नौका-यात्रा पर निबंध : इस लेख में हम पढ़ेंगे जिसमें हम जानेंगे नौका-यात्रा पर निबंध , " नौका-यात्रा पर अनुच्छेद ", " चाँदनी र...
नौका-यात्रा पर निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे जिसमें हम जानेंगे नौका-यात्रा पर निबंध, "नौका-यात्रा पर अनुच्छेद", "चाँदनी रात में नौका विहार पर निबंध" आदि। Hindi Essay on "A Journey by Boat' in hindi" Nibandh.
Essay on 'A Journey by Boat' in hindi', "नौका-यात्रा पर निबंध" for Class 6, 7, 8, 9, & 10
एक बार शरद ऋतु में मुझे मथुरा जाने का अवसर मिला साथ में सहपाठियों की एक बड़ी टोली भी थी। मथुरा के दर्शनीय स्थान देख वृन्दावन जाने का निश्चय हुआ, क्योंकि वृन्दावन धाम देखे बिना हमारी व्रज-यात्रा अपूर्ण रहती। वृन्दावन जाने के कई साधन हैं। कोई रेल से जाते हैं, कोई इक्के ताँगों का सहारा लेते हैं, और कोई पैदल चल कर तीर्थ यात्रा का पूरा पुण्य लाभ करते हैं। कुछ मनचले लोग नौका से भी जाते हैं। हम लोग नौका से भ्रमण करना चाहते थे। माँझी से पूछा कि नाव वृन्दावन जा सकती है या नहीं ? माँझी ने कहा-'हाँ'। उसके 'हाँ' कहते ही, बात की बात में, नौका से ही वृन्दावन जाने का प्रस्ताव छिड़ गया। वृन्दावन मथुरा से ऊपर की ओर है। वहाव के प्रतिकूल नौका को ले जाना हँसी-खेल नहीं है, किन्तु विद्यार्थी जीवन के अदम्य उत्साह में भय और कठिनाई को स्थान नहीं मिलता। दो एक विद्यार्थी, जो तैरने की कला से नितान्त अपरिचित थे, इस प्रस्ताव का विरोध करने लगे। उनकी शंकाएँ निर्मूल बतला दी गई। उन्होंने भी भीरु कहलाने के भय से प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बहुमत से पास किये हुए प्रस्ताव के पलट देने की भला किसकी हिम्मत थीं ! प्रस्ताव पास हुआ और मल्लाह को वृन्दावन की ओर चलने की आज्ञा दी गई। वह नाव को किनारे के निकट लाया। उसके दो साथी और आ गये। बहाव के प्रतिकूल नाव को खे कर ले जाना कठिन कार्य है। इसलिए नाव में रस्सी बाँधी गई। दो नाविक उन रस्सियों को ले कर किनारे पर चलने लगे। इस प्रकार नाव ऊपर की ओर जाने लगी। उस वर्ष वर्षा अधिक हुई थी। आश्विन मास में भी जमुना खूब चढ़ी हुई थी। वायु शीतल थी किन्तु मंद नहीं कह सकते थे। तरणि-तनूजा के विशाल और पुण्य वक्षस्थल पर लहरें उठती और गिरती थीं। उनमें एक विशेष गति और चाल थी, किन्तु कभी कभी वायु की तीव्रता के कारण वह मधुर लास्य (कोमल नृत्य) भी भीषण ताडंव में परिणित हो जाता था। रस्सी से बँधी हुई नावें भी इधर उधर चक्कर खाने लगती थीं। हमारे जलभीरु भाई भय से काँप रहे थे। सोच रहे थे कि किस आफत में फँस गये, अब की बार प्राण बच गये तो फिर ऐसी भूल न करेंगे। वे नौकायात्रा का आनन्द न ले सके। हमको तो नदी का कल कल छल छल शब्द बड़ा सुन्दर मालूम होता था। किनारे की मिट्टी टूट टूट कर गिरती थी। पतवारों की छप छप और उनसे उठे हुए जल के छोटे शरीर में शीतलता और मन में प्रसन्नता उत्पन्न कर रहे थे। इसी प्रकार नाव को खेते खेते हम लोग वृन्दावन धाम पहुँच गये। वहाँ पर गुसाई जी का मन्दिर तथा अन्य सुन्दर सुरम्य स्थान देखे । घूमते-फिरते सायंकाल हो गया। चन्द्रदेव अपनी सुधामयी रश्मियों द्वारा धरातल को ज्योत्स्ना में निमग्न कर रहे थे। हम लोग किनारे आ कर नाव पर बैठ गये। नाविकों ने प्रसन्नता से नाव खोल दी। जो कुछ कठिनाई थी वह तो आते समय थी। जाते समय नाव बहाव के साथ बहने लगी। पतवार को चलाना तो करना पड़ता था, किन्तु वहुत कम। नौका जल के वेग के साथ चल रही थी। किनारे के वृक्ष चलते हुए प्रतीत हो रहे थे। शरद यामिनी की शुभ्र ज्योत्स्ना ने जल को रजतमय बना दिया था। सभी बातें अनुकूल थीं। भोजन भी साथ था। नाव पर सब ने भोजन किया। उसके पश्चात् गाने की ठहरी। रात्रि की निस्तब्धता में गान बहुत ही मधुर और प्रिय मालूम होते थे। हमारे भीरु भाई भी समय की मादकता में अपनी भीरुता भूल गये। यमुना के जल में नृत्य करते चन्द्रमा के चंचल प्रतिबिंब को देख कर हम सब लोग आनन्दविभोर हो उन दिनों की कल्पना करने लगे जब श्रीकृष्ण भगवान ने यमुना-कूल पर रास रचा होगा। नंददासजी की 'रास पंचाध्यायी' के कुछ गीत गाते गाते हम मथुरा पहुँच गये।
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