बादल की आत्मकथा बादल पर हिंदी निबंध बादल की आत्मकथा हिंदी निबंध यदि मैं बादल होता निबंध हिंदी hindi essay on badal ki atmakatha in Hindi badal ki atmakatha nibandh hindi mein Badal ki atmakatha essay in hindi autobiography of cloud in hindi 5 sentence about clouds in hindi बादल की आत्मकथा निबंध बादल की आत्मकथा पर निबंध बादल की आत्मकथा इन हिंदी लैंग्वेज badal ki atmakatha essay in hindi autobiography of cloud in hindi बालक, क्यों मेरी गर्जना सुन कर डर रहे हो ? मेरी बिजली की चमक से घबरा रहे हो ? मैं कोई भयानक वस्तु नहीं हूँ। मैं बादल हूँ। मेरी कहानी बड़ी रोचक है। क्या सुनोगे ? अच्छा, सुनो।
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बादल की आत्मकथा बादल पर हिंदी निबंध Autobiography of Cloud Essay in Hindi
बालक, क्यों मेरी गर्जना सुन कर डर रहे हो ? मेरी बिजली की चमक से घबरा रहे हो ? मैं कोई भयानक वस्तु नहीं हूँ। मैं बादल हूँ। मेरी कहानी बड़ी रोचक है। क्या सुनोगे ? अच्छा, सुनो।
कभी समुद्र के किनारे खड़े हो कर ध्यान से देखना। वहाँ सूर्य की धूप से वाष्प-भरी हवायें निरंतर उठा करती हैं। यही मेरा जन्म का रूप है। पानी ही वाष्प बनता है। उसी वाष्प रूप में मैं धीरे धीरे ऊँचा उठता चलता हूँ। ऊपर बहुत दूर आकाश में जा कर शीतल वायु लगने से मेरा काला काला वा श्याम रूप बन जाता है। फिर वायु मुझे धकेल धकेल कर इधर उधर ले जाती है। मेरे ही कई भाग सभी ओर फैलने लगते हैं। कभी कभी बहुत दूर तक सारे आकाश को ही घेर लेता हूँ। मेरे भाग वायु के वेग से परस्पर टकरा कर बज उठते हैं, यही मेरी गर्जना है। इस टक्कर से जो आग सी निकलती है, यही बिजली .. कही जाती है। फिर मैं ही वर्षा की धाराओं में फूट पड़ता हूँ। बरस बरस कर धीरे धीरे समाप्त हो जाता हूँ।
हाँ, कभी कभी सचमुच मैं भयानक हो उठता हूँ । वायु का वेग जब आँधी अथवा तूफान का रूप धारण कर लेता है, बहुत ठंड के कारण मेरे अंग जम जाते हैं, तब मेरे अंगों की टक्कर से बड़ा भयानक शब्द होता है। उस गर्जना से सारा संसार काँप उठता है। साथ ही उस टकर से उत्पन्न बिजली वा आग भी कड़क के साथ नीचे आ गिरती है। वह जहाँ भी गिरती है, पृथ्वी के उस भाग को चीर डालती है। महल हों या पर्वत, वृक्ष हों या भूमि का कोई भाग, मनुष्य हों वा पशु, वह आग सब को चीरती फाड़ती जला डालती है। मेरी जल-धारा भूमि पर प्रवाह बहा कर नगरों ग्रामों वा खेतों को नष्ट कर देती है। नदियों वा दरियाओं में तूफान उमड़ आता है। बाँध टूट जाते हैं। हजारों व्यक्ति वा जीव उसमें वह जाते हैं। कभी तो मेरे जल-प्रवाह के भार से पृथ्वी अपना सन्तुलन खो बैठती है। उसमें कँपकँपी आ जाती है। वह जोर से हिल कर नगरों को भीतर धंसा लेती है। कहीं भूमि भीतर धंस जाती है तो कहीं ऊपर को उभर आती है। कभी मैं वर्षा को धारा न बन ओलों वा वर्फ के छोटे छोटे टुकड़ों के रूप में जोर से बरस पड़ता हूँ। उस समय सारा संसार मारे भय के भगवान भगवान कह कर चिल्ला उठता है। पर्वतों पर मैं रुई के रूप में कोमल बर्फ बन कर धीरे धीरे गिरता रहता हूँ।
