Hindi Essay on “Karat Karat Abhyas ke Jadmati Hot Sujan”, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान हिंदी निबंध” यह उक्ति कविवर वृन्द के एक दोहे की पंक्ति है। यहाँ 'अभ्यास' का अर्थ है निरन्तर और बार-बार प्रयत्न। निरन्तर अभ्यास से वस्तुतः जो जडमति अर्थात् बुद्धिहीन हैं, वे सुजान अर्थात् बुद्धिमान बन जाते हैं; जो सुजान हैं, वे कुशल बन जाते हैं। जो कुशल है, वे अपनी कला में पूर्ण बन जाते हैं, एवं जो पूर्ण हैं। उनकी पूर्णता स्थिर हो जाती है। इस प्रकार अभ्यास की कोई सीमा नहीं, उसका कोई अन्त नहीं। उसकी महिमा अनन्त और परिणाम असीम है। सफलता-सार्थकता का कारण और रहस्य है!
Hindi Essay on “Karat Karat Abhyas ke Jadmati Hot Sujan”, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान हिंदी निबंध”
मध्यकाल में कविवर वृन्द ने नीति के अनेक दोहे लिखे थे। यह उक्ति कविवर वृन्द के एक दोहे की पंक्ति है। यहाँ 'अभ्यास' का अर्थ है निरन्तर और बार-बार प्रयत्न। निरन्तर अभ्यास से वस्तुतः जो जडमति अर्थात् बुद्धिहीन हैं, वे सुजान अर्थात् बुद्धिमान बन जाते हैं; जो सुजान हैं, वे कुशल बन जाते हैं। जो कुशल है, वे अपनी कला में पूर्ण बन जाते हैं, एवं जो पूर्ण हैं। उनकी पूर्णता स्थिर हो जाती है। इस प्रकार अभ्यास की कोई सीमा नहीं, उसका कोई अन्त नहीं। उसकी महिमा अनन्त और परिणाम असीम है। सफलता-सार्थकता का कारण और रहस्य है!
संसार में जन्म से ही कौन विद्वान या सब-कुछ बनकर आता है? आरम्भ में सभी जड़मति अर्थात् अबोध होते हैं, अनजान होते हैं। अभ्यास ही उनको विद्वान, बलवान और महान बनाता है। क्या गामा पहलवान एक ही दिन में पहलवानों को पछाड़ने लगा था ? क्या बोस ने पहले ही दिन धनुषकोटि का समुद्र पार कर लिया था ? क्या ध्यानचन्द पहले खेल में ही विश्वविजयी बन बैठे थे? नहीं ! आज संसार में जो लोग विद्या, बल और प्रतिष्ठा के ऊँचे आसनों पर बैठे हैं, कभी वे सर्वथा अनपढ़, निर्बल और गुमनाम व्यक्ति थे। इसके लिए उन्हें श्रम करना पड़ा,साधना करनी पड़ी. लगन से लगातार जटे रहना पड़ा। इसी को अभ्यास कहते हैं, जो सफलता की कुंजी है।
यदि मनुष्य एक बार के परिश्रम से सफल न हो. तो उसे पन-पनः उद्योग करना चाहिए। शिशु गिर-गिरकर चलना सीखता है, सवार गिर-गिरकर घोड़े पर सवारी करना सीखता है, बच्चा तुतला-तुतलाकर ही शुद्ध बोलना सीख जाता है। इसी प्रकार निरन्तर अभ्यास से हम कुछ भी कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
अभ्यास आत्मविश्वास का सर्वोत्तम साधन और परिणाम है। भगवान् बुद्धि सबको देता है। जो लोग अभ्यास से उसे बढा लेते हैं. वे बुद्धिमान और विद्वान बन जाते हैं। जो बुद्धि से काम नहीं लेते, वे बुद्ध के बुद्धू रह जाते हैं। बेकार पड़े लोहे को भी जंग लग जाता है। इसी प्रकार हम जिस अंग से काम नहीं लेते. वह अंग दर्बल रह जाता है। प्रकति द्वारा दी गयी शक्तियों का सदपयोग करना ही अभ्यास है। इसी से शक्तियों का विकास होता है। सफलताएँ चरण चूमती हैं। आदमी उन्नति का शिखर छू लेता है।
