विद्यार्थी जीवन के कर्तव्य पर हिंदी निबंध विद्यार्थी जीवन की आधारशिला निबंध हिंदी छात्र जीवन हिंदी निबंध Hindi Essay on Vidyarthi Jivan in Hindi vidyarthi jeevan ki aadharshila nibandh hindi mein Student life essay in hindi Chatra jeevan par nibandh essay in hindi विद्यार्थी जीवन पर निबंध इन हिंदी लैंग्वेज छात्र जीवन के कर्तव्य पर निबंध Essay on Vidyarthi Jivan in Hindi Student life Essay in hindi यों तो सारा जीवन ही मनुष्य कुछ-कुछ सीखता रहता है; पर जीवन के जिस काल में हम स्कूल-कॉलेज में जाकर विद्या ग्रहण करते हैं, उसे विद्यार्थी जीवन कहा जाता है। साधारणतः यह काल पाँच वर्ष की आयु से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक माना जाता है और विशेषतः सात वर्ष की आयु से बीस वर्ष की आयु तक।
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विद्यार्थी जीवन के कर्तव्य पर निबंध Vidyarthi Jeevan Essay in Hindi
यों तो सारा जीवन ही मनुष्य कुछ-कुछ सीखता रहता है; पर जीवन के जिस काल में हम स्कूल-कॉलेज में जाकर विद्या ग्रहण करते हैं, उसे विद्यार्थी जीवन कहा जाता है। साधारणतः यह काल पाँच वर्ष की आयु से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक माना जाता है और विशेषतः सात वर्ष की आयु से बीस वर्ष की आयु तक। शिक्षा-प्राप्ति का यही काल भावी जीवन की नींव होता है। जो व्यक्ति विद्यार्थी जीवन में अपने अध्ययन-मनन में दत्तचित्त हो जितनासफल होता है, उसका भावी जीवन भी उतना ही पूर्ण और सफल होता है। नींव पक्की होने पर इमारत पक्की बनेगी ही।
विद्यार्थी जीवन वह सुनहली अवस्था है जब जीवन नितान्त सरल, मन निष्कपट, मधुरऔर उत्साह-भरी आशाओं से पूर्ण होता है। इस काल में विद्यार्थी अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के स्वप्न देखता है। इस काल की दो मुख्य विशेषताएँ मानी गयी हैं। प्रथम यह कि इस काल में शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियाँ नया-नया विकास आरम्भ करती हैं। एक ओर तो वे शुद्ध गीली मिट्टी या साफ कागज़ की भाँति निर्मल और शुद्ध-पवित्र होती हैं, अतः उन पर जो भी प्रभाव अंकित किये जायें वे शीघ्र ही पत्थर की लकीर बन जाते हैं। दूसरी ओर, इस काल में विद्यार्थी के शरीर, मन और बुद्धि में ग्रहणशीलता अधिक होती है और जो भी ज्ञान या अनुभव उसके सामने प्रस्तुत किये जायें, वह उन्हें शीघ्र ही आत्मसात् कर लेता है। इसलिए इस काल में उसकी निरीक्षण-शक्ति, स्मरण-शक्ति,उसकी उत्सुकता व प्रश्न-शक्ति अधिक सक्रिय होती है। यही वह समय है जब भले या बुरे प्रभावों की जड़ें जमायी जा सकती हैं। अतः इस काल में विद्यार्थी को बहुत जागरूक रहकर विद्यालय से सम्बन्धित तथा अन्य प्रकार के अपने कर्तव्यों पर दृढ़ रहने की आवश्यकता रहा करती है।
विद्यार्थी-काल में प्रायः विद्यार्थी अपने माता-पिता, गुरुजनों तथा समाज पर निर्भर करता है, अतः विद्यार्थी का प्रथम कर्त्तव्य माता-पिता एवं गुरुजनों की आज्ञा-पालन करना है। बालक को चाहिए कि वह अपने शुभचिन्तकों के निर्देशों के अनुसार कार्य करके अच्छे गणों और शक्ति का अर्जन करे। विद्यार्थी का दूसरा कर्तव्य विद्याध्ययन करना है। विद्या के तीन उद्देश्य हैं-शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास एवं मानसिक विकास। विद्याध्ययन से यदि इन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होती, ता पढ़ना-लिखना व्यर्थ है। तब ज्ञान भी मात्र बोझ ही साबित होता है, जब वह उचित व्यवहार न सिखा सके।