किन्तु, बालक, डरो नहीं। मैं सदा वैसा भयानक नहीं होता। साधारणतया संसार मेरे दर्शनों के लिए तरसा करता है। गर्मी की ऋतु में जब नदी-नाले सूखने लगते हैं, कुओं तक का पानी समाप्त होने लगता है, लू झुलसाये डालती है, पशु प्यास से तड़पने लगते हैं, पक्षी मुँह खोले दूर आकाश की ओर ताकने लगते हैं, तुम लोग घरों के भीतर छिपे गर्मी और प्याप्त के मारे तड़पने लगते हो, तब सारा संसार बड़ी उत्सुकता से मेरी प्रतीक्षा करता है। पण्डित यज्ञ रचाते हैं, किसान आकाश में दोनों हाथ उठा कर मेरे आने की प्रभु से माँग करते हैं, मनुष्य दान-पुण्यों से मुझे पुकारने का प्रयत्न करते हैं। मेरे आते ही खुशी से फूले नहीं समाते । यह वर्पा का सुहावना समय 'बरसात' नाम से पुकारा जाता है।
तुम्हारी तरह मेरी भी रचना परमात्मा ने एक विशेप उद्देश्य से की है। मैं संसार की रचना में मुख्य और प्रथम साधन हूँ। मैं संसार को जल पहुँचाता हूँ। गर्मी को दूर कर भूमि को भी हरा-भरा बनाता हूँ। धान, मकी, ज्वार, बाजरा आदि सारे अन्नों को उपजाकर संसार के जीवों का पेट भरता हूँ । फूलों फलों की वृद्धि करता हूँ। पर्वतों पर जड़ी-बूटियों को जन्म देता हूँ। प्रायः सारा वर्प संसार को जल पहुँचाने का सारा प्रबन्ध मेरे ऊपर है। पर्वतों पर मेरे द्वारा गिराई गई वरफ सारा साल पड़ी रहती है ; वही पतली पतली अनेक जल-धाराओं में वहते नदी-नालों का रूप धारण कर लेती है। ये नदियाँ ही भूमि को सींचती, जीवों की प्यास बुझाती तथा खेतों को उपजाऊ तथा हरा भरा रखती हैं। झरने भी मेरा ही रूपान्तर हैं। इस प्रकार सारा वर्प मैं समुद्र से उठ कर बहुत ऊँचे आकाश में पहुँच कर वर्षा, बर्फ, झरना, झील वा नदियों के रूप में वहता फिर सागर में जा पहुँचता हूँ।
सूर्य भी मेरी सहायता करता है। उसी की किरणें मुझे जन्म देती हैं। अकेले सागर से ही नहीं, पृथ्वी पर जहाँ भी जल होता है, जिस रूप में भी होता है, सूर्य की किरणें उसे वाष्प में बदलती रहती हैं। सच पूछो तो वायु, अग्नि, तथा सूर्य की सहायता से मैं ही संसार की रचना, पालन तथा विनाश सभी कुछ करता रहता हूँ। जहाँ मैं नहीं होता, वहाँ रेत ही रेत हो जाती है। वहाँ जीवों की तो कौन कहे, वनस्पति तक का नामोनिशान नहीं होता । वहाँ उजाड़ ही उजाड़ होता है। मेरी शक्ति से भूमि हरी-भरी, उपजाऊ तथा जीवों से भरी शोभाशालिनी बन जाती है। मेरी तनिक सी कुदृष्टि इस भूमि को नष्टभ्रष्ट भी कर देती है। मैं श्यामसुन्दर भी हूँ और प्रलय का बादल भी। यही मेरी आत्म-कथा है । क्यों कुछ अच्छी लगी?
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