बिना अभ्यास के कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। उसे बनाये रखने के निरन्तर प्रयत्न के बिना वह स्थिर भी नहीं रहती। विद्यार्थी कुछ दिनों के लिए अपनी पुस्तकों को दुहराना छोड़ दे, तो सारा पढ़ा-पढ़ाया भूल जायेगा। कभी-कभी उसे दुहराता रहे तो वह उसे सदा याद रहेगा। अत: अभ्यास ही नहीं निरन्तर अभ्यास करते रहने में ही सफलता है।
विद्वानों का मानना और कहना है कि अभ्यास ही सफलता की सीढ़ी है। केवल शिक्षा में ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जो सफलता चाहता है, उसके लिए अभ्यास आवश्यक है। अभ्यास से कार्य में कुशलता आती है, कठिनाइयाँ सरल होती हैं, समय की बचत होती है। जिस कार्य को एक अनाड़ी दस घण्टों में करेगा, उसे सिद्धहस्त व्यक्ति एक घण्टे में समाप्त कर देगा। काम को बार-बार करने से अभ्यासी का हाथ सध जाता है, उसके अंगों में स्फूर्ति आती है, वह वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म गुण-दोषों को पहचान सकता है। अभ्यास स साधक के अनुभव में वृद्धि होती है, उसकी त्रुटियाँ दूर हो जाती हैं और शनैः शनैः वह पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। उसके कार्य में पूर्णता, सौन्दर्य और कला दृष्टिगोचर होने लगती है। कल का जड़मति आज अपनी कला का विशेषज्ञ बन जाता है। फिर संसार की सब विभतियाँ उसके चरण चूमने लगती हैं। सतत अभ्यास करते रहने वालों ने ही संसार में कुछ कर दिखाया है।
अभ्यास केवल व्यक्तिगत वस्तु ही नहीं, यह एक सामूहिक वरदान भी है। देश की उन्नति का भी यही मल मन्त्र है और समाज-सुधार का भी। देश के विकास के लिए एक व्यक्ति का नहीं, समूचे राष्ट्र का निरन्तर अभ्यास चाहिए, श्रम चाहिए वह भी एक दिन का नहीं, वर्षों का। योजनाएँ चाहिए। एक-दो योजनाओं से काम नहीं चलता, अपितु तब तक हमें योजनाएँ बना-बनाकर सामूहिक श्रम करते रहना होगा। जब तक हम उन्नति के शिखर पर न पहुँच जाएँ। तब तक हमारे लिए 'आराम हराम' हो जाना चाहिए।
शीघ्रता, जल्दबाजी या उतावलापन अभ्यास का सबसे बड़ा शत्रु है। आज बीज बोकर कल फसल नहीं काटी जा सकती। मीठा फल पाने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। अभ्यास करते हुए 'सहज पके सो मीठा होय' के महामन्त्र को भुलाना नहीं चाहिए। गर्म खाने से मुँह जलेगा और स्वाद बिगड़ेगा ही।
अभ्यास अच्छा भी होता है, बुरा भी। अच्छा अभ्यास पड़ गया तो जीवन सँवर जायेगा। बुरा अभ्यास पड़ गया तो जीवन व्यर्थ हो जायेगा। अतः हमें यल करना चाहिए कि बुरे अभ्यास से बचें, हम सुजान से जड़मति न बनें, अपितु जड़मति से सुजान बनें। निरन्तर अभ्यास का यही चरम लक्ष्य है। यही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आदि सभी की प्रगति और विकास का मूल मन्त्र है। इससे भटकना व्यक्ति और राष्ट सभी स्तरों पर पतन के गड्ढे में गिरना है। अतः विशेष रूप से सावधान रहकर प्रयत्न और अभ्यास की आदत डालनी चाहिए! समय खोना, जीवन को नष्ट करना है।
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