विद्यार्थी को शारीरिक विकास और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए। व्यायाम, खेलकूद और मनोरंजन के द्वारा उसे शरीर को बलवान एवं स्वस्थ बनाना चाहिए। आलस्य छोड़कर सब काम नियमपूर्वक करने चाहिए। शारीरिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि छात्र का पहनावा और जीवन सादा हो, खान-पान सात्त्विक, हल्का और नियमित हो तथा दैनिक कार्यक्रम में पर्याप्त श्रम हो । मादक द्रव्य, अनियमितता तथा आलस्य शारीरिक विकास के शत्रु हैं। विद्यार्थी को यथा सम्भव अपने कार्य स्वयं करने चाहिए जिससे उसमें स्वावलम्बन और आत्मविश्वास की भावना जागृत हो । यही भावनाएं जीवन की पूंजी और उन्नति की सीढ़ी हुआ करती है। भविष्य इन्हीं से बनकर सजा-संवरा करता है।
बौद्धिक विकास के लिए विद्यार्थी का मुख्य साधन शिक्षा-प्राप्ति है। विद्यार्थी पुस्तकों का कीड़ा न बनकर पढ़े-लिखे, अधिकाधिक समझने का यत्न करे। पुस्तकीय ज्ञानार्जन तो आवश्यक है ही, साथ ही विद्यार्थी को व्यवहारनिपुण भी होना चाहिए। विद्यार्थी को सारा जीवन जिस समाज में व्यतीत करना है, उसके साथ व्यवहार करना भी एक कला है, जो सीखने से आती है। इस उद्देश्य से विद्यालय में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, यथा-सहकारी दुकान, स्कूल, बैंक, ऐतिहासिक यात्राएँ, बाल-सभा में वाद-विवाद, भाषण व अभिनय, रेडक्रॉस, सैनिक शिक्षा आदि। विद्यार्थी को चाहिए कि ऐसे विविध कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग ले। व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ विद्यार्थी को अध्ययनशील भी होना चाहिए। पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पुस्तकालय की पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए, यथा-कथा-कहानियाँ, जीवनियाँ, यात्रा-विवरण, विश्व-परिचय की पुस्तकें, विज्ञान-प्रगति, उपन्यास, निबन्ध, महापुरूषों की जीवनियाँ तथा अन्य मनोरंजक सामग्री आदि। इनसे जो ज्ञान और अनुभव प्राप्त हुआ करता है, वह पाठ्यक्रम पढ़कर परीक्षा पास करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करता है। पाठ्यक्रम तो मात्र डिग्रियाँ दिलवा पाते हैं. व्यावहारिकता तो अन्यान्य विषयों केअध्ययन-मनन से ही प्राप्त हुआ करती है।
छात्र का मानसिक विकास अच्छे गुणों से होता है। इसे नैतिकता या चरित्र-निर्माण भी कहते हैं। चरित्र एक व्यापक शब्द है, जिसके अन्तर्गत वे सभी गुण आ जाते हैं जो किसी भी व्यक्ति में होने चाहिए, यथा-ब्रह्मचर्य, गुरुओं के प्रति नम्रता. साथियों से प्रेमभाव, सत्य,सभ्यता, शिष्टाचार, मितव्ययता, सत्संगति, देश-प्रेम राष्टीयता आदि। इन सब गणों की प्राप्ति का उपाय है अनुशासन। विद्यार्थी को अपनी आन्तरिक प्रेरणा से स्वयमेव भले कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। यदि डण्डे से डरकर नियम का पालन किया तो क्या लाभ? विद्यार्थीको समझ लेना चाहिए कि जीवन का एक-एक क्षण अमूल्य है। मूल्य चुका कर ही कुछ प्राप्ति होती है। आगे बढ़ा जा सकता है।
इन सब गुणों का विकास विद्यार्थी किसलिए करे ? इसलिए कि वह अच्छा नागरिक बनकर राष्ट्र की सेवा कर सके। भारत हमारी माता है। उसकी सेवा का कोई भी अवसर आये तो विद्यार्थी को उससे चूकना नहीं चाहिए। छात्र को प्रतिदिन इस मन्त्र का स्मरण और मनन करना चाहिए भारत मेरा देश है। सभी देशवासी मेरे भाई व बहनें हैं। मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ तथा मुझे उसकी गौरवशाली परम्परा पर गर्व है। मैं देश व जनता की भक्ति की प्रतिज्ञा करता हूँ। उनकी भलाई व समृद्धि में ही मेरी प्रसन्नता तथा मेरा सुख ऐसा मानकर शिक्षारत विद्यार्थी ही कर्तव्यपरायण बन अपना तथा देश-जाति का उपकार कर सकता है।
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