भी
भारत सरकार अधिनियम, 1909 ई. के मुख्य दोषों पर प्रकाश डालिए।
भारत सरकार अधिनियम, 1909 में निहित दोष कछ महत्त्व के तत्त्वों को छोडकर अनेक ऐसे बिन्दु भी देखने को मिले जिन्होंने समस्त सुधारों को भारत के हितों के विरुद्ध सिद्ध करने का प्रयास किया था। उनमें से कुछ प्रमुख दोषों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है -
- अधिनियम के उपबन्ध पूर्ण निराशाजनक - कांग्रेस तो समय-समय पर अपने प्रस्तावों के दारा औपनिवेशिक स्वशासन व उत्तरदायी शासन की मांग कर रही थी, परन्तु इस अधिनियम में ऐसी कोई सातम्या नहीं की गई थी वरन इसके स्थान पर संवैधानिक निरंकुशवाद की स्थापना कर दी गई थी।
- साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रोत्साहन - इस अधिनियम के द्वारा शासन ने 'फूट डालो राज्य करो' की नीति का व्यावहारिक रूप प्रदान कर दिया। जान-बूझकर मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए इस नीति को अपनाया गया। यह भारतीय जन आकांक्षाओ पर गम्भीर प्रहार था। अन्त में देश के विभाजन के लिए मार्ले मिन्टो सुधार ही उत्तरदायी है। इसी आधार पर आगे चलकर साम्प्रदायिक पंचाट का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने लिया।
- दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली - निर्वाचन प्रणाली भी दोषपूर्ण थी मताधिकार को बहुत सीमित कर दिया गया था। निर्वाचन पद्धति अप्रत्यक्ष व कभी-कभी दोहरी अप्रत्यक्ष थी। परिणामस्वरूप मदाताओं व प्रतिनिधियों के बीच कोई सम्पर्क नहीं हो पाता था।
- अधिनियम का स्वरूप प्रतिक्रियावादी - इस अधिनियम में ब्रिटिश सरकार भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना चाहती थी। प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्र का नियंत्रण ज्यों का त्यों रहा तथा केन्द्र सरकार पूर्ण रूप से गर्वनर जनरल के नियन्त्रण में थी।
- केन्द्रीय विधानपालिकाओं के सरकारी सदस्यों का आचरण आपत्तिजनक - व्यवस्थापिकाओं में सरकारी सदस्यों का प्रभावकारी गुट था और वे सरकार के इशारे पर मतदान करते तथा प्रश्न पूछते थे। मतदान के समय उन्हें सरकार का समर्थन करना पड़ता था ऐसी स्थिति में निर्वाचित सदस्यों की स्थिति पूर्णरूप से हास्यप्रद बन गई थी।
- निहित कार्यों को प्रोत्साहन - इन अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के साथ समाज के अन्य वर्गों के हितों को भी प्रोत्साहन प्रदान किया गया था जैसे - जमींदार, वाणिज्य संघ व भूपति आदि। सरकार इन शक्तियों का प्रयोग राज्य हितों के विपरीत करती थी।
- प्रशासन का अत्याधिक केन्द्रीकरण - इस अधिनियम के द्वारा प्रशासन को और भी अधिक केन्द्रीयकृत कर दिया गया प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्र का नियंत्रण घटने की बजाय और अधिक बढ़ गया। यह प्रवृत्ति विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के लिए भी घातक सिद्ध हुई।
निष्कर्ष - उपर्युक्त विवेचना से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि सन् 1919 ई. के सुधार अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल सिद्ध हुए क्योंकि यह योजना अपर्याप्त व अमार्गमीय थी इस योजना के द्वारा यद्यपि परिषदों की संरचना, शक्तियां तथा अधिकार क्षेत्र में वृद्धि की गई थी परन्तु यह संसदीय सरकार की स्थापना से मीलों दूर थी। कार्यकारणी परिषद में भारतीयों को स्थान प्रदान किया गया था फिर भी सत्ता अधिकाशतः अंग्रेजों के हाथ में ही रही। प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्र का पूर्णरूप से आधिपत्य स्थापित रहा। गर्वनर तथा गवर्नर जनरल के वोटों के अधिकार को पूर्णरूप से सुरक्षित रखा गया। इसके द्वारा भारत की राजनीतिक समस्याओं का कोई उचित समाधान प्रस्तुत नहीं किया था।